बुधवार, 25 जून 2014

अब रेल की गुणवत्ता बढ़ाए सरकार [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी द्वारा जिस तरह से गोवा में दिए अपने वक्तव्य में ये कहा गया था कि देश की आर्थिक भलाई के लिए कुछ कड़े निर्णय लिए जाएंगे, उससे ये तो काफी हद तक साफ़ हो गया था कि जनता की जेब पर महंगाई की  और मार पड़ने वाली है। लेकिन, यहाँ तो बजट सत्र से पहले ही सरकार द्वारा रेल किराये में १४।२ और माल भाड़े में ६.२ फीसद की भारी वृद्धि कर दी गई। संभवतः ये इसलिए किया गया हो कि संसद में बजट पेश करते हुए सरकार को ज्यादा चीजों के दाम बढ़ाते हुए न दिखना पड़े। अब चूंकि, राजनीति का ये सिद्धांत है कि इसमें अवसर और मुद्दे का सर्वाधिक महत्व होता है। लिहाजा अभी रेल किराये में सरकार द्वारा की गई १४।२ प्रतिशत की भारी वृद्धि के कारण विपक्षियों को  सरकार को घेरने का अवसर हाथ लग गया है, जिसे वे हल्के में नहीं जाने देना चाहते। लिहाजा रेल किराया वृद्धि के इस निर्णय को लेकर हमारे समूचे राजनीतिक गलियारे में न सिर्फ तमाम विपक्षी दलों द्वारा बल्कि सरकार के अपनों द्वारा भी सरकार पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। अब जहाँ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं द्वारा इस वृद्धि के विरोध में देश भर में प्रदर्शन किया गया तो वहीँ एनसीपी और जेडीयू आदि दलों द्वारा भी इस निर्णय पर सरकार पर निशाना साधा गया। यहाँ तक कि खुद सरकार की घटक शिवसेना द्वारा भी प्रधानमंत्री से ये किराया वृद्धि कम करने की मांग की गई। लेकिन, इस वृद्धि को सरकार के रेल मंत्री सदानंद गौणा द्वारा जायज ठहराते हुए ये कहा गया है कि ये वृद्धि तो यूपीए सरकार के अंतरिम बजट में ही प्रस्तावित थी, लेकिन चुनाव के कारण यूपीए सरकार ने इसका क्रियान्वयन नहीं किया। स्पष्ट है कि रेल किराये में हुई इस वृद्धि पर सरकार से लेकर विपक्ष तक सबके अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन इन सब राजनीतिक खिंचतानों से इतर कुछ सवाल तो आम आदमी के मन में भी हिचकोले ले ही रहे  हैं कि रेल किराये में हुई ये भारी वृद्धि न सिर्फ रेल यात्रियों की जेबों पर भारी पड़ेगी बल्कि इसका प्रभाव रोजमर्रा की चीजों के यातायात शुल्क पर भी पड़ेगा, जिससे कि महंगाई में और बढ़ोत्तरी होगी। ऐसे में ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा करने वाली मोदी सरकार ने रेल किराये में इतनी बड़ी वृद्धि क्यों की ? ऐसे अच्छे दिनों का वादा करके तो मोदी सरकार सत्ता में नहीं आई थी ? यही मोदी जब सत्ता से बाहर थे तो किराया बढ़ोत्तरी का विरोध कर रहे थे, तो अब क्या हो गया ? ऐसे तमाम सवाल आम आदमी के मन में सुगबुगा रहे हैं, वैसे, यह भी एक सच है कि चुनाव के दौरान भाषणों में वादे करना एक बात है और सत्ता मिलने पर उन्हें हुबहू जमीन पर उतरना दूसरी बात।
  बहरहाल, उपर्युक्त सब सवालों के अलावा रेल किराये में हुई इस वृद्धि से कुछ उम्मीदें भी जगती हैं कि सरकार ने अगर रेल के किराये में इतनी अधिक बढ़ोत्तरी की है तो वो अब रेल के सफर की गुणवत्ता भी बढ़ाएगी। आज भारतीय रेल की वास्तविक स्थिति ये है कि वो गाड़ियों की कमी से लेकर दुर्घटना रोधी तकनीकों के अभाव आदि तमाम  समस्याओं से ग्रस्त है। ऐसे में रेल किराये हुई ये भारी वृद्धि इस बात की उम्मीद तो जगाती ही है कि अब रेल की ये समस्याएं खत्म होंगी व रेल के सफर में गुणात्मक सुधार होगा। सही मायने में आज स्थिति ये है कि हमारी रेलवे के पास आवश्यकतानुसार  पर्याप्त गाड़ियां तक नहीं हैं, जिसके कारण प्रायः यात्रियों को सीट के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। तिसपर जो गाड़ियां हैं, उनके लिए भी रेलवे के पास पर्याप्त चालक व अन्य आवश्यक कर्मचारी नहीं हैं। लिहाजा कम कर्मचारियों से ही ज्यादा काम लिया जाता है, जिससे कि उन्हें समुचित आराम नहीं मिल पाता और इसका परिणाम प्रायः किसी न किसी रेल दुर्घटना के रूप में हमारे सामने आता है। रेलवे में कर्मचारियों की कमी की इस बात को रेल सुरक्षा से जुड़े सुझाव देने के लिए गठित काकोदकर समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में उठाते हुए कहा था कि कर्मचारियों के रिक्त पदों को ६ महीने में भर दिया जाए। पर समिति के इस सुझाव पर सरकार ने कितनी गंभीरता से काम किया इसका अंदाजा इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि रेलवे में अब भी सवा लाख से ऊपर कर्मचारियों के पद रिक्त हैं। ये सभी कर्मचारी तीसरी और चौथी श्रेणी के हैं। इसके अलावा रेल दुर्घटनाओं में भारी कमी लाने के उद्देश्य से यूपीए-२ सरकार के दौरान तत्कालीन रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी द्वारा जीरो टक्कर तकनीक लाने की बात कही गई थी। इस तकनीक पर तकरीबन ५ लाख करोड़ के खर्च का अनुमान था। लेकिन ये तकनीक भी धन के अभाव में ठंडे बस्ते में चली गई। इसके अतिरिक्त ट्रेनों व स्टेशनों पर साफ़-सफाई तथा यात्रियों की सुरक्षा आदि भी तमाम वो बातें हैं जिनमे गुणात्मक सुधार की जरूरत है। अतः कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि अब जब मोदी सरकार ने रेल किराये में १४।२ फिसदी जैसी भारी-भरकम वृद्धि की है तो वो इन सब समस्याओं पर भी गौर करेगी। और न सिर्फ गौर करेगी, बल्कि इनके समाधान की दिशा में ठोस कदम भी उठाएगी। वैसे,  रेलवे के प्रति सरकार के इरादे का काफी हद तक पता तो अगले महीने की आठ तारीख को सरकार का रेल बजट देख के ही चल जाएगा। और ये भी साफ़ हो जाएगा कि सरकार ने रेल किराए में ये मोटा इजाफा करके जनता की जेब पर जो अतिरिक्त बोझ डाला है, उसके बदले में वो जनता को क्या देने वाली है। अगर आगामी रेल बजट में सरकार की तरफ से उपर्युक्त रेल समस्याओं के समाधान की दिशा में कुछ प्रावधान किए जाते हैं, तो ही रेल किराये में हुई इस वृद्धि को जनता की नज़र में स्वीकार्यता मिल पाएगी।

सोमवार, 23 जून 2014

ऊर्जा संकट पर गंभीर होने की जरूरत [राष्ट्रीय सहारा और प्रजातंत्र लाइव में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राष्ट्रीय सहारा 
आधुनिक मानव को गतिशील रखने के लिए ऊर्जा का होना अनिवार्य है लेकिन दिन पर दिन सूखते जा रहे ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों के कारण आज न सिर्फ भारत बल्कि अधिकांश विश्व के लिए आवश्यक ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति  चिंता का विषय बनती जा रही है । प्रारंभिक समय में तो लोग ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए केवल कोयले पर निर्भर थे, पर उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में समय के साथ कोयले पर से ये निर्भरता कुछ कम हुई और लोग पेट्रोलियम तथा गैस की तरफ भी उन्मुख हो गए । हालांकि ऊर्जा पूर्ति के ये सभी स्रोत न सिर्फ सीमित हैं, बल्कि धरती के अस्तित्व के लिए घातक भी हैं । कोयला, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस के ऊर्जा उत्पादन हेतु किए जा रहे निरंतर और अनवरत दोहन से होने वाले  हानिकारक गैसों के उत्सर्जन के कारण धरती का पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ता जा रहा है, जिससे धरती के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे हैं । लेकिन इन तमाम विसंगतियों के बावजूद आज सम्पूर्ण विश्व की अधिकाधिक ऊर्जा जरूरतें ऊर्जा के इन्ही पारम्परिक स्रोतों से पूरी होती हैं । एक आंकड़े के मुताबिक आज जहाँ दुनिया की ४० फिसदी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति पेट्रोलियम करता है, तो वहीँ एक तिहाई विद्युत ऊर्जा का उत्पादन  प्राकृतिक गैस के माध्यम से होता है । इनके अलावा एक चौथाई ऊर्जा जरूरतों के लिए दुनिया अब भी कोयले पर ही निर्भर है । चौंकाने वाली बात तो ये है कि दुनिया के ४० फिसदी कोयले की खपत केवल अकेले भारत में ही हो जाती है । अब ऊर्जा के ये स्रोत सीमित हैं, लिहाजा अनवरत उपयोग होने के कारण धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं । बताना आवश्यक है कि ऊर्जा के ये सभी स्रोत अगले तीन-चार दशकों में समाप्त हो जाएंगे । ऐसे में विकट प्रश्न ये है कि आने वाले समय में जब ऊर्जा के ये पारम्परिक स्रोत नहीं रहेंगे, तब मानव की ऊर्जा जरूरते किस प्रकार पूरी होंगी ? उल्लेखनीय होगा कि एक शोध के मुताबिक २०३०-४० तक दुनिया की ऊर्जा जरूरतें आज की तुलना में ५० से ६० फिसदी तक बढ़ जाएंगी । ऐसे में ये एक कटु सत्य है कि अगर अभी से हमने पारम्परिक स्रोतों से अलग ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों जो अक्षय हों, को विकसित करने की तरफ गंभीरता से कदम बढ़ाना शुरू नहीं किया तो आने वाले समय में हमें ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों के अभाव में बिना ऊर्जा के ही जीना पड़ सकता है ।
   ऐसा नहीं है कि आज ऊर्जा के वैकल्पिक या नवीन स्रोतों पर बिलकुल भी काम नहीं हो रहा या आज दुनिया में उनके प्रति बिलकुल भी गंभीरता न हो । बेशक आज दुनिया के तमाम देशों में ऊर्जा के नवीन स्रोतों के इस्तेमाल से ऊर्जा उत्पादन किया जा रहा है, लेकिन नवीन स्रोतों से उत्पादित ऊर्जा की मात्रा अपेक्षाकृत रूप से  काफी कम है । पनबिजली परियोजनाओं, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि ऊर्जा के नवीन स्रोतों में प्रमुख हैं । पनबिजली परियोजनाओं के द्वारा जल के धार में मौजूद गतिज ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण करके बिजली प्राप्त की जाती है । ये ऊर्जा के नवीन स्रोतों में वर्तमान में काफी अधिक प्रयोग होने वाला स्रोत है । आज पनबिजली बांधों के माध्यम से दुनिया की तकरीबन २० फिसदी विद्युत ऊर्जा का उत्पादन होता है । अब अगर इस स्रोत को विकसित तथा विस्तारित करने की तरफ गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो इसके जरिए अन्य पारम्परिक स्रोतों की अपेक्षा बेहद कम प्रदूषण में काफी अधिक विद्युत ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है । इसके अलावा ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति का एक अन्य नवीन और अक्षय स्रोत सौर ऊर्जा भी है । सौर ऊर्जा तो प्रकृति का ऐसा अनूठा वरदान है, जिसके प्रति गंभीर होते हुए अगर मानव जाति इसके उपयोग की सही, सहज और सस्ती तकनीक विकसित कर ले तो सम्पूर्ण विश्व की ऊर्जा जरूरत से कहीं ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिहाज से दुनिया के अधिकांश देशों की अपेक्षा भारत की स्थिति बेहद अनुकूल है, क्योंकि यहाँ वर्ष के अधिकत्तर महीनों में सूर्य का तापमान अधिक तीव्रता के साथ उपलब्ध रहता है । लिहाजा, अगर सही तकनीक हो तो सूर्य के जरिए पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है ।
प्रजातंत्र लाइव
आज सौर ऊर्जा का सर्वाधिक उपयोग विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करके किया जा रहा है । सौर ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण करने के लिए आज
फोटोवोल्टेइक सेल की जिस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, वो जरूरत के लिहाज से बेहद महंगी है । इसलिए इस तकनीक के सहारे अधिक सौर ऊर्जा का उत्पादन करना घाटे का ही सौदा लगता है ।  लिहाजा, जरूरत ये है कि सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए सस्ती तकनीक विकसित की जाए और ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए सौर ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाई जाए । सौर ऊर्जा के अतिरिक्त पवन ऊर्जा भी ऊर्जा उत्पादन का एक नवीन और बेहतरीन माध्यम है । ये भी सौर ऊर्जा की तरह ही ऊर्जा प्राप्ति का अक्षय स्रोत होने के साथ-साथ प्रदूषण रहित भी है । इसके अंतर्गत पवनचक्कियों को हवादार स्थानों में लगाया जाता है और फिर जब वे हवा के जोर से घूमने लगती हैं, तो हवा की उस गतिज ऊर्जा को यांत्रिक अथवा विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर दिया जाता है । हालांकि मूलतः इस ऊर्जा का उत्पादन तकनीक से ज्यादा वायु पर निर्भर है, जितनी तेज और ज्यादा वायु मिलेगी, इस तकनीक से उतनी ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी । कहने का अर्थ है कि इस तकनीक  के लिए पेड़-पौधों आदि से भरे-पूरे क्षेत्र की ही जरूरत होती है । नवीन ऊर्जा स्रोतों में ये सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाला माध्यम है ।

   उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि अगर दुनिया को आने वाले समय में ऊर्जा व  पर्यावरणीय संकट से बचना है तो उसे ऊर्जा के नवीन स्रोतों के प्रति पूरी तरह से गंभीर होना होगा । इस संबंध में आज इस स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है कि दुनिया की अधिकाधिक ऊर्जा जरूरतें ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों से इतर केवल नवीन माध्यमों, विशेषतः सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से पूरी की जा सकें । इसके लिए आवश्यक है कि इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक निवेश बढ़ाते हुए शोध तथा आविष्कार को बढ़ावा दिया जाए । क्योंकि ऊर्जा के इन नवीन माध्यमों को पूर्ण विकसित किए बिना आने वाले समय में हमारे लिए अपनी किसी भी तरह की ऊर्जा जरूरत को पूरा करना कत्तई आसान नहीं दिख रहा । 

शनिवार, 14 जून 2014

नए ऊर्जा स्रोतों को तवज्जो देने की जरूरत [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, दैनिक ट्रिब्यून और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट 
गर्मियों के मौसम में ये आम बात है कि देश में हर तरफ कम-ज्यादा बिजली कटौती होती रहती है । इस गर्मी भी देश की राजधानी दिल्ली समेत यूपी आदि तमाम राज्यों को भारी बिजली कटौती की मार झेलनी पड़ रही है । अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण हैं कि प्रायः गर्मियों के दिनों में हमें बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है ? दरअसल, इस कटौती का मूल कारण ये है कि हमारे पास हमारी जरूरत के अनुरूप पर्याप्त बिजली ही नहीं है । ठंडी के मौसम में कूलर, पंखा, फ्रिज आदि उपकरणों का प्रयोग कम होने के कारण बिजली की कम खपत होती है, इसलिए तब लोगों को पर्याप्त बिजली मिल जाती है । लेकिन गर्मियों में बिजली की खपत ज्यादा होती है, इस नाते लोगों को बिजली की कटौती का सामना करना पड़ता है । दुर्भाग्य ये है कि हरबार सरकार की तरफ से इस बिजली कटौती की समस्या को जड़ से खत्म करने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने की बजाय  कुछ कामचलाऊँ उपायों के जरिये लोगों को फौरी राहत दे दी जाती है । परिणामतः समस्या यथावत बनी रहती है और हर गर्मी लोगों को बिजली की कटौती से जूझना पड़ता है । बिजली कटौती की इस समस्या से स्थायी निजात पाने के लिए आवश्यक है कि देश में बिजली उत्पादन की मात्रा बढ़ाई   जाएँ । लेकिन, इस संबंध में जो सबसे बड़ी समस्या है वो ये कि कोयला आदि जिन पारम्परिक माध्यमों या स्रोतों से आज देश की अधिकाधिक बिजली का उत्पादन होता है, वे सब सीमित होने और अनवरत दोहन के कारण धीरे-धीरे समाप्ती की ओर बढ़ रहे हैं । एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया के ४० फिसदी कोयले की खपत केवल भारत में ही हो जाती है और इसमे से अधिकाधिक कोयला बिजली उत्पादन में ही काम आता है । लेकिन, विद्रूप ये है कि ये कोयला २०३० तक लगभग समाप्त हो जाएगा । ऐसे में, बिजली उत्पादन बढ़ाना तो दूर उसे लंबे समय तक यथावत कायम रखना ही चुनौती पूर्ण कार्य है । लिहाजा अगर हमें आज भी और भविष्य में भी अपनी विद्युत ऊर्जा की जरूरत को पूरा करना है तो इसके लिए आवश्यक है कि ऊर्जा उत्पादन के पारंपरिक माध्यमों का अनवरत दोहन करने की बजाय  विद्युत ऊर्जा के नवीन स्रोतों पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए । विद्युत ऊर्जा के नवीन स्रोत न सिर्फ अक्षय हैं, बल्कि पारम्परिक स्रोतों की अपेक्षा पर्यावरण को भी काफी कम हानि पहुँचाने वाले हैं । सौर ऊर्जा, पनबिजली परियोजनाएं, पवनचक्की ऊर्जा आदि विद्युत ऊर्जा उत्पादन के नवीन स्रोतों में प्रमुख हैं । इन स्रोतों पर अगर एक संक्षिप्त दृष्टि डालते हुए इनकी कार्यशैली को समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि अगर विद्युत ऊर्जा उत्पादन के इन नवीन स्रोतों को विकसित करने पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो इन स्रोतों के जरिए अनंत काल तक पूरी दुनिया की जरूरत से कहीं ज्यादा बिजली पैदा की जा सकती है ।
दैनिक जागरण
दैनिक ट्रिब्यून 
   ऐसा नहीं है कि आज ऊर्जा के नवीन स्रोतों पर बिलकुल भी काम नहीं हो रहा या आज दुनिया में उनके प्रति बिलकुल भी गंभीरता नहीं है । बेशक, आज दुनिया के तमाम देशों में ऊर्जा के नवीन स्रोतों के कमोबेश इस्तेमाल से ऊर्जा उत्पादन किया जा रहा है, लेकिन नवीन स्रोतों से उत्पादित ऊर्जा की मात्रा फ़िलहाल काफी कम है । पनबिजली परियोजना ऊर्जा के नवीन स्रोतों में वर्तमान में काफी अधिक प्रयोग होने वाला स्रोत है । पनबिजली परियोजनाओं के द्वारा जल के धार में मौजूद गतिज ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण करके बिजली प्राप्त की जाती है । आज पनबिजली बांधों के माध्यम से दुनिया की तकरीबन २० फिसदी विद्युत ऊर्जा का उत्पादन होता है । अब अगर इस स्रोत को विकसित तथा विस्तारित करने की तरफ गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो इसके जरिए अन्य पारम्परिक स्रोतों की अपेक्षा बेहद कम प्रदूषण में काफी अधिक विद्युत ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है । इसके अलावा ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति का एक अन्य नवीन और अक्षय स्रोत सौर ऊर्जा भी है । सौर ऊर्जा तो अक्षय ऊर्जा का ऐसा स्रोत या यूँ कहें कि प्रकृति का ऐसा अनूठा वरदान है, जिसके प्रति गंभीर होते हुए अगर मानव जाति इसके उपयोग की सही, सहज और सस्ती तकनीक विकसित कर ले तो सम्पूर्ण विश्व की ऊर्जा जरूरत से कहीं ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिहाज से दुनिया के अधिकांश देशों की अपेक्षा भारत की स्थिति बेहद अनुकूल है, क्योंकि यहाँ वर्ष के अधिकत्तर महीनों में सूर्य का तापमान अधिक तीव्रता के साथ उपलब्ध रहता है । लिहाजा, अगर सही तकनीक हो तो सूर्य के जरिए पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । आज सौर ऊर्जा का सर्वाधिक उपयोग विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करके किया जा रहा है । सौर ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण करने के लिए आज फोटोवोल्टेइक सेल की जिस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, वो जरूरत के लिहाज से बेहद महंगी है । इसलिए इस तकनीक के सहारे अधिक सौर ऊर्जा का उत्पादन करना घाटे का ही सौदा लगता है ।  लिहाजा, जरूरत ये है कि सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए सस्ती तकनीक विकसित की जाए और ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए सौर ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाई जाए । सौर ऊर्जा के अतिरिक्त पवन ऊर्जा भी ऊर्जा उत्पादन का एक नवीन और बेहतरीन माध्यम है । ये भी सौर ऊर्जा की तरह ही ऊर्जा प्राप्ति का अक्षय स्रोत होने के साथ-साथ प्रदूषण रहित भी है । इसके अंतर्गत पवनचक्कियों को हवादार स्थानों में लगाया जाता है और फिर जब वे हवा के जोर से घूमने लगती हैं, तो हवा की उस गतिज ऊर्जा को यांत्रिक अथवा विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर दिया जाता है । हालांकि मूलतः इस ऊर्जा का उत्पादन तकनीक से ज्यादा वायु पर निर्भर है, जितनी तेज और ज्यादा वायु मिलेगी, इस तकनीक से उतनी ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी । कहने का अर्थ है कि इस तकनीक  के लिए पेड़-पौधों आदि से भरे-पूरे क्षेत्र की ही जरूरत होती है । नवीन ऊर्जा स्रोतों में ये सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाला माध्यम है ।

   उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि अगर दुनिया को आने वाले समय में ऊर्जा व  पर्यावरणीय संकट से बचना है तो उसे ऊर्जा के नवीन स्रोतों के प्रति पूरी तरह से गंभीर होना होगा । इस संबंध में आज इस स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है कि दुनिया की अधिकाधिक ऊर्जा जरूरतें ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों से इतर केवल नवीन माध्यमों, विशेषतः सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से पूरी की जा सकें । इसके लिए आवश्यक है कि इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक निवेश बढ़ाते हुए शोध तथा आविष्कार को बढ़ावा दिया जाए ।

शुक्रवार, 13 जून 2014

अपना बोया काट रहा पाकिस्तान [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
हाल ही में पाकिस्तान के कराची अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जिस तरह से एक के बाद एक लगातार दो दिनों भीषण आतंकी हमले हुए हैं, वो बेहद चिंताजनक है। इन हमलों में करीब २८ लोगों के जान गंवाने की बात सामने आई है। हालांकि पहले हमले के दौरान पाकिस्तान के सुरक्षा बलों द्वारा मुठभेड़ में हमला करने वाले सभी दस आतंकियों मार गिराया गया था, लेकिन उसके अगले ही दिन फिर उसी जगह आतंकियों द्वारा एक और हमला किया गया। यूँ तो पाकिस्तान में आए दिन कहीं ना कहीं, कोई ना कोई आतंकी हमला होते ही रहता है, लेकिन, कराची को पाकिस्तान की अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित शहरों में गिना जाता   है। लिहाजा अगर वहाँ के हवाई अड्डे पर आतंकी हमला होता है और वो भी लगातार दो दिन, तो ये पाकिस्तान की आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था की लचरता व पाकिस्तान में अत्यंत विकराल रूप ले चुके आतंकियों के हौसले को ही दिखाता है। कराची में हुए इन ताज़ा हमलों की जिम्मेदारी लेते हुए तहरीक-ए-तालिबान नामक आतंकी संगठन द्वारा कहा गया है कि वो आगे भी ऐसे हमले करता रहेगा। ये वही आतंकी संगठन है, जिसने बीते साल में ये ऐलान किया था कि वो भारत में भी शरिया जैसा क़ानून चाहता है। बहरहाल, इतना तो साफ़ है कि आज पाकिस्तान में आतंकी संगठनों की ताकत और हिम्मत आसमान छू रही है और उनके आगे पाकिस्तानी सेना समेत पाकिस्तान की पूरी सुरक्षा व्यवस्था घुटनों के बल नज़र आ रही है। पाकिस्तान में आज स्थिति की भयावहता ये है कि आतंकी जब और जहाँ चाहें हमला कर लोगों की जान ले सकते हैं और उनको कोई नहीं रोक सकता। पाकिस्तान में आतंकियों का ये बोलबाला न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि समूची दुनिया और विशेषतः भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय है। इसका कारण ये है कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है, ऐसे में वहाँ आतंकियों के मजबूत होने की स्थिति में सबसे बड़ा खतरा ये है कि कहीं किसी तरह आतंकी पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने कब्जे में न ले लें। हालांकि पाकिस्तान की तरफ से हमेशा से ये आश्वासन दिया जाता रहा है कि उसके परमाणु हथियार आतंकियों की पहुँच से दूर और एकदम सुरक्षित हैं। लेकिन, आज जिस तरह से पाकिस्तान में आतंकियों के हमले आदि बढ़ गए हैं और पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियां उन्हें रोकने में पूरी तरह से लाचार साबित हो रही हैं, उसे देखते हुए विश्व समुदाय के लिए पाकिस्तान के आश्वासन पर भरोसा करना कहीं से तर्कसंगत नहीं दिखता। लिहाजा, कुल मिलाकर मोटी बात ये है कि आज पाकिस्तान दुनिया के लिए बारूद का ऐसा ढेर बन चुका है, जिसमे जरा सी चिंगारी लगने पर पाकिस्तान के साथ-साथ समूची दुनिया में भी विनाश का तांडव मच सकता है।
डीएनए 
   आज पाकिस्तान द्वारा भले ही स्वयं को आतंक से पीड़ित बताते हुए उससे लड़ाई के नाम पर अमेरिका समेत कई देशों से मोटी रकम प्राप्त की जा रही हो,  लेकिन असल सच्चाई तो ये है कि आज जो आतंकवाद पाकिस्तान के लिए नासूर बन चुका है, उस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरूआती दौर में पालने-पोषने वाला और कोई नहीं, खुद पाकिस्तान ही है। साधारण शब्दों में, आज पाकिस्तान वही काट रहा है, जो कभी उसने बोया था। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई हो, पाकिस्तानी सेना हो या पाकिस्तानी हुकूमत हो, इनमे से कोई ऐसा नहीं है, जिसने भारत में आतंक फैलाने के लिए आतंकियों को शह नहीं दी हो। भारत में होने वाले अधिकांश आतंकी हमलों में किसी न किसी तरह आईएसआई आदि का हाथ सामने आता रहा है। फिर चाहें वो संसद भवन पर हुआ हमला हो या मुंबई में हुआ २६/११ का हमला या और भी तमाम आतंकी हमले, सभी में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, सेना व पाकिस्तानी हुकूमत की भूमिका पाई गई है। हाँ, ये अलग बात है कि पाकिस्तान बड़ी ही बेशर्मी से इन अपनी भूमिका की इन साक्ष्यपूर्ण बातों को नकारता रहा है। बहरहाल, पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए खड़ा किया था, वो भारत को तो कोई बहुत क्षति नहीं पहुंचा सका। बल्कि उल्टे आज वो पाकिस्तान को ही दिन पर दिन लीलता जा रहा है और पाकिस्तानी हुकूमत उसे रोकने के लिए कुछ खास नहीं कर पा रही। पर दुर्भाग्य तो ये है कि इतने के बाद भी अबतक इस संबंध में पूरी तरह से पाकिस्तान की अक्ल पर से परदा नहीं हटा  है। वो अब भी आतंकवाद को लेकर भारत के साथ मिलकर लड़ने की बजाय भारत में आतंकी हमले करवाने की अपनी कोशिशें जारी रखे हुए है। सीमा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा जो आए दिन संघर्ष विराम का उल्लंघन किया जाता है, उसका उद्देश्य यही होता है कि गोलीबारी के बीच कुछ आतंकियों को भारतीय सीमा में घुसा दिया जाए। इसके अलावा अभी हाल ही में चुनाव के दौरान भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा टुंडा आदि जो कुछ आतंकी पकड़े गए हैं, उनके तार भी पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी से ही जुड़ते नज़र आ रहे हैं। स्पष्ट है कि भारत को तबाह करने के लिए उपजाए अपने आतंकवाद के चक्र में बुरी तरह पिसने के बावजूद पाकिस्तान के रवैये में अब तक कोई विशेष सुधार नहीं आया है। उचित तो ये होता कि इन आतंकियों के जरिये भारत को मिटाने का ख्वाब देखने की बजाय पाकिस्तान पूरी इच्छाशक्ति से भारत के साथ मिलकर आतंक के खिलाफ लड़ता। ऐसा करके ही वो आतंक के चंगुल से स्वयं को बचा सकता है, वरना वो स्वयं तो आतंक से जूझेगा ही, समूची दुनिया को भी परेशानी में डाले रहेगा।

शनिवार, 7 जून 2014

नदियों के पुनरुद्धार की उम्मीद जगाती सरकार [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 


दैनिक जागरण 
केन्द्र की नई नवेली मोदी सरकार से देश को अनेकों उम्मीदें हैं और उन्ही उम्मीदों में से एक है नदियों का पुनरुद्धार । इस उम्मीद के पीछे कई कारण हैं । पहला कारण कि भाजपा के घोषणापत्र में नदियों की साफ़-सफाई के बाबत काफी लुभावने वायदे किर गए हैं । दूसरा कारण ये कि प्रधानमंत्री मोदी अपने चुनावी वक्तव्यों में न सिर्फ बनारस में गंगा को स्वच्छ बनाने की बात कह चुके हैं, बल्कि शासन में आने के बाद अपने मंत्रालय में उन्होंने उमा भारती को बाकायदा गंगा सफाई अभियान मंत्री भी बनाया है । और उमा भारती ने भी गंगा को स्वच्छ बनाने की अपनी कोई ठोस योजना यथाशीघ्र सरकार के सामने रखने की बात कही है । इसके अलावा सरकार के कुछ अन्य मंत्रालयों में भी नदी संरक्षण के संबंध में अपने-अपने स्तर पर धीरे-धीरे काम होना शुरू हो चुका है । एक तरफ जहाँ केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय की पहल पर बनारस के दशाश्वमेघ घाट समेत दस प्रमुख घाटों को विकसित करने के लिए देश की होटल और पर्यटन क्षेत्र की शीर्ष निजी कम्पनियाँ आगे आई हैं, तो वहीँ दूसरी तरफ जहाजरानी मंत्रालय द्वारा ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, गंगा और महानदी जैसी नदियों को जोड़कर नदियों का एक जल परिवहन ग्रिड तैयार करने की भारी-भरकम लागत वाली महत्वाकांक्षी योजना भी तैयार की जा चुकी है । घाटों के विकास कार्य को तो पर्यटन मंत्रालय द्वारा अपने सौ दिनों के एजेंडे में प्रमुख रूप से रखा गया है । इन दोनों ही कार्यों के संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि मोदी पूर्व में अपने वक्तव्यों में ये कह चुके हैं कि नदियों को पर्यटन के योग्य विकसित किया जाएगा साथ ही व्यापारिक दृष्टि से भी उनका उपयोग किया जाएगा । गौर करें तो केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय और जहाजरानी मंत्रालय के उपर्युक्त कार्य मोदी की इन बातों को ही क्रियान्वित करने की दिशा में उठाए गए कुछ शुरूआती कदम प्रतीत होते है । विचार करें तो घाटों को विकसित करना जहाँ पर्यटन के लिहाज से उपयुक्त है, वहीँ नदियों का जल परिवहन ग्रिड बनाने से नदियों के जरिये व्यापारिक गतिविधियों में भी बढ़ोत्तरी होना आसान होगा । इसके जरिए व्यापारिक गतिविधियों के मद्देनज़र सामानों की ढुलाई जल जहाजों के द्वारा की जा सकेगी, जिसमे ट्रक आदि की अपेक्षा काफी कम लागत लगेगी । साथ ही, परिवहन ग्रिड बनने की स्थिति में सम्बंधित नदियों के जलस्तर में भी संतुलित सुधार आएगा । बहरहाल, कुल मिलाकर ये स्पष्ट है कि मोदी ने नदियों के संबंध में जो कहा है, वे उसे हुबहू  जमीन पर उतारने के लिए संभवतः अपने मंत्रियों ठोस निर्देश दे दिए हैं । तभी तो उनके मंत्रालयों द्वारा नदियों से संबद्ध कार्यों के लिए तैयार की जा रही योजनाएं मोदी के यत्र-तत्र दिए गए वक्तव्यों का ही प्रतिरूप प्रतीत हो रही हैं । इन सभी बातों को देखते हुए अब ये उम्मीद तो जगती ही है कि हो ना हो, मोदी के द्वारा धीरे-धीरे गंगा समेत तमाम अन्य नदियों का भी काफी हद तक पुनरुद्धार किया जाएगा । हालांकि नदियों के संबंध में अब भी मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती उनकी साफ़-सफाई की ही है, जिससे पार पाना उनके लिए कत्तई आसान नहीं दिखता । उनके इस कार्य को व्यवहृत करने की राह में तमाम यक्ष-प्रश्न चुनौती बनकर आने वाले हैं, जिनका समाधान किए बगैर नदियों को स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लक्ष्य को हासिल करना  संभव नहीं है । इन योजनाओं के क्रियान्वयन की राह में सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक प्रबंधन की है । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि ऊपर वर्णित जल परिवहन ग्रिड को तैयार करने में लगभग २५ हजार करोड़ रूपये की लागत का अनुमान है । इसके अलावा अन्य योजनाओं में भी ठीकठाक मोटी रकम ही लगेगी ।  अतः ये देखना दिलचस्प होगा कि आज जब देश की आर्थिक दशा काफी बुरे दौर में है, तब मोदी सरकार नदी संरक्षण से सम्बंधित अपनी इन योजनाओं आदि के लिए आवश्यक धन का प्रबंध कैसे करती है ?  


   भारत में नदियाँ सिर्फ जल का स्रोत या प्राकृतिक सम्पदा नहीं मानी जाती हैं, बल्कि उनके प्रति लोगों में विराट आस्था और आध्यात्मिक लगाव भी होता है । पर दुर्भाग्य कि ये सारा आदर, सारा लगाव अधिकांश रूप से केवल प्रतीकात्मकता तक ही सिमट कर रह गया है । इसी कारण आज स्थिति ऐसी विडंबनात्मक है कि नदियों को माता कहने वाले इस देश में आज नदियों की हालत बद से बदतर हो चुकी है । यथार्थ के धरातल पर हालत ये है कि माता कही जाने वाली गंगा-यमुना आदि नदियों का पानी किसी नाले के पानी इतना गन्दा हो चुका है और अब भी उसमे नगर निगम व औद्योगिक सस्थानों से निकसित  अपशिष्ट पदार्थ लगातार गिर रहे हैं । एक आंकड़े के मुताबिक देश में प्रतिदिन ३३०००० लीटर तरल अपशिष्ट पदार्थ उत्सर्जित होता है, जबकि देश में प्रतिदिन अपशिष्ट पदार्थों के शोधन की अधिकतम क्षमता मात्र ७०००० लीटर है । ऐसे में शेष अशोधित अपशिष्ट पदार्थ हमारी नदियों में गिरकर उन्हें दूषित करते हैं । अब अगर नदियों को प्रदूषण से मुक्त और स्वच्छ बनाना है तो उसकी बुनियादी जरूरत ये है कि सबसे पहले या तो आवश्यकतानुरूप अपशिष्ट पदार्थों के पर्याप्त शोधन की व्यवस्था की जाए अथवा नदियों से इतर उनके निष्कासन के लिए कोई अन्य स्थान तलाशा जाए । इसके अलावा एक आवश्यकता ये भी है कि अंध आस्था व परम्परा के नाम पर जिस तरह से आम लोगों द्वारा शव, मूर्ति तथा धार्मिक कर्मकांडों आदि के सामान नदियों में बहाए जाते हैं, उसपर प्रशासनिक सख्ती से, सामाजिक जागरूकता से या चाहें जिस प्रकार से हो सके, अंकुश लगाया जाए । अगर संभव हो तो इस संबंध में कोई कड़ा क़ानून बनाने पर भी विचार किया जा सकता है । क्योंकि, लोगों द्वारा नदियों में बहाई जाने वाली ये चीजे भी नदियों को प्रदूषित करने के लिए कम जिम्मेदार नहीं होती, जबकि इनको नदियों में बहाने का न तो कोई औचित्य है और न ही आवश्यकता । बिना इनपर अंकुश लगाए नदियों को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता है और । अभी मोदी सरकार की तरफ से इस संबंध में जिन कार्यों व योजनाओं की पहल होती दिख रही है, वो फ़िलहाल सिर्फ कागज़ में हैं । जब उन्हें जमीन पर उतारा जाएगा तो जानी-अनजानी अनेकों चुनौतियाँ सरकार और सम्बंधित व्यक्तियों के सम्मुख आएंगी । ऐसे में, तब ये देखना बेहद दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार उन चुनौतियों से पार पाते हुए नदियों को कहाँ तक स्वच्छ और सुन्दर कर पाती है । हालांकि ये तो काफी बाद की बात है, लेकिन उल्लेख करना आवश्यक है कि अगर नदियों को स्वच्छ करने में सरकार कामयाब होती है, तो साथ ही साथ उसे नदियों को पुनः गन्दा न होने से बचाने के लिए भी व्यवस्था बनानी होगी । क्योंकि बिना इस तरह की कोई ठोस व्यवस्था बनाए, नदियों को अधिक समय तक स्वच्छ नहीं रखा जा सकेगा । 

शुक्रवार, 6 जून 2014

सड़क सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह है मुंडे की मौत [डीएनए और जनवाणी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनवाणी 
महाराष्ट्र में भाजपा की रीढ़ माने जाने वाले और मोदी कैबिनेट में ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे का अचानक एक सड़क हादसे में निधन हो जाना, न सिर्फ भारतीय राजनीति के लिए एक दुखद घटना है, बल्कि देश की सड़क सुरक्षा पर गहरे प्रश्नचिन्ह भी लगाता है । अंदेशा जताया जा रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के ड्राइवर ने लाल बत्ती क्रास कर दी, जिस कारण ये दुर्घटना हुई । अब ये तो पूरी तरह से जांच के बाद ही स्पष्ट होगा कि इस दुर्घटना के लिए असल जिम्मेदार कौन है- गोपीनाथ मुंडे का ड्राइवर या ठोकर मारने वाली इंडिगो कार का ड्राइवर, लेकिन फ़िलहाल तो सवाल ये है कि गलती किसीकी भी हो, क्या इस दुर्घटना को रोका नहीं जा सकता था ? उसवक्त हमारे ट्रैफिक पुलिस के लोग कहाँ थे ? बेशक सड़क पर सुरक्षित रहने के लिए यातायात नियमों का पालन करने की  काफी हद तक जिम्मेदारी चलने वालों की ही होती है, लेकिन इसका ये भी अर्थ नहीं कि यातायात व्यवस्था के निरीक्षक निश्चिंत होकर बैठ जाएँ । अब जांच के बाद चाहें जो दोषी निकले, लेकिन इस हादसे के लिए हमारी सड़क सुरक्षा व्यवस्था व इससे सम्बंधित लोग निर्विवाद रूप से दोषी माने जा सकते हैं । अगर यातायात के क़ानून सख्त हों तो यातायात के नियमों का उल्लंघन करने से पहले लोग कई बार सोचें । पर यहाँ यातायत क़ानून ऐसे हैं कि लालबत्ती क्रास करने पर प्रायः मात्र चंद रूपयों का चालान लगाकर छोड़ दिया जाता है । आज  सबसे बड़ा और गंभीर प्रश्न तो ये उठता है कि देश की राजधानी में जब एक केंद्रीय मंत्री तक सड़क पर सुरक्षित नहीं हैं, तो साधारण लोग सड़कों पर किस प्रकार सुरक्षित हो सकते हैं ? दरअसल, सही मायने में तो गोपीनाथ मुंडे की सड़क दुर्घटना में हुई अकाल मृत्यु ने भारत की सड़क सुरक्षा व्यवस्था की वो असलियत एकबार फिर हमारे सामने ला दी है, जिसे इस देश में कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता । लिहाजा, सड़क सुरक्षा के मामले में आज भारत की हालत बहुत बदतर है । अभी हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, जहाँ सड़क दुर्घटना होने की गुंजाइश बेहद कम होती है । उसपर हमारे यहाँ पूरी आबादी के अनुपात में काफी कम लोगों के पास मोटर वाहन हैं । फिर भी सड़क सुरक्षा के मामले में भारत की दुर्दशा ऐसी है कि यहाँ प्रतिदिन औसतन ३८३ लोग सड़क हादसों में अपनी जान गँवा देते हैं । लेकिन बावजूद इस दुर्दशा के यहाँ सड़क सुरक्षा को लेकर न तो राजनीतिक स्तर पर ही कभी कोई सक्रियता दिखी है और न ही जनता के बीच ही ये कभी कोई मुद्दा बन पाया है । गौर करें तो सड़क सुरक्षा के मद्देनज़र तमाम ऐसे आवश्यक उपाय हैं, जो सरकारी हीला-हवाली के चक्कर में हाशिए पर पड़े हुए हैं । सन २००६-२००७ में सड़क सुरक्षा के मद्देनज़र सुझाव देने के लिए गठित सुन्दर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन यूपीए सरकार को ‘राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा एवं यातायात प्रबंधन बोर्ड’ के गठन समेत कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिए थे, जिनमे से यूपीए सरकार द्वारा बोर्ड गठन के प्रस्ताव को स्वीकार भी लिया गया था । यूपीए सरकार को ये सुझाव उसके पहले कार्यकाल के दौरान दिए गए थे । अब यूपीए सरकार अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा करके सत्ता से जा चुकी है, पर उस प्रस्तावित सड़क सुरक्षा बोर्ड का गठन आज तक नहीं हुआ है । हालांकि उस दौरान यूपीए सरकार ने बोर्ड गठन के संबंध में में एक विधेयक राज्यसभा में पेश जरूर किया था, मगर कुछ असहमतियों के कारण उसे स्थायी समिति को भेज दिया गया । लेकिन स्थायी समिति ने आम सहमति से इसके प्रावधान बनाने की बजाय लंबे समय तक इसे अटकाए रखा और फिर ये कह दिया कि ये बोर्ड बनाने से पहले सरकार सड़क सुरक्षा के लिए पहले से मौजूद कानूनों पर ठीक से अमल करवाए । इस प्रकार सड़क सुरक्षा के लिए काफी आवश्यक यह ‘सड़क सुरक्षा बोर्ड’ का गठन ठंडे बस्ते में चला गया ।
डीएनए 
ऐसा नहीं है कि ‘सड़क सुरक्षा बोर्ड’ का गठन हो जाने से सड़क दुर्घटनाओं में कोई चमत्कारिक कमी आ जाती, लेकिन उनपर एक सीमा तक नियंत्रण जरूर स्थापित हो सकता था । इस प्रस्तावित सड़क सुरक्षा बोर्ड में अध्यक्ष समेत विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित पाँच सदस्यों का प्रावधान है, जिनका कार्य सड़क सुरक्षा सम्बन्धी मानकों की सिफारिश करना, सड़के सही है या नहीं इस बात की पड़ताल कराना, दुर्घटना बहुल इलाकों की पहचान कराना आदि था । मगर सरकारी उदासीनता के कारण ये बोर्ड अब भी अपने गठन के इंतज़ार में पड़ा है । अब जब केन्द्र में भाजपा-नीत एनडीए की सरकार आ चुकी है और इस सरकार के ही एक केंद्रीय मंत्री की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई है, तो संभव है कि कहीं इस सरकार का ध्यान सड़क सुरक्षा बोर्ड समेत सड़क सुरक्षा सुदृढ़ करने के उपायों की तरफ जाए ।
  उपर्युक्त बातें तो सड़क सुरक्षा के कानूनों आदि की हो गई । पर इन सबसे इतर एक दायित्व सड़क पर चलने वाले लोगों का भी होता है कि वे सड़क पर चलते वक्त यातायत नियमों का गंभीरता से पालन करें । कितना भी कड़ा यातायात क़ानून या कितनी भी  बेहतर सड़क व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है, जब   सड़क पर चलने वाले लोग उसको गंभीरता से लें । लेकिन दुर्भाग्य कि भारत में अधिकाधिक लोग अपने गंतव्य तक शीघ्रता से पहुँचने के चक्कर में यातायात नियमों को नज़रंदाज़ कर के आगे बढ़ जाते हैं । विडम्बना ये है कि ऐसा करने वालों में तमाम शिक्षित लोग भी होते हैं । हालांकि इस विषय में सरकार की तरफ से टीवी, रेडियो, पोस्टर आदि के जरिये काफी हद तक जागरूकता लाने का प्रयास किया जाता रहा है, पर सरकार के इन जागरूकता प्रयासों का कोई बहुत प्रभाव पड़ता नहीं दिखता । 

सोमवार, 2 जून 2014

सार्क को पुनः सक्रिय करने की कूटनीति [अप्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

सार्क नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी 
भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने शपथग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करना बेहद सूझबूझ और दूरगामी सोच से पूर्ण एक कूटनीतिक निर्णय था । दूसरे शब्दों में कहें तो अपने शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय विदेश नीति की वो भूमिका तैयार कर दी, जो यूपीए सरकार दस वर्षों के अपने लंबे शासनकाल में नहीं कर सकी । गौर करें तो भारत के प्रधानमंत्री के शपथग्रहण में इतने राष्ट्राध्यक्षों का एक साथ मौजूद रहना, न सिर्फ भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में संभवतः पहली दफे हुआ, बल्कि अगर सब सही रहा तो इसके कई दूरगामी प्रभाव भी सिद्ध हो सकते हैं । इसे किसी लिहाज से साधारण घटना नहीं कहा जा सकता । इस घटना के दूरगामी प्रभावों व परिणामों को समझने के लिए आवश्यक होगा कि पहले हम सार्क के विषय में जान लें । सार्क यानी ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ दक्षिण एशिया के ८ देशों का एक संगठन है । इसकी स्थापना सन १९८५ में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया उर रहमान के दक्षिण एशिया में एक व्यापर गुट के निर्माण के सुझाव पर भारत, पाक, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा की गई थी । आगे भारत के प्रयासस्वरूप अफगानिस्तान भी इसका एक सदस्य बन गया । इसकी स्थापना दक्षिण एशिया में आर्थिक विकास,  सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास में तेजी लाने, आपसी विश्वास व  एक दूसरे की समस्याओं के प्रति समझ बढ़ाने, आपस में साझा हित के मामलों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों में सहयोग को मजबूत करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति के तहत की गई थी । जनसँख्या के लिहाज से देखें तो अन्य किसी भी क्षेत्रीय संगठन की अपेक्षा सार्क बेहद सशक्त नज़र आता है, लेकिन इसके सदस्य देशों की आपसी उलझनों, विवादों व समस्याओं के कारण ये संगठन आज के समय में लगभग निष्क्रिय सा हो चुका है । उदाहरणार्थ, सार्क के अस्तित्व में आने के लगभग एक दशक बाद इसके सदस्य राष्ट्रों द्वारा ‘दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र’ (साफ्टा) के समझौते पर हस्ताक्षर किया गया, लेकिन आपसी समस्याओं के कारण ये समझौता कभी सही ढंग से अमल में नहीं आ सका । परिणामतः आज हालत ये है कि साफ्टा विश्व का सबसे कमजोर व्यापार संगठन है और विश्व व्यापार में सार्क का हिस्सा मात्र पाँच फीसद है । आपसी व्यापार की कमी के कारण ही दुनिया की २० फीसद आबादी से पूर्ण होने के बावजूद सार्क के इन देशों का वैश्विक जीडीपी में योगदान  मात्र २ फीसद है । अगर गौर करें तो इस संगठन के लगभग सभी राष्ट् किसी न किसी रूप में आतंरिक व वाह्य सुरक्षा की अनिश्चितता, आर्थिक विपन्नता समेत कई छोटी-बड़ी दिक्कतों से पीड़ित हैं । हालांकि भारत खुद भी तमाम आतंरिक व वाह्य समस्याओं से पीड़ित है, लेकिन बावजूद इसके इन सब राष्ट्रों में वो ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि हर रूप में सर्वाधिक स्थिर और मजबूत है । इनमे से अधिकत्तर राष्ट्रों को भारत की तरफ से तमाम तरह की सहायताएं भी दी जाती रही हैं । लिहाजा, अब जब भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सार्क के इन सभी सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथग्रहण में एकसाथ आमंत्रित किया गया, उससे काफी हद तक यही संकेत मिलता है कि हो न हो, मोदी का ये कूटनीतिक प्रयास होगा कि सार्क के सदस्य राष्ट्रों के बीच आपसी वैमनस्य को दूर करते हुए उसे यथाशीघ्र पुनः सक्रिय किया जाए ।
सार्क लोगो 
  कहा जाता है कि जिन राष्ट्रों के बीच आर्थिक संबंध बेहद प्रगाढ़ हो जाते हैं, उनके बीच अन्य संबंध भी धीरे-धीरे अच्छे हो ही जाते हैं । क्योंकि, आर्थिक संबंधों के प्रगाढ़ होने की स्थिति में उन राष्ट्रों के भारी आर्थिक हित एक दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में उनमे से कोई भी राष्ट्र अन्य समस्याओं के कारण आर्थिक हितों की हानि नहीं चाहता । लिहाजा, बातचीत व कुछेक समझौतों के जरिए वे उन समस्याओं को आर्थिक हितों के रास्ते से हटा ही देते हैं । परिणामतः उन राष्ट्रों के बीच व्यापारिक मजबूरी में ही सही, हर प्रकार से बेहतर संबंध स्थापित हो जाते हैं । उद्योग और व्यापार को लेकर बेहद संजीदा रहने वाले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये बातें बहुत अच्छे से जानते हैं । संभवतः इसी कारण वो सार्क के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथग्रहण में बुलाकर सार्क को पुनः पूरी तरह से सक्रिय करने की अपनी कूटनीतिक सोच की आधारशिला रखने का प्रयास किए । मोटे तौर पर उनकी सोच ये प्रतीत होती है कि सार्क को सक्रिय स्थिति में लाकर इसके सभी सदस्य देशों के बीच व्यापारिक सहयोग बढ़ाया जाय, जिससे सबको एक दूसरे से इतना आर्थिक लाभ होने लगे कि अन्य प्रकार के संबंधों में सुधार लाना उनकी विवशता हो जाए । और राष्ट्रों के बीच व्यापारिक संबंध सुदृढ़ हों ना हों, पर कम से कम भारत से तो इन सभी राष्ट्रों के व्यापारिक संबंध बेहद मजबूत हो ही जाएँ । अब इसमे तो संदेह नहीं कि सार्क के सक्रिय होने की स्थिति में सर्वाधिक सशक्त सदस्य राष्ट्र होने के कारण स्वाभाविक रूप से उस की अध्यक्षता भारत के पास ही रहेगी । ऐसा होने पर दक्षिण एशिया में न सिर्फ सभी राष्ट्रों से भारत के अच्छे सामाजिक संबंध होंगे, बल्कि भारतीय व्यापार जगत के लिए सभी सार्क राष्ट्रों के बाजार भी पूरी तरह से खुल जाएंगे । ये न सिर्फ भारतीय व्यपार जगत के लिए बेहतर होगा, बल्कि समूची दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति को और मजबूत भी करेगा ।
   किसी विद्वान ने उचित ही कहा है कि हम पड़ोसी नहीं चुन सकते, लेकिन पड़ोसी को अच्छा दोस्त जरूर बना सकते हैं । यहाँ भी यही स्थिति है । बेशक सार्क के अधिकाधिक सदस्य राष्ट्रों, खासकर पाकिस्तान, के साथ भारत के कई विवाद हैं, लेकिन उन सब के बावजूद भौगोलिक दृष्टिकोण से ये सब राष्ट्र हमारे पड़ोसी हैं । अतः न सिर्फ इन राष्ट्रों से हर प्रकार से सुमधुर संबंध होना, बल्कि इन राष्ट्रों में शांति होना भी भारत की निर्बाध प्रगति के लिए आवश्यक है । लिहाजा, इन चीजों को ही नज़र में रखते हुए नरेंद्र मोदी द्वारा सार्क को पुनः सक्रिय करके उसके स्थापना काल के तय उद्देश्यों को क्रियान्वित करने की सोच दिखा रहे हैं । अब देखने वाली बात ये होगी कि भारत के वे सार्क  को सक्रिय करने की अपनी इस कूटनीति में कितना और कैसे कामयाब होते हैं । वैसे, उनका इस कूटनीति में कामयाब होना न सिर्फ भारत, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया के लिए अत्यंत सुखद होगा ।