बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

साठ साल का दूरदर्शन (दैनिक जागरण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

15 सितम्बर, 1959 को शुरू हुए दूरदर्शन ने बीते 15 सितम्बर को अपने साठ साल पूरे कर लिए। दूरदर्शन की ये छः दशकीय यात्रा भारत में टेलीविजन की यात्रा भी है। 1959 में एक प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया ये चैनल अपने प्रारंभिक तेरह वर्षों में केवल दिल्ली तक सीमित रहा। हालांकि 1965 में आल इंडिया रेडियो के अंतर्गत दिल्ली में इसके दैनिक प्रसारण की व्यवस्था हो गयी थी, मगर देश के अन्य हिस्सों तक इसकी पहुँच की शुरुआत 1972 में हुई। 1972 में मुंबई और अमृतसर में इसका प्रसारण शुरू हुआ और 1975 तक ये देश के सात अन्य शहरों में भी दिखाया जाने लगा। इसी क्रम में 1976 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत इसका एक अलग विभाग बना दिया गया और फिर 1982 से राष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रसारण होने लगा। इसके बाद तो अपने एक से बढ़कर एक लोकप्रिय और उम्दा कार्यक्रमों के माध्यम से दूरदर्शन ने देश लोगों के दिलों में जो जगह बनाई, वो एक इतिहास ही है।

दूरदर्शन के साठ साल पूरे होने पर सोशल मीडिया पर जिस तरह लोगों ने उसके पुराने कार्यक्रमों को याद करते हुए उनसे सम्बंधित अपने अनुभव साझा किए, वो इस बात का प्रमाण है कि आज लोगों ने दूरदर्शन देखना भले कम कर दिया हो, लेकिन उसका पुराना दौर आज भी उनके दिलों में पूरी तरह से जिंदा है। न केवल जिन्दा है बल्कि बहुत से लोग लोग यह भी मानते हैं कि आज के कार्यक्रमों में उन्नत तकनीकी और साज-सज्जा भले आ गयी हो, लेकिन सामग्री की गुणवत्ता और मनोरंजकता के मामले में दूरदर्शन पर प्रसारित पुराने कार्यक्रमों वाली बात इनमें नहीं है।
इसी संदर्भ में दूरदर्शन के बीते दौर पर नजर डालें तो आजकल जितनी भी विधाओं के कार्यक्रम अलग-अलग चैनलों पर प्रसारित होते हैं, उनमें से अधिकांश विधाओं के कार्यक्रमों की शुरुआत दूरदर्शन ने की थी। फिर चाहें वो धार्मिक धारावाहिक हों या रहस्य-रोमांच-भय-एक्शन और हास्य के धारावाहिक अथवा पारिवारिक संबंधों, मूल्यों व प्रेम से सम्बंधित धारावाहिक हों या फिर गीत-संगीत से सम्बंधित रियलिटी शो हों, इन सब विधाओं के अत्यंत श्रेष्ठ कार्यक्रम दूरदर्शन पर बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों और इक्कीसवीं सदी के कुछ प्रारंभिक वर्षों में प्रसारित हुए थे।
रामायण, महाभारत और कृष्णा दूरदर्शन के इन तीन धार्मिक धारावाहिकों की लोकप्रियता और इनसे लोगों के आत्मीय जुड़ाव का अनुमान इतने से ही लगा सकते हैं कि राम-सीता के रूप में अरुण गोविल और दीपिका तो कृष्ण के रूप में नीतीश भारद्वाज और सर्वदमन बनर्जी लोगों के मन में आजतक बसे हुए हैं। तब घर-घर में टीवी भी नहीं होती थी, लेकिन लोग दूर-दूर तक टीवी वाले घरों में ये धारावाहिक देखने पहुँच जाते थे। बाद में अन्य चैनल आने के बाद उनपर भी रामायण, महाभारत और कृष्ण लीला के अनेक धारावाहिक आए, लेकिन जो असर दूरदर्शन के इन धारावाहिकों का था, वैसा असर कोई नहीं छोड़ पाया।
इसी तरह फौजी, बुनियाद, हम लोग, चंद्रकांता, आलिफ लैला, चाणक्य, वागले की दुनिया, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, श्रीमान श्रीमती, ये जो है जिंदगी, सुराग, व्योमकेश बख्शी, आपबीती, शक्तिमान, जासूस विजय जैसे विविध विधाओं के अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्होंने बच्चों से लेकर बड़े-बूढों तक को दूरदर्शन का दीवाना बना दिया था। शक्तिमान के रूप में भारत को उसका पहला सुपरहीरो देने का श्रेय भी दूरदर्शन को ही जाता है। फिल्मों में कुछ ख़ास न कर पाने वाले मुकेश खन्ना को सुपरहीरो शक्तिमान ने जो लोकप्रियता दी, वो किसी फ़िल्मी नायक की लोकप्रियता से कम नहीं थी। दूरदर्शन के इन कार्यक्रमों के कामयाब होने के पीछे प्रमुख कारण था कि इनमें से तमाम धारावाहिकों की पटकथा और संवाद उस दौर के बड़े लेखकों ने लिखे थे। जैसे कि दूरदर्शन के लिए बुनियाद, हम लोग, मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसे धारावाहिक मशहूर लेखक मनोहर श्याम जोशी ने लिखे थे, तो वहीं महाभारत की पटकथा और संवाद राही मासूम रज़ा की कलम से निकलकर लोकप्रिय हो गए। इसके अलावा इन धारावाहिकों की लोकप्रियता का एक कारण इनकी एकदम यथार्थपरक प्रस्तुति भी थी, जिससे लोगों का इनसे सहज जुड़ाव हो जाता था।
बहरहाल, अब सवाल ये उठता है कि जिस दूरदर्शन का इतना बड़ा और पक्का दर्शकवर्ग था, उसकी लोकप्रियता समय के साथ सिकुड़ती क्यों गयी? गौर करें तो 1992 में स्टार और जी के चैनल आए, लेकिन उसके बाद भी लम्बे समय तक दूरदर्शन का प्रभाव बना रहा। मगर इक्कीसवीं सदी में चैनलों की बढ़ती भीड़ और उनपर कार्यक्रमों-फिल्मों की भरमार शहरी लोगों को दूरदर्शन से दूर करती गयी। गांवों में फिर भी कुछ समय तक दूरदर्शन की लोकप्रियता रही, लेकिन डीटीएच के आगमन के बाद गांवों में भी दूरदर्शन के दर्शक कम होते गए। इसका एक कारण यह भी रहा कि समय के साथ दूरदर्शन पर पुराने कार्यक्रम बंद हो गए और उनकी जगह उस स्तर के नए कार्यक्रम आए नहीं। ऐसे में लोगों के लिए दूरदर्शन के प्रति कोई विशेष आकर्षण बचा नहीं और वो लोगों के लिए किसी एंटिक पीसकी तरह हो गया, जिसका महत्व तो बहुत है, मगर उपयोग कुछ नहीं।
साठ साल पूरे होने पर दूरदर्शन की तरफ से ट्विटर पर एक कविता का वीडियो पोस्ट किया गया, जिसका शीर्षक है मैं नए भारत का चेहरा हूँ। मशहूर ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी इस कविता के बोल बहुत अच्छे हैं और अमिताभ बच्चन ने इसे गाया भी बहुत उम्दा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई दूरदर्शन की हालत ऐसी है कि उसे नए भारत का चेहरा कहा जाए? शायद नहीं। दूरदर्शन नए भारत का चेहरा बने, ये बहुत अच्छी बात है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उसके कार्यक्रमों में नए भारत का अक्स दिखाई दे, मगर दुर्भाग्यवश ऐसा है नहीं। दूरदर्शन की वेबसाइट पर उपलब्ध उसके कार्यक्रमों की सूची देखने पर ज्ञात होता है कि उसके पास नए कार्यक्रम काफी कम हैं और ज्यादातर वक़्त उसपर पुराने डेली शॉपकार्यक्रमों का ही पुनः प्रसारण किया जा रहा है। सवाल है कि क्या इन पुराने कार्यक्रमों के भरोसे दूरदर्शन नए भारत का चेहरा बन सकता है?
वर्तमान समय में चैनलों और कार्यक्रमों की भरमार है, जिसने प्रतिस्पर्धा का वातावरण पैदा कर दिया है। दूरदर्शन इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ नहीं रहा, बल्कि भाग लेने से बच रहा है जो कि ठीक नहीं है। दूरदर्शन के पुराने कार्यक्रमों की गुणवत्ता उसकी पहचान है और लोगों का उससे एक भावनात्मक जुड़ाव भी है, ऐसे में अगर वर्तमान समय के अनुरूप किन्तु अपनी मौलिकता और पुरानी गुणवत्ता के साथ कार्यक्रम लाए जाएं और उनका सही प्रचार-प्रसार किया जाए तो दूरदर्शन इस कठिन प्रतिस्पर्धात्मक समय में भी अपना एक दर्शकवर्ग तैयार कर सकता है।

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