शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

आर्थिक आधार पर आरक्षण से परहेज क्यों ? [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आरक्षण तो इस देश में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है । पर फ़िलहाल कुछ समय से ये विषय ठण्डा पड़ा था जिसे गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेल आरक्षण की मांग को लेकर उठे विवाद ने एकबार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया । इसके बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा अभी हाल ही में जिस तरह से आरक्षण पर बयान दिया गया, उसके बाद तो यह मामला और गर्म हो चुका है । दरअसल विगत दिनों मोहन भागवत ने जोधपुर में कार्यकर्ताओं की बैठक को संबोधित करते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत की गयी । संघ प्रमुख के इस बयान के बाद राजनीतिक महकमे में उनका विरोध शुरू हो गया । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा जहाँ संघ को भाजपा का ‘सुप्रीम कोर्ट’ कहा गया तो राजद प्रमुख लालू यादव ने धमकी के अंदाज में कह डाला कि माँ का दूध पिया है तो आरक्षण ख़त्म करके दिखाएं । विरोध यहाँ तक तो ठीक था, पर आश्चर्यजनक यह रहा कि संघ की एकदम करीबी और खुले तौर पर संघ   समर्थक पार्टी भाजपा द्वारा भी मोहन भागवत के इस बयान से गोल-मोल ढंग से  किनारा कर लिया गया । और बाद में संघ की तरफ से भी सफाई आ गई कि भागवत के बयान को गलत ढंग से लिया गया । इन सब बातों के मद्देनज़र  सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते ही हमारे राजनीतिक दलों में खलबली मच जाती है ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले हमें ये समझना होगा कि आजादी के बाद संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का उद्देश्य क्या था ?
  दरअसल संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज से असमानता को समाप्त करना तथा निम्न व पिछड़े वर्गों को जीवन के हर क्षेत्र में अवसर की समानता देना था । आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक  परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था । पर समय के साथ हमारी सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव हुए हैं और वर्तमान समय में ऐसा कोई ठोस कारण नही दिखता जिसके आधार पर जाति आधारित आरक्षण को ठीक  कहा जा सके । लिहाजा कहना गलत नही होगा कि समय की मांग को देखते हुए जाति आधारित आरक्षण में भी परिवर्तन के लिए भी विचार होना चाहिए । यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ। अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी । इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा । पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिग्य है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि । साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है । आरक्षण की समीक्षा न होने व उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही है कि आज आरक्षण शासक वर्ग के लिए तुष्टिकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है । ऐसे कई दल हैं जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण के भरोसे है । आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा  अनुसूचित जातियों-जनजातियों को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है । इन सब बातों को देखते हुए अब ये समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टिकरण की राजनीति के ही कारण सभी राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और आर्थिक आधार पर आरक्षण का विरोध किया जाता है । अन्यथा जाति आधारित व आर्थिक आधार पर आरक्षण के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये स्पष्ट है कि आर्थिक आधार पर अगर आरक्षण दिया जाए तो वो न सिर्फ समानता के साथ अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाएगा, बल्कि वर्तमान आरक्षण की तरह तुष्टिकरण की राजनीति के तहत  इस्तेमाल होने से भी बचेगा ।
   ये सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के काफी लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं । लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नही है जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर रूप से सशक्त हो चुके हैं । ये वो लोग हैं जिन्हें आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला है और वो सक्षम और संपन्न हो चुके हैं । पर बावजूद इस सम्पन्नता के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है । ऐसे ही लोगों के लिए सन १९९२ में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर शब्द का इस्तेमाल किया था । इस क्रीमी लेयर के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार व बच्चों को आरक्षण का लाभ नही मिलना चाहिए । लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के इस क्रीमी लेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता  रहा ? हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय कोई सवाल न उठाए इसके लिए हमारे सियासी आकाओं ने क्रीमी लेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया । यानि कि पहले डेढ़ लाख की वार्षिक आय वाले पिछड़े वर्ग के लोग क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते थे, पर सरकार ने उस आय को बढ़ाकर साढ़े चार लाख कर दिया ।    

  आज भले ही मोहन भागवत के आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात पर उनका विरोध हो रहा हो, पर उनके इस बयान ने आज आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बहस को एकबार फिर प्रासंगिक कर दिया है । सरकार को भी चाहिए कि वो सिर्फ आरक्षण देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री न समझे बल्कि इस बात का भी अध्ययन करे कि आरक्षण का लाभ सही मायने में जिन्हें मिलना चाहिए उन्हें मिल भी रहा है या नही । अगर इन बातों पर सरकार सही ढंग से ध्यान देती है तो ही हम आरक्षण के उस उद्देश्य को पाने की तरफ अग्रसर हो सकेंगे जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी । अन्यथा तो आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया की तरह जारी रहेगा जिसका कोई उद्देश्य नही होगा ।

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

मन की बात पर रोक की मांग के निहितार्थ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

ज्यों-
दैनिक जागरण राष्ट्रीय 
ज्यों बिहार चुनाव की घड़ियाँ नज़दीक आती जा रही हैं, त्यों-त्यों बिहार में सियासी पारा गर्म होता जा रहा है। लड़ाई भाजपा और उसके घटक दलों तथा महागठबंधन के बीच है, लिहाजा इनके बीच तरह-तरह के सियासी दाँव-पेंच भिड़ाए जा रहे हैं। इन्ही दाँव-पेंचों के क्रम में महागठबंधन के दलों ने चुनाव आयोग से मांग कर दी कि बिहार चुनाव तक प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ कार्यक्रम पर रोक लगाईं जाए। विगत १५ सितम्बर को महागठबंधन के नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल द्वारा चुनाव आयोग को इस सम्बन्ध में ज्ञापन सौंपा गया। प्रतिनधिमंडल में केसी त्यागी, केसी मित्तल आर एस सुरजेवाला, पवन वर्मा और मनोज झा आदि महागठबंधन के सभी दलों के नेता शामिल थे। इन नेताओं का कहना था कि बिहार चुनाव के मद्देनज़र ‘मन की बात’ आचार संहिता का उल्लंघन है, इसलिए इसपर रोक लगनी चाहिए। चुनाव आयोग द्वारा इस मांग को खारिज तो कर दिया गया, लेकिन पीएम की मन की बात के साथ कुछ शर्ते लगा दीं
गईं, जैसे कि मन की बात में मतदाताओं को लालच देने सम्बन्धी व बिहार सम्बन्धी बातों का जिक्र न हो। इसके बाद बीते रविवार को प्रधानमंत्री की मन की बात का पूरे देश में प्रसारण हुआ। प्रधानमन्त्री ने अपने आधे घंटे के कार्यक्रम में न तो केंद्र सरकार उपलब्धियों का जिक्र किया और न ही बिहार का ही नाम लिया, लेकिन इशारों-इशारों में ही मन की बात रोकने सम्बन्धी मांग करने वाले महागठबंधन पर निशाना जरूर साध दिया। बहरहाल महागठबंधन नेताओं की मांग भले खारिज हो गयी हो, लेकिन फ़िलहाल इतना तो साफ़ दिख रहा है कि इस चुनाव के परिणाम चाहें जो आएं, पर सियासी दाँव-पेंचों में इस महागठबंधन से पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं रहने वाला।
गौर करें तो अबसे पहले दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि तमाम राज्यों के चुनाव हुए, मगर उस दौरान कांग्रेस या किसी अन्य दल ने पीएम के ‘मन की बात’ पर रोक लगाने की मांग नहीं की। अब ऐसा तो है नहीं कि मन की बात का प्रसारण केवल बिहार में होता हो, यह तो पूरे देश में प्रसारित होता है। लिहाजा सवाल यह उठता है कि जब और राज्यों के चुनावों में मन की बात से कोई दिक्कत नहीं हुई तो फिर अभी बिहार चुनावों में ऐसा क्या हो गया है कि महागठबंधन के दल मन की बात रोकने की मांग करने लगे  ?  दरअसल यहाँ मामला यह है कि बिहार चुनाव में भाजपा का चेहरा मोदी ही हैं और भागलपुर में हुई परिवर्तन रैली के बाद मोदी की बिहार में कोई रैली नहीं हुई है। आचार संहिता लगने के बाद प्रचार-प्रसार भी ठप्प है। इस नाते महागठबंधन के दलों को आशंका है कि मन की बात कार्यक्रम के माध्यम से मोदी बतौर पीएम बिहार की जनता से जुड़ने की कोशिश कर सकते हैं। लिहाजा मन की बात पर रोक लगवाकर महागठबंधन के कांग्रेस आदि दलों द्वारा बिहार चुनाव के दौरान मोदी के जनसंपर्क को ख़त्म करने की मंशा के तहत काम किया गया था। कांग्रेस जो कि ‘मन की बात’ पर रोक लगवाने के लिए विशेष जोर लगाती दिख रही थी, की हालत को समझा भी जा सकता है। वो पिछले तमाम चुनावों से लगातार हारती आ रही है, इस नाते इस चुनाव जरा सा भी खतरा नहीं लेना चाहतीं होगी।
  इसमे तो कोई संदेह  नहीं कि महागठबंधन की ‘मन की बात’ रोकने की मांग काफी हद तक  राजनीति प्रेरित है, मगर चुनाव आचार संहिता के दृष्टिकोण से विचार करें तो कहीं न कहीं इस मांग में कुछ दम भी नज़र आता है। चूंकि अभी हाल ही में अपनी एक चुनावी रैली में मोदी ने बिहार को १.२५ लाख करोड़ का  पैकेज देने की घोषणा की थी। अब इसकी संभावना है कि मन की बात कार्यक्रम के जरिये वे केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को दी जाने वाली सहायता के उल्लेख के क्रम में बिहार को दिए इस पैकेज समेत बिहार के लिए की जाने वाली अन्य केन्द्रीय पहलों का जिक्र कर सकते हैं। केन्द्रीय योजनाओं का उल्लेख करते समय बिहार को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं की बात भी कर सकते हैं। ये बातें वे बेशक बतौर प्रधानमंत्री करेंगे, लेकिन इनका असर बिहार की जनता पर बतौर भाजपा के नेता के रूप में नहीं पड़ेगा, ऐसा नहीं कह सकते। हालांकि एक दूसरी बात यह भी है कि यह पूरे देश में प्रसारित होने वाला कार्यक्रम है, अतः सिर्फ बिहार के लिए इसे नहीं रोका जा सकता। ऐसे में बिहार का जिक्र न करने व मतदाताओं को लुभाने वाली बातों से परहेज करने जैसी शर्ते लगाकर तो चुनाव आयोग ने अच्छा समाधान दिया है। साथ ही अगर तकनिकी रूप से संभव हो तो यह भी किया जा सकता है कि बिहार चुनाव तक के लिए इसका प्रसारण बिहार को छोड़ बाकी पूरे देश में होना निश्चित कर दिया जाए। इससे महागठबंधन के दल भी संतुष्ट हो जाएंगे, बिहार की आचार संहिता का मान भी निर्विवाद रूप से सुरक्षित रह जाएगा और देश के प्रधानमंत्री का जनसंपर्क भी नहीं टूटेगा।

शिक्षामित्रों का बेजां हंगामा [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट 
इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यूपी के १.७५ लाख शिक्षामित्रों की बतौर सहायक अध्यापक नियुक्तियां रद्द क्या कर दीं गईं कि ये शिक्षामित्र ऐसे हंगामा मचाने लगे जैसे उनके साथ कोई बड़ा अन्याय हो गया हो, जबकि वास्तविकता ये है कि इन शिक्षामित्रों में से अधिकांश शिक्षामित्र ऐसे हैं जिनकी शैक्षिक योग्यता शिक्षामित्र होने के लायक भी नहीं है। बावजूद इसके यूपी सरकार द्वारा स्नातक शिक्षामित्रों को बिना शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) के सीधे सहायक अध्यापक नियुक्त करने की योजना तैयार कर ली गई। वो तो गनीमत रही कि इस सम्बन्ध में न्यायालय में याचिकाएं डालीं गईं और फिर उन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों पर यह कहते हुए विराम लगा दिया कि “जिन शिक्षामित्रों को नियमित किया गया है, वह न तो एनसीटीई द्वारा निर्धारित न्यूनतम योग्यता रखते हैं और न ही उनकी नियुक्ति स्वीकृत पदों पर हुई है। राज्य सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 में नया रूल 16 ए जोड़कर न्यूनतम अर्हता को संशोधित करने का अधिकार हासिल कर लिया। सरकार का यह कार्य गैरकानूनी है। इसके फलस्वरूप ऐसे योग्य अभ्यर्थी जो एनसीटीई द्वारा निर्धारित न्यूनतम अर्हता पूरी करते हैं, उनके अधिकारों का हनन हुआ है।“  इससे पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी यूपी सरकार को सख्त निर्देश देते हुए कहा गया था कि बगैर टीईटी उत्तीर्ण शिक्षामित्रों की बतौर सहायक अध्यापक नियुक्ति नहीं की जा सकती; यह एनसीटीई के नियमों के विरुद्ध है। अब वस्तुस्थिति ऐसी है और शिक्षामित्र हंगामा ऐसे मचा रहे हैं जैसे सहायक अध्यापक पद उनका अधिकार हो जो कि न्यायालय ने उनसे छीन लिया  है। आत्महत्या, कक्षाओं के बहिष्कार से लेकर सड़कों पर तरह-तरह के विरोध प्रदर्शनों तक शिक्षामित्रों का हंगामा जारी है। एक विचित्र मामला तो ऐसा भी आया कि शिक्षामित्र पत्नी की सहायक अध्यापक पर नियुक्ति रद्द होने के बाद पति ने उसे घर से ही निकाल दिया। यह सब हंगामा मोटे तौर पर सिर्फ इसलिए है कि ये शिक्षामित्र शिक्षक पात्रता परीक्षा से गुजरे बिना नियुक्ति चाहते हैं। दरअसल बात यह है कि इनमे से  अधिकांश लोगों की बतौर शिक्षामित्रों नियुक्तियां भी योग्यता के आधार पर कम जुगाड़ और भ्रष्टाचार के आधार पर अधिक हुई है। लिहाजा जुगाड़ के द्वारा शिक्षामित्र बने ये लोग टीईटी पात्रता परीक्षा का विरोध कर रहे हैं क्योंकि इन्हें पता है कि अगर पात्रता परीक्षा के तहत नियुक्ति हुई तो अधिकांश शिक्षामित्र नियुक्ति से वंचित रह जाएंगे। क्योंकि योग्यता का तो इनमे निरपवाद रूप से सर्वाधिक अभाव है।
  दरअसल  यूपी में शिक्षा मित्र योजना का आरम्भ सन २००१ में इस उद्देश्य के तहत किया गया था कि ग्रामीण शिक्षित लोग ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण कार्य कर सकेंगे जिससे कि प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी की समस्या से कुछ निजात मिलेगी तथा अधिक से अधिक बच्चे सरकारी विद्यालयों से जुड़ेंगे। शिक्षामित्र के चयन की व्यवस्था ग्राम प्रधान के हाथ दी गई और व्यवस्था यह बनी कि चयनित शिक्षामित्रों को जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान द्वारा ३० दिवसीय प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा। तत्पश्चात ग्राम शिक्षा समिति शिक्षामित्र को ग्राम पंचायत के अंतर्गत जिस स्कूल के लिए भी चयनित किया गया हो, उसमे शिक्षण कार्य के नी अनुमति प्रदान कर देगी। एक शिक्षामित्र के कार्य की समय सीमा भी निर्धारित हुई कि वो आरम्भ शिक्षा सत्र के अंत तक रहेगी और उसके बाद स्वतः समाप्त हो जाएगी, फिर यदि ग्राम पंचायत चाहें तो शिक्षामित्र के कार्य, व्यवहार आदि के आधार जिला स्तरीय समिति को उसका कार्यकाल बढ़ाने के लिए प्रस्ताव भेज सकती है। जिसके आधार पर शिक्षा मित्र का कार्यकाल पुनः अगले सत्र तक के लिए बढ़ा दिया जाएगा। अब शिक्षामित्र नियुक्ति की इस पूरी व्यवस्था ने अगर कुछ किया तो वो सिर्फ ये कि ग्राम प्रधान के छक्के-पंजे हो गए। चूंकि शिक्षामित्र नियुक्ति की पूरी शक्ति ग्राम प्रधान के हाथ में थी, सो ग्राम प्रधानों ने जमकर इस स्थिति का लाभ लिया और शिक्षामित्र की नियुक्ति के लिए लोगों से जमकर धन उगाही की। पैसे के आगे नियुक्ति की बाकी सब अहर्ताएं गौण हो गई। परिणाम यह हुआ कि जिनकों अपना नाम तक ढंग से लिखना नहीं आता था, ऐसे लोग भी शिक्षामित्र बन गए। कुछ समय बाद इन लोगों को एक उम्मीद यह भी पकड़ा दी गयी कि शिक्षामित्रों को नियमित भी किया जाएगा। और आज इतना सब विवाद बस इसी नियमितीकरण की उम्मीद के कारण पनपा है। दरअसल इनमे से अधिकांश  वो लोग हैं जिन्हें शिक्षामित्र भी बिना किसी परिश्रम और योग्यता के सिर्फ पैसे के दम पर मिल गया तो इसी कारण ये सहायक शिक्षक भी वैसे ही बनना चाहते हैं। कहना गलत न होगा कि अगर इसके लिए भी कहीं से घूस देने की व्यवस्था हो तो ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।    

  अब प्रश्न यह है कि आखिर क्या कारण है कि ऐसे अयोग्य शिक्षामित्रों को यूपी सरकार द्वारा सहायक अध्यापक बनाने की तयारी की जा रही थी ? दरअसल यहाँ मामला राजनीतिक हो जाता है। अब यूपी चुनाव में लगभग दो वर्ष का समय शेष है और यूपी में अखिलेश सरकार को लेकर जनता में अभी से काफी आक्रोश दिख रहा है। ऐसे में इन नियुक्तिओं को करने के पीछे   यूपी सरकार की मंशा यही रही होगी कि इन शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक के रूप में नियमित कर इनके मत को आगामी यूपी चुनाव के मद्देनज़र सीधे-सीधे  अपने पाले में कर लिया जाय। लेकिन उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाते ही यूपी सरकर की ये राजनीतिक मंशा पर तो पानी फिर गया। हालांकि प्रदेश के बच्चे अवश्य अशिक्षित शिक्षकों की भेंट चढ़ने से बच गए जो कि यूपी सरकार की राजनीतिक मंशा और सड़कों पर बेजां रुदन मचाए इन निरपवाद रूप से अयोग्य शिक्षामित्रों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

मच्छर से परेशान भावी महाशक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
पिछले कुछ सालों से यह एक परम्परा सी बन गई है कि लगभग हर साल सितम्बर-अक्टूबर के मौसमी बदलाव वाले महीने में देश में डेंगू बुखार का प्रकोप फ़ैल जाता है। यह प्रकोप सितम्बर से अक्तूबर के बीच लगभग एक-डेढ़ महीने तक रहता है और इस दौरान बड़े-बूढ़े-बच्चे आदि सैकड़ों-हजारों जानों को लील लेता है। फिलवक्त देश में यही डेंगू का दौर चल रहा है। हर तरफ सिर्फ इसीके चर्चे हैं। यूँ तो इसका प्रकोप देश के तमाम क्षेत्रों में होता  है, मगर राजधानी दिल्ली इससे विशेष रूप से त्रस्त होती है। कह सकते हैं कि दिल्ली इसके प्रकोप के केंद्र में होती है। इस बात को आंकड़ों के जरिये समझें तो विगत वर्ष दिल्ली में डेंगू से ७४ लोगों की मौत हुई थी और इस साल भी अबतक दिल्ली में डेंगू के १५८ मामले सामने आ चुके हैं जिनमे कि १५ लोगों की जान भी जा चुकी है। इन १५ लोगों में से ४ लोग तो देश के अत्यंत प्रतिष्ठित  चिकित्सा संस्थान  एम्स में इलाज के दौरान अपनी जान गँवा चुके हैं। अभी यह सिर्फ शुरुआत है, विगत वर्षों के हिसाब से देखें तो आगे ये आंकड़ा और बढ़ने की संभावना है। दिल्ली का एक मामला तो ऐसा सामने आया है जिसमे कि एक दंपत्ति ने अपने बच्चे की डेंगू से हुई मौत के बाद दुःख और हताशा में आकर आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि देश की राजधानी को एक मच्छर ने पूरी तरह से डर के साए में ला दिया है। पिछले साल के आंकड़ों पर गौर करें तो तमिलनाडु में सर्वाधिक साढ़े आठ हजार डेंगू बुखार से पीड़ित लोगों की संख्या रही। ५७०० डेंगू पीड़ितों के साथ बंगाल दूसरे नंबर पर रहा। इसके अतिरिक्त एमपी, यूपी आदि राज्यों में भी डेंगू का कमोबेश प्रकोप फैला हुआ है। स्पष्ट है कि डेंगू का प्रकोप सिर्फ राजधानी दिल्ली तक नहीं, लगभग पूरे देश में ही भीषण रूप में है।
  डेंगू सभी मच्छरों के काटने से नहीं फैलता; इसकी दो प्रजातियों एडीज एजिपटाई और एडीज एल्वोपेक्टस के मच्छरों के काटने से फैलता है। इन्हीं प्रजातियों के मच्छरों को डेंगू मच्छर भी कहा जाता है। मच्छरों की ये प्रजातियाँ  ऐसी हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अन्य मच्छरों से काफी अधिक होती है, लिहाजा इनपर सामान्य मच्छर छाप टिकिया, कॉइल्स आदि का बहुत असर नहीं होता। साथ ही इनका जहर भी अत्यंत तीव्र और प्रतिरोधक क्षमता वाला होता है जिस कारण उससे भयानक बुखार हो जाता है और दवा आदि का भी शीघ्र असर नहीं होता। डेंगू मच्छर विशेष रूप से उस जगह पर पैदा होते हैं जहाँ अधिक मात्रा में पानी जमा हो। डेंगू होने की स्थिति में व्यक्ति को सर्दी-जुकाम, बुखार, सरदर्द आदि परेशानियाँ रहती हैं जो कि सामान्य दवा से नहीं ठीक होती। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि ये व्यक्ति की प्लेटलेट्स को कम कर देता है जिससे व्यक्ति में अत्यधिक कमजोरी आ जाती है। यदि समय रहते प्लेटलेट्स को नियंत्रित कर लिया गया तब तो ठीक, अन्यथा व्यक्ति के जीवन पर भी संकट की स्थिति बन जाती है। निवारण के रूप में पपीते के पत्ते का रस, नारियल पानी आदि प्रयुक्त होते हैं, इन चीजों से प्लेटलेट्स में तेजी से बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन इन सब चीजों के बावजूद अब भी डेंगू के उपचार को लेकर देश में व्यवस्था कैसी है, इसे इसीसे समझा जा सकता है कि देश की राजधानी में ही हर वर्ष डेंगू से तमाम लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। हर साल सितम्बर-अक्तूबर के महीने में डेंगू का हल्ला उठता है तो दिल्ली समेत देश भर में ऐसी अफरा-तफरी मच जाती है जैसे कि कोई महामारी आ गई हो। विगत कई वर्षों से यह सिलसिला जारी है और देश अबतक इस दिशा में कुछ भी ठोस व्यवस्था नहीं कर सका है। यहाँ तक कि देश की राजधानी के कुछेक अस्पतालों में ही डेंगू के इलाज की व्यवस्था है। ऐसे में  प्रश्न यह है कि जो देश दुनिया की भावी महाशक्ति होने का स्वप्न संजोए बैठा है, वो एक मच्छर के प्रकोप से देश को सुरक्षित रखने की दिशा में कुछ ठोस क्यों नहीं कर पा रहा कि हर साल उससे देश के सैकड़ों लोग अपनी जान गँवा रहे हैं ?
दरअसल यहाँ समस्या यह है कि डेंगू को लेकर देश की सरकारें कभी बहुत गंभीर ही नहीं रहीं। देश में डेंगू सिर्फ तब चर्चा का विषय बनता है, जब सितम्बर-अक्टूबर के महीने में बरसात होने पर इसका प्रकोप तेज होता है। इस दौरान इस विषय में हो-हल्ला उठता है और केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा अस्पतालों को निर्देश देने, कीटनाशक का छिडकाव कराने जैसे कुछ फौरी कदम उठाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है। फिर मौसम बदलता  है और इसका प्रकोप कम होता है तथा इसकी चर्चा भी गायब हो जाती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि साठ के दशक में देश में प्रतिवर्ष लगभग सात करोड़ के आसपास लोग मलेरिया से ग्रस्त होते थे जिसकी तरफ सरकार का ध्यान अस्सी के दशक में गया। और सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए सन १९७७ में मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया, मगर इस कार्यक्रम की पोल तब खुली जब सन १९९४ में मलेरिया ने महामारी का रूप ले लिया। इसके बाद सरकार को वास्तव में कुछ होश आया और उसने पुरानी मलेरिया उन्मूलन नीति में बदलाव कर इसे पुनः लागू किया और इसके क्रियान्वयन को लेकर गंभीरता भी दिखाई गई। परिणामतः मलेरिया पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा चुका है और इसका इलाज भी अब मुश्किल नहीं रहा। शुरूआती समय में मलेरिया को लेकर तत्कालीन सरकारों ने जो उदासीनता दिखाई थी, डेंगू के प्रति आज की सरकारों का भी लगभग वही रुख है। प्रश्न यह है कि क्या मौजूदा सरकारें इस बात का इंतजार कर रही हैं कि डेंगू भी मलेरिया की तरह महामारी का रूप ले ले फिर उसकी रोकथाम के लिए कदम उठाए जाएं ? अगर नहीं तो फिर डेंगू की रोकथाम को लेकर कोई ठोस नीति या कार्यक्रम क्यों नहीं शुरू किया जाता ?

  डेंगू की रोकथाम के सम्बन्ध में सबसे बड़ी जरूरत यह है कि लोग जागरूक हों; और यह जागरूकता केवल टीवी और विज्ञापनों आदि से नहीं फैलेगी, इसके लिए जमीनी स्तर पर प्रयास करने की भी आवश्यकता है। साथ ही अधिकाधिक अस्पतालों में इसके इलाज की व्यवस्था की तरफ भी केंद्र व राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए। डेंगू उन्मूलन के लिए एक समग्र नीति भी बनाई जा सकती है। कुल मिलाकर उपाय अनेक हैं, जरूरत है तो बस सरकार द्वारा मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देने की।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सामाजिक ढाँचे के लिए घातक हैं ये विज्ञापन [कल्पतरु एक्सप्रेस और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

कल्पतरु एक्सप्रेस 
पिछले कुछ दिनों से टीवी पर कंडोंम का एक विज्ञापन दिख रहा है जिसमे पूर्व पोर्न कलाकार और वर्तमान में हिंदी सिनेमा की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सनी लियोनी ने अभिनय किया है। बिना किसी शोर-गुल के यह विज्ञापन चल रहा था, इसपर हंगामा तब मचा जब अभी हाल ही में वरिष्ठ वामपंथी नेता अतुल अंजान ने बिहार की अपनी एक रैली में इसपर कथित रूप से विवादित बयान दे दिया। अतुल अंजान ने कहा कि सनी लियोनी के ऐसे अभद्र और अश्लील विज्ञापन यदि दूरदर्शन और रेडियो पर चलेंगे तो इससे देश में बलात्कार जैसी घटनाएं बढेंगी। अंजान का ये कहना भर था कि देश भर से इसपर प्रतिक्रियाएं आने लगीं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, नारीवादियों से लेकर सोशल साइट्स पर सनी के प्रशंसकों तक अतुल अंजान का भारी विरोध होने लगा। हालांकि कुछ लोग उनके समर्थन में भी आए, मगर विरोध समर्थन से कहीं अधिक था। विरोध की प्रबलता का अंदाज़ा इसीसे लगाया जा सकता है कि विरोध से विवश होकर आखिर अंजान को अपने बयान के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी। इसी संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि आखिर अतुल अंजान के बयान में कितनी सच्चाई है और इसका विरोध कितना जायज है ? अतुल अंजान ने सनी लियोनी अभिनीत कंडोम के जिस विज्ञापन का विरोध किया है, उसे देखने के बाद कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि अतुल का बयान एकदम सही और सटीक है साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इसका विरोध सिर्फ विरोध के लिए किया जा रहा है, जो कि पूर्णतः निराधार है। कहने को तो यह एक कंडोम का विज्ञापन है, मगर इसमे कंडोम का जिक्र एकदम अंत में कुछ सेकेण्ड के लिए आता है। यदि इसका उद्देश्य कंडोम का प्रचार करना है तो इसमें कंडोम के बारे में जानकारी होनी चाहिए। कंडोम के बगैर सेक्स करने की स्थिति में उपजने वाले खतरों और कंडोम से होने वाली सुरक्षा के विषय में बताया जाना चाहिए। मगर यह पूरा विज्ञापन तो सिर्फ अश्लील, कामुक और उत्तेजक दृश्यों व संवादों से भरा पड़ा है। स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य किसी भी प्रकार कंडोम का प्रचार करना या उसके विषय में जागरूकता लाना नहीं, केवल सनी की पोर्न अभिनेत्री की पूर्व छवि और अश्लील चलचित्रमय विज्ञापन के जरिये अधिक से अधिक कमाई करना है। सीधे शब्दों में कहें तो ये स्त्री-शरीर का आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने जैसा है। दरअसल यह तो सिर्फ एक विज्ञापन है, जिसकी चर्चा इसलिए उठ गयी कि अतुल अंजान जैसे नेता ने इसपर बयान दे दिया। वरना तो ऐसे तमाम और भी विज्ञापन हैं जिनमे स्त्री-शरीर का आर्थिक लाभ के लिए उत्तेजक ढंग से इस्तेमाल किया गया है। अभी टीवी पर आने वाले एक शैम्पू के ताज़ा  विज्ञापन पर ही नज़र डालें तो इसमें एक पुरुष अर्धनग्न बैठा है और एक अर्धनग्न स्त्री बेहद कामुक अंदाज़ में उसके बालों में शैम्पू लगाती है। इस दौरान उनके चेहरे के हाव-भाव बेहद कामुक और उत्तेजक रहते हैं साथ ही कैमरा भी स्त्री-पुरुष शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। ऐसे ही एक टाइल्स कंपनी को अपने विज्ञापन के लिए लड़का-लड़की के बीच सेक्स क्रिया का सहारा लेने की जरूरत क्यों पड़ जाती है, यह भी समझ से परे है। दरअसल कुल मिलाकर मामला यह है कि विगत कुछ वर्षों से विज्ञापन की आड़ में मिनी पोर्न का प्रस्तुतीकरण कर विज्ञापन को सफल व लाभकारी बनाने की एक कुसंस्कृति का विकास हमारे विज्ञापन जगत में हुआ है। और ऐसे विज्ञापनों पर जब अतुल अंजान जैसा कोई व्यक्ति  बेबाकी से अपना विरोध जता देता है तो उसे अभिव्यक्ति विरोधी से लेकर स्त्री-विरोधी तक जाने कितने कु-विशेषणों से हमारे तथाकथित प्रगतिशील और सभ्य समाज द्वारा नवाज दिया जाता है। यहाँ समझ न आने वाली बात यह है कि ऐसे विज्ञापनों का विरोध स्त्री-विरोध कैसे हो जाता है ? जबकि स्त्री का अत्यंत अपमान तो ऐसे विज्ञापनों में उसे मनुष्य नहीं, सिर्फ एक देह के रूप में प्रस्तुत कर के किया जाता है अर्थात सबसे बड़े स्त्री-विरोधी ये विज्ञापन खुद हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे विज्ञापनों के लिए सर्वाधिक दोषी कौन है ? क्या सिर्फ इन्हें बनाने वालों या इनमे काम करने वालों को ही दोषी माना जाय ? वास्तविकता तो यह है कि ऐसे विज्ञापनों के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हमारा यह समाज है जो ऐसे विज्ञापनों को देख-देखकर सफल बनाता है और तमाम कुतर्कों के साथ इनके बचाव में भी खड़ा हो जाता है।
नेशनल दुनिया 
अतुल अंजान ने ऐसे विज्ञापनों से समाज में बलात्कार बढ़ने की बात कही है, यह बात कितनी सही है इसपर तो कुछ भी कहना कठिन है। मगर इससे कत्तई इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे विज्ञापन हमारे सामजिक ढाँचे को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं। कल्पना कीजिए कि किसी परिवार में माँ-बाप-बेटा-बेटी आदि साथ में टीवी देख रहे हों तभी ऐसा कोई विज्ञापन आ जाय तो कितनी असहजतापूर्ण स्थिति बन जाती है। यह हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों पर चोट करने वाले तो हैं ही, संविधान के भी विरुद्ध हैं। भारतीय संविधान के अनुसार समाज में अनावश्यक उत्तेजना का विकास करने वाले किसी भी कृत्य की अनुमति नहीं है जबकि यह विज्ञापन किसी न किसी प्रकार यही कर रहे हैं। इन सब स्थितियों को देखते हुए अब जरूरत यह है कि भारत सरकार यथाशीघ्र इस सम्बन्ध में सजग हो और ऐसे विज्ञापनों पर रोकथाम के लिए कोई ठोस कानूनी पहल करे। फिलवक्त सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि वो विज्ञापन निर्माता कंपनियों के लिए कुछ दिशानिर्देश तय करें तथा कंडोम आदि सेक्स सम्बन्धी चीजों के विज्ञापनों के लिए एक मानक तय करे कि इनमे कौन लोग काम करें तथा इनमे प्रयुक्त संवाद का स्तर कैसा हो आदि इत्यादि। साथ ही अन्य विज्ञापनों में भी स्त्री-पुरुष किसीके भी शरीर के अनावश्यक उत्तेजक प्रदर्शन के सम्बन्ध में भी कुछ दिशानिर्देश तय किए जाएं। यह सब करने पर लगभग तय है कि सरकार का वैसे ही विरोध होगा जैसे पोर्न साइट्स प्रतिबंधित करने पर हुआ था, पर सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए यह कदम उठाने ही होंगे। क्योंकि कुछ मानसिक कुवृतियों से ग्रस्त लोगों के विरोध के कारण देश के समग्र सामाजिक ढाँचे को विज्ञापनों की आड़ में चल रहे इस मिनी-पोर्न के धीमे जहर से बर्बाद होने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।
              

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

आखिर कब चेतेगी कांग्रेस [कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

कल्पतरु एक्सप्रेस 
अभी हाल ही में राजस्थान के नगर निकाय चुनावों के परिणाम सामने आए हैं। ललितगेट प्रकरण के सामने आने के बाद से इन चुनावों पर देश की नज़र थी। माना जा रहा था कि ललितगेट के बाद वसुंधरा राजे के प्रति जनाक्रोश होगा जो इन क्चुनावों में सामने आएगा। पर परिणाम सब अटकलों से अलग और विचित्र रहे। ११३ सीटों में से ६२ पर जहाँ भाजपा ने बाजी मारी तो वहीं कांग्रेस के हाथ महज २५ सीटें ही आईं। हलांकि वसुंधरा राजे और उनके बेटे दुष्यंत के क्षेत्रों में कांग्रेस ने जीत हासिल की। इससे पहले एमपी में हुए निकाय चुनावों के मद्देनज़र भी यह उम्मीद जताई जा रही थी कि व्यापमं घोटाले और हत्याओं के शिवराज सिंह चौहान सरकार की साख गिरी है, लिहाजा निकाय चुनावों में भाजपा को नुकसान होगा। मगर चुनाव परिणामों ने सबको चौंका दिया। भाजपा ने कांग्रेस से आठ सीटें छींटे हुए ऐतिहासिक रूप से १६ सीटों पर जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस के हाथ महज एक सीट ही रह गई। इन दोनों ही राज्यों के निकाय चुनावों के परिणामों ने यही संकेत दिया कि आरोपों के जरिये किसीकी छवि को धूमिल करने से जनता का मिजाज नहीं बदला जा सकता। आज की जनता अत्यंत जागरूक और समझदार है। वो सब देख और समझ रही है। आज आप दूसरों को बुरा बताकर जनता की नज़रों में खुद को स्थापित नहीं कर सकते। दूसरे कितने बुरे हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं कितने अच्छे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संकेत देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के लिए थे। 
दरअसल, लोकतंत्र में जितना महत्व एक सशक्त सत्तापक्ष का होता है, उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका एक मजबूत और रचनात्मक विपक्ष की भी होती है। मजबूत विपक्ष के होने से यह आश्वस्ति रहती है कि सत्तापक्ष निरंकुश और अनियंत्रित नहीं होगा। मगर विडम्बना देखिए कि दुनिया के इस सबसे बड़े और अत्यंत सम्मानित लोकतंत्र में फिलवक्त सत्तापक्ष तो अत्यंत मजबूत है, मगर आधिकारिक तौर पर कोई विपक्ष नहीं है। इस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जिसने कि आज़ादी के बाद से ढाई-तीन दशकों तक देश पर बिना किसी विपक्षी अंकुश के शासन किया और उसके बाद भी सर्वाधिक समय सत्ता में रही, की वर्तमान दशा ये है कि उसके पास मुख्य विपक्षी दल होने इतनी सीटें भी नहीं हैं। विगत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में उसे जनता ने पूरी तरह से खारिज कर दिया। उसवक्त लगा कि देश की यह सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अपने संगठन, सोच और कार्य संस्कृति में व्यापक बदलाव लाएगी, मगर ऐसा कुछ न हुआ। परिणाम यह रहा कि लोकसभा चुनावों के बाद एमपी, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि तमाम राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया। फिर लगा कि अब तो कांग्रेस चेतेगी और स्वयं में बदलाव लाएगी, पर तब भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। पार्टी के शीर्ष नेता हार की जिम्मेदारी लेने से भागते रहे और पार्टी आत्ममंथन करने की बजाय दूसरों को कोसती रही। अभी कुछ ही समय पूर्व संपन्न संसद के मानसून सत्र में तो कांग्रेस ने वो तमाशा किया जिसने न केवल देश के लोकतंत्र का पूरी दुनिया में भारी मजाक बनाया वरन जनता के पैसे की भारी बर्बादी भी हुई। संसद के पहले ही दिन ललितगेट प्रकरण पर कांग्रेस ने चर्चा की मांग की जिसे सरकार ने तुरंत मान लिया लेकिन फिर कांग्रेस खुद चर्चा से भाग गई और बिना वजह उलुल-जुलूल मुद्दों के आधार पर संसद में हंगामा मचाकर काम-काज बाधित करने की कुनीति पर चलने लगी। लगभग पूरा मानसून सत्र कांग्रेस के बेवजह के हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी हंगामे की इस कुनीति पर चल चुकी है, लेकिन तब सौ से ऊपर सीटों और आधिकारिक रूप से मुख्य विपक्षी दल के बावजूद भाजपा जितना हंगमा नहीं करती थी, उससे कहीं ज्यादा हंगामा महज ४३ सीटों वाली कांग्रेस ने मचा के रख दिया। ललितगेट प्रकरण पर जवाब देते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जब क्वात्रोची और एंडरसन को लेकर सवाल पूछे तो उसपर कांग्रेस कुछ जवाब नहीं दे पाई। बस बेवजह का हंगामा और नारेबाजी करती रही। इस बेवजह के हंगामे और संसद सत्र की बर्बादी को देश ने देखा और इसीका आक्रोश कहीं न कहीं एमपी और राजस्थान के निकाय चुनावों में सामने आया जहाँ लोगों ने कांग्रेस को एकदम खारिज कर दिया। 
दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी यह है कि वो हमेशा से नेहरू-गांधी परिवार का पर्याय बनकर रहती आई है और आज वो कमी अपने चरमोत्कर्ष पर है। और ये एक प्रमुख कारण  है कि आज कांग्रेस अपने सम्पूर्ण राजनीतिक इतिहास के सबसे बुरे दौर में है। दौर इतना अधिक बुरा है कि देश की सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस को बिहार में गठबंधन के तहत महज ४० सीटें ही लड़ने को दी गईं हैं। ये सही है कि कांग्रेस को जब-तब उसके बुरे दिनों से उबारने में नेहरू-गांधी परिवार का बड़ा योगदान रहा है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कांग्रेस को जब-तब बुरे दिन भी इसी परिवार की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण देखने पड़े हैं। विगत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की जो भीषण दुर्गति हुए उसके लिए महंगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार आदि मुद्दों के बाद सर्वाधिक जिम्मेदार नेहरु-गांधी परिवार की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएं ही रहीं । सोनिया गाँधी की राहुल गाँधी को सत्ता के शिखर पर देखने की अतार्किक महत्वाकांक्षा ने इस चुनाव कांग्रेस को डूबाने में बड़ी भूमिका निभाई। अतार्किक  महत्वाकांक्षा इसलिए कि राहुल गाँधी में अब भी राजनीतिक समझ व परिपक्वता का भारी अभाव है। अभी वे मजबूत नेतृत्व क्षमता से कोसो दूर हैं। राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता ये है कि वे चुनाव आने पर लोगों के बीच आम नागरिक बनकर तो ऐसे प्रकट होते हैं जैसे उनसे बड़ा जनहितैषी कोई है ही नहीं लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसे गायब होते हैं कि उनका समर्थक ठगा सा रह जाता है। अगर चुनाव में जीत मिली तो श्रेय लेने राहुल गाँधी सबसे आगे दिखते हैं और अगर हार हुई तो तो बेचारे कार्यकर्ताओं को आगे कर दिया जाता है। राहुल गाँधी की इन सभी कमियों से लोग बिहार और यूपी के विधानसभा चुनावों जहाँ राहुल गाँधी ने पूरी तरह से स्वयं कमान सम्हाली थी, में ही वाकिफ हो गाए थे। जनता ने राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता की नाकामियों को देखते हुए विगत वर्ष के आम चुनाव में उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया। यहाँ तक कि वो अपनी खुद की अमेठी सीट जो नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ कही जाती है, को बमुश्किल बचा पाए।
 कहने का अर्थ यह है कि कांग्रेस को यदि अपनी इस राजनीतिक बदहाली से उबरना है तो उसे अपने संगठन में शीर्ष स्तर पर बदलाव करने होंगे। समय आ गया है कि ये पार्टी खुद को नेहरू-गांधी परिवार के चंगुल से मुक्त करे। कांग्रेस जितनी जल्दी ये कर ले उतना ही अच्छा है, क्योंकि जबतक  पार्टी के शीर्ष पर राहुल गांधी जैसे राजनीतिक रूप से अपरिपक्व लोग बैठे रहेंगे, पार्टी का बंटाधार होता रहेगा।


नवहा-नवहा हमरा घर में मलिकाइन आईल बाड़ी [भोजपुरी पत्रिका आखर में प्रकाशित]




  •  पीयूष द्विवेदी भारत
दिन  भर महभारत  बांचेली !
हमरी  कपार   पर  नांचेली !
अपनी मांगन पर अड़ जाली !
जे मना करी हम लड़ जाली !
कहें हमसे कि जीन्स ले आव, हम नाही पहिनेलीं साड़ी !
नवहा  नवहा  हमरा  घर  में, मलिकाईन आईल बाड़ी !

घरवाके   होटल   जानेली !
हमराके   वेटर    मानेली !
पेप्सी  कोला  बीयर  पीएं !
पॉपकोर्न आ चिप्स प जीएं !
रोटी  तरकारी  रुचे  ना,  हमरासे मांगे बिरयानी !
नवहा नवहा हमरा घर में, मलिकाईन आईल बाड़ी !

आखर

पचहत्तर गो क्रीम  मंगावें !
सब पईसा में आगि लगावें !
हमरो के कुछ बाति  बतावें !
टेढ़ आँखि कइके  समझावें !
कहें हमके, “क्लीन हो जाओ, क्यों रखते ये घटिया दाढ़ी !
नवहा  नवहा  हमरा  घर  में, मलिकाईन आईल  बाड़ी !


एकदिन काम से अइनी जब !
खूब    सेवा  कईली  तब !
लगनी  सोचे    का  होता !
कउवा  कईसे  बनल  तोता !
सोचत रहनी तवले कहली, “राजा, हमको चहिए गाड़ी !
नवहा नवहा हमरा घर में,  मलिकाईन  आईल  बाड़ी !

नखरा कि उनकर एतना बा !
गीनि  ना  पाईं  केतना बा !
जेतने होखो  सब ठीक  बा !
जईसन होखो सब नीक  बा !
काहें कि हमरी मनवा में त, बस  ऊहे  समाईल बाड़ी !
नवहा नवहा हमरा घर में,  मलिकाईन  आईल  बाड़ी !