गुरुवार, 3 जनवरी 2019

सांसद निधि को साधने की दरकार [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता में उसके जनप्रतिनिधियों की सर्वोपरि भूमिका होती है। इस संदर्भ में भारत की बात करें तो यहाँ आजादी के बाद से ही व्यक्तिवादी राजनीति का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। यहाँ मतदान में जनप्रतिनिधियों की छवि से अधिक महत्व उनके दल और शीर्ष नेतृत्व को दिया जाता है। ये कारण है कि देश में जनप्रतिनिधियों के स्तर पर उल्लेखनीय विकास कार्य कम ही हो पाते हैं। गौरतलब है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दो मोर्चों पर कार्य करना होता है। पहला, एमपीलैड्स की व्यवस्था के तहत प्राप्त राशि से अपने क्षेत्र में विकास कार्यों को गति देना और दूसरा, क्षेत्र की बड़ी समस्याओं को संसद के पटल पर रख समाधान के लिए प्रयास करना। इनमें पहला मोर्चा अधिक महत्व का है, जिसपर हमारे वर्तमान जनप्रतिनिधि कितने खरे उतरते हैं, इसकी बानगी हाल ही में केन्द्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में मिल जाती है।
रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2014 में निर्वाचित 543 सांसदों में से मात्र 35 सांसदों के क्षेत्र में ही एमपीलैड योजना के तहत मिलने वाली सांसद विकास निधि का पूरा उपयोग कर योजनाओं को अमलीजामा पहनाया गया है। दक्षिण भारत के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में इस विकास निधि का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात और हरियाणा में कम से कम एक निर्वाचन क्षेत्र में आवंटित विकास निधि का पूरा इस्तेमाल हुआ है, जिसमें पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा 10 सांसदों ने अपनी विकास निधि का पूरा इस्तेमाल किया है। इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि हमारे जनप्रतिनिधि किस सक्रियता से अपना काम कर रहे हैं।
क्या है एमपीलैड योजना?
1993 में पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार में ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत सांसद क्षेत्रीय विकास योजना यानी एमपीलैड्स की शुरुआत की गयी थी। फिर 1994 में इसे केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अंतर्गत कर दिया गया। अबतक इस योजना में सात बार संशोधन किए जा चुके हैं, जिनमें आखिरी संशोधन 2014 में किया गया था इस योजना के तहत सांसदों को विकास कार्यों के लिए प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि प्रदान की जाती है, जिसके जरिये निर्वाचित सांसद अपने क्षेत्र में, राज्यसभा सदस्य अपने राज्य में और मनोनीत सदस्य पूरे देश में विकास कार्य करवा सकते हैं।   
शुरुआत में यह राशि पांच लाख थी, जिसे 1994 में एक करोड़, 1998 में दो करोड़ और अंततः 2011 में पांच करोड़ कर दिया गया। वर्तमान में सांसदों को यही पांच करोड़ की विकास निधि प्रतिवर्ष मिलती है। हालांकि यह राशि सांसद के खाते में नहीं बल्कि सम्बंधित जिले के जिलाधिकारी या नोडल अधिकारी के खाते में 2.5 करोड़ रुपये की दो किस्तों में भेजी जाती है।      
सांसद जिलाधिकारी से क्षेत्र में सम्बंधित कार्यों की सिफारिश करता है, तब जिलाधिकारी द्वारा कार्य की पात्रता की जांच करके राशि जारी की जाती है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय इस योजना की केन्द्रीय निगरानी के लिए एक नोडल मंत्रालय के रूप में काम करता है। प्रत्येक राज्य में भी किसी विभाग को नोडल विभाग बनाकर इस योजना की निगरानी का दायित्व दिया जाता है। जिलाधिकारी एमपीलैड्स से सम्बंधित कार्यों व्यय आदि की रिपोर्ट इन राज्य नोडल विभागों तथा केंद्र सरकार को देते हैं।

एमपीलैड योजना का उद्देश्य
एमपीलैड्स का उद्देश्य विकास कार्यों का विकेंद्रीकरण करना था। इसे लागू करने के पीछे विचार यह था कि जनहित से सम्बंधित छोटे-छोटे कार्य जो बड़ी परियोजनाओं में समाहित नहीं हो पाते, इसके जरिए आसानी से कम समय में हो सकेंगे। इसी विचार के अनुरूप इस योजना की धनराशि में वृद्धि भी की जाती रही, लेकिन इससे जनता को खास लाभ नहीं हो पाया है। भ्रष्टाचार के आरोपों सहित राशि के समुचित उपयोग हो पाने के कारण इस योजना को ख़त्म करने की भी बात उठती रही है।   
एमपीलैड के अंतर्गत होने वाले कार्य
एमपीलैड योजना के तहत सांसद अपनी विकास निधि को शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सड़क, लाइब्रेरी इत्यादि सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में खर्च कर सकता है। इसके अलावा स्थानीय आवश्यकताओं के हिसाब से भी कार्यों के निर्माण पर खर्च किया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं यथा बाढ़, सुनामी, भूकंप, हिमस्खलन, बादल विस्फोट, कीट हमले, भूस्खलन, बवंडर, सूखा, आग, रासायनिक, जैविक और रेडियोलॉजिकल खतरे से क्षेत्र विशेष को हानि होने पर उससे निपटने के लिए भी सांसद विकास निधि से अधिकतम एक करोड़ तक  का खर्च किया जा सकता है।
योजना की कठिनाई
सवाल यह उठता है कि आखिर क्या कारण है कि हमारे सांसद अपनी विकास निधि का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे, जबकि विकास के कार्य लंबित पड़े रहते हैं? स्पष्ट किया जा चुका है कि सांसद और जिलाधिकारी एमपीलैड योजना की दो प्रमुख कड़ियाँ हैं, लेकिन विद्रूप ही है कि इनके बीच आवश्यक समझ, सहयोग और सामंजस्य का अभाव इस योजना की बड़ी समस्या के रूप में सामने रहा है। गौरतलब है कि सांसद विकास निधि सांसद के नहीं, जिलाधिकारी के खाते में जाती है। पहली क़िस्त तो लोकसभा के गठन या  राज्यसभा सदस्यता मिलने के बाद जारी कर दी जाती है, लेकिन समस्या दूसरी क़िस्त जारी होने में होती है। दूसरी क़िस्त के लिए आवश्यक होता है कि पहली क़िस्त में से डेढ़ करोड़ से अधिक की राशि जिलाधिकारी द्वारा सिफारिशी कार्यों के लिए आवंटित की जा चुकी हो। साथ ही बीते वित्त वर्ष के व्यय का उपयोग प्रमाण-पत्र पिछले सांसद के लिए जारी निधि का लेखा प्रमाण-पत्र भी जिलाधिकारी द्वारा प्रस्तुत किया चुका हो। इस स्थिति में ही आगे की राशि जारी की जाती है। सांसदों की दलील होती है कि जिला-प्रशासन द्वारा उपयोगिता प्रमाण-पत्र जारी करने में देरी के कारण विकास निधि की दूसरी तथा आगे की सब किस्तें अटक जाती हैं।
जिलाधिकारियों पर सवाल
अभी सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी सामने आई कि वर्ष 2018-19 में किसी भी सांसद को विकास निधि जारी नहीं की गयी है इसके अलावा वित्त वर्ष 2014-15 से 2017-18 तक 545 में से केवल 209 सांसदों को सांसद निधि की पूरी आठ किस्तें मिली हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम के सांसदों को लगभग 80 प्रतिशत आवंटित राशि मिली है। इसके बाद छत्तीसगढ़ और पंजाब के सांसदों का स्थान है, जिन्हें 77 प्रतिशत राशि मिली। हरियाणा और मध्य प्रदेश के सांसदों को 76 प्रतिशत, तमिलनाडु के सांसदों को 74 प्रतिशत राशि की प्राप्ति हुई। दिल्ली के सांसदों को महज 39 प्रतिशत राशि ही मिल सकी। अधिकांश मामलों में बीते खर्च का ब्यौरा उपलब्ध करवा पाने को कारण बताया गया है। निश्चित ही इस स्थिति से जिला प्रशासन तथा सांसद दोनों पर सवाल खड़े होते हैं कि आखिर उनकी तरफ से व्यय का ब्यौरा ठीक से ढंग से प्रस्तुत क्यों नहीं किया जाता। 
सांसदों की निष्क्रियता
दरअसल एमपीलैड योजना के क्रियान्वयन में  पारदर्शिता लाने और सांसदों की मनमानी रोकने के उद्देश्य से जिलाधिकारी को वित्तीय अधिकार दिए गए हैं, परन्तु अपने पर यह अंकुश हमारे जनप्रतिनिधियों को बर्दाश्त नहीं होता। इसी कारण वे सांसद निधि के खर्च के प्रति काफी हद तक सुस्त और उदासीन रवैया अपनाए रहते हैं। किसी कार्य की सिफारिश करने पर यदि जिलाधिकारी द्वारा उसमें कोई कमी रेखांकित करके उसे वापस लौटा दिया गया तो दुबारा उस कमी को दूर करके पुनः उसकी सिफारिश करने में सांसद सक्रियता नहीं दिखाते। परिणामस्वरूप काम अटक जाते हैं और सांसद विकास निधि बची रह जाती है।  
एकमुश्त रकम देने पर विचार
उक्त समस्या के मद्देनजर अब सरकार एक क़िस्त में ही पूरी सांसद विकास निधि देने के विकल्प पर विचार कर रही है। सांख्यिकी और कार्यान्वन मंत्री सदानंद गौड़ा ने 19 दिसंबर को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा किअलग-अलग कारणों से जिला प्राधिकरण कार्य समाप्ति का प्रमाण-पत्र समय पर जमा नहीं कर पाते।  सांसद निधि से जुड़ी बैठकों में इस बात पर चर्चा भी हुई है और सांसद निधि के पांच करोड़ रुपये को एक ही किस्त में देने पर विचार किया जा रहा है। इस पर अंतिम फैसला केंद्रीय वित्त मंत्री की रजामंदी के बाद लिया जाएगा।सरकार भले इस विकल्प पर विचार कर रही हो, लेकिन ऐसा करने से स्थिति में बहुत कुछ फर्क पड़ने की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रतीत होता है कि विकास निधि को लेकर मुख्य समस्या सांसदों में वित्तीय अधिकारों के अभाव में उपजी निष्क्रियता की है।
सांसद आदर्श ग्राम योजना
सांसदों की निष्क्रियता को समझना हो तो अक्टूबर, 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गयी सांसद आदर्श ग्राम योजना सबसे बेहतर उदाहरण होगी। इसके तहत सांसदों को पांच साल में कम से कम तीन गांवों को गोद लेकर आदर्श बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। इस योजना के लिए अलग से धन की कोई व्यवस्था नहीं है, क्योंकि इसमें धन का खर्च ही बहुत अधिक नहीं है। ये योजना ग्रामीण जागरूकता और परस्पर सहयोग से आगे बढ़ने की भावना के विकास के अभियान जैसी है। फिर भी इसमें होने वाले थोड़े-बहुत खर्च के लिए सांसद विकास-निधि के इस्तेमाल तथा ग्रामीणों का सहयोग लेने की बात कही गयी है। लेकिन आज इस योजना के चार साल से अधिक का समय होने पर हम देखते हैं कि गोद लिए गए गांवों में से गिने-चुने गांवों में विकास का कुछ काम भले हुआ हो, मगर जो इस योजना का मूल उद्देश्य था, उसकी पूर्ति नहीं हुई है। निश्चित ही यह एक रचनात्मक पहल है, परन्तु सांसदों की उदासीनता के कारण पूरी तरह से प्रभावी सिद्ध नहीं हो पाई है।    
निष्कर्ष
जरूरत है कि सांसद जिलाधिकारी के मध्य एमपीलैड योजना से सम्बंधित अधिकारों में संतुलन स्थापित करने की दिशा में कदम उठाए जाएं। इसके अलावा सांसदों से बातचीत करके इस योजना में आवश्यक बदलाव करने की दिशा में भी विचार किया जा सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें