सोमवार, 2 जून 2014

सार्क को पुनः सक्रिय करने की कूटनीति [अप्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

सार्क नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी 
भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने शपथग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करना बेहद सूझबूझ और दूरगामी सोच से पूर्ण एक कूटनीतिक निर्णय था । दूसरे शब्दों में कहें तो अपने शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय विदेश नीति की वो भूमिका तैयार कर दी, जो यूपीए सरकार दस वर्षों के अपने लंबे शासनकाल में नहीं कर सकी । गौर करें तो भारत के प्रधानमंत्री के शपथग्रहण में इतने राष्ट्राध्यक्षों का एक साथ मौजूद रहना, न सिर्फ भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में संभवतः पहली दफे हुआ, बल्कि अगर सब सही रहा तो इसके कई दूरगामी प्रभाव भी सिद्ध हो सकते हैं । इसे किसी लिहाज से साधारण घटना नहीं कहा जा सकता । इस घटना के दूरगामी प्रभावों व परिणामों को समझने के लिए आवश्यक होगा कि पहले हम सार्क के विषय में जान लें । सार्क यानी ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ दक्षिण एशिया के ८ देशों का एक संगठन है । इसकी स्थापना सन १९८५ में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया उर रहमान के दक्षिण एशिया में एक व्यापर गुट के निर्माण के सुझाव पर भारत, पाक, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा की गई थी । आगे भारत के प्रयासस्वरूप अफगानिस्तान भी इसका एक सदस्य बन गया । इसकी स्थापना दक्षिण एशिया में आर्थिक विकास,  सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास में तेजी लाने, आपसी विश्वास व  एक दूसरे की समस्याओं के प्रति समझ बढ़ाने, आपस में साझा हित के मामलों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों में सहयोग को मजबूत करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति के तहत की गई थी । जनसँख्या के लिहाज से देखें तो अन्य किसी भी क्षेत्रीय संगठन की अपेक्षा सार्क बेहद सशक्त नज़र आता है, लेकिन इसके सदस्य देशों की आपसी उलझनों, विवादों व समस्याओं के कारण ये संगठन आज के समय में लगभग निष्क्रिय सा हो चुका है । उदाहरणार्थ, सार्क के अस्तित्व में आने के लगभग एक दशक बाद इसके सदस्य राष्ट्रों द्वारा ‘दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र’ (साफ्टा) के समझौते पर हस्ताक्षर किया गया, लेकिन आपसी समस्याओं के कारण ये समझौता कभी सही ढंग से अमल में नहीं आ सका । परिणामतः आज हालत ये है कि साफ्टा विश्व का सबसे कमजोर व्यापार संगठन है और विश्व व्यापार में सार्क का हिस्सा मात्र पाँच फीसद है । आपसी व्यापार की कमी के कारण ही दुनिया की २० फीसद आबादी से पूर्ण होने के बावजूद सार्क के इन देशों का वैश्विक जीडीपी में योगदान  मात्र २ फीसद है । अगर गौर करें तो इस संगठन के लगभग सभी राष्ट् किसी न किसी रूप में आतंरिक व वाह्य सुरक्षा की अनिश्चितता, आर्थिक विपन्नता समेत कई छोटी-बड़ी दिक्कतों से पीड़ित हैं । हालांकि भारत खुद भी तमाम आतंरिक व वाह्य समस्याओं से पीड़ित है, लेकिन बावजूद इसके इन सब राष्ट्रों में वो ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि हर रूप में सर्वाधिक स्थिर और मजबूत है । इनमे से अधिकत्तर राष्ट्रों को भारत की तरफ से तमाम तरह की सहायताएं भी दी जाती रही हैं । लिहाजा, अब जब भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सार्क के इन सभी सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथग्रहण में एकसाथ आमंत्रित किया गया, उससे काफी हद तक यही संकेत मिलता है कि हो न हो, मोदी का ये कूटनीतिक प्रयास होगा कि सार्क के सदस्य राष्ट्रों के बीच आपसी वैमनस्य को दूर करते हुए उसे यथाशीघ्र पुनः सक्रिय किया जाए ।
सार्क लोगो 
  कहा जाता है कि जिन राष्ट्रों के बीच आर्थिक संबंध बेहद प्रगाढ़ हो जाते हैं, उनके बीच अन्य संबंध भी धीरे-धीरे अच्छे हो ही जाते हैं । क्योंकि, आर्थिक संबंधों के प्रगाढ़ होने की स्थिति में उन राष्ट्रों के भारी आर्थिक हित एक दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में उनमे से कोई भी राष्ट्र अन्य समस्याओं के कारण आर्थिक हितों की हानि नहीं चाहता । लिहाजा, बातचीत व कुछेक समझौतों के जरिए वे उन समस्याओं को आर्थिक हितों के रास्ते से हटा ही देते हैं । परिणामतः उन राष्ट्रों के बीच व्यापारिक मजबूरी में ही सही, हर प्रकार से बेहतर संबंध स्थापित हो जाते हैं । उद्योग और व्यापार को लेकर बेहद संजीदा रहने वाले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये बातें बहुत अच्छे से जानते हैं । संभवतः इसी कारण वो सार्क के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथग्रहण में बुलाकर सार्क को पुनः पूरी तरह से सक्रिय करने की अपनी कूटनीतिक सोच की आधारशिला रखने का प्रयास किए । मोटे तौर पर उनकी सोच ये प्रतीत होती है कि सार्क को सक्रिय स्थिति में लाकर इसके सभी सदस्य देशों के बीच व्यापारिक सहयोग बढ़ाया जाय, जिससे सबको एक दूसरे से इतना आर्थिक लाभ होने लगे कि अन्य प्रकार के संबंधों में सुधार लाना उनकी विवशता हो जाए । और राष्ट्रों के बीच व्यापारिक संबंध सुदृढ़ हों ना हों, पर कम से कम भारत से तो इन सभी राष्ट्रों के व्यापारिक संबंध बेहद मजबूत हो ही जाएँ । अब इसमे तो संदेह नहीं कि सार्क के सक्रिय होने की स्थिति में सर्वाधिक सशक्त सदस्य राष्ट्र होने के कारण स्वाभाविक रूप से उस की अध्यक्षता भारत के पास ही रहेगी । ऐसा होने पर दक्षिण एशिया में न सिर्फ सभी राष्ट्रों से भारत के अच्छे सामाजिक संबंध होंगे, बल्कि भारतीय व्यापार जगत के लिए सभी सार्क राष्ट्रों के बाजार भी पूरी तरह से खुल जाएंगे । ये न सिर्फ भारतीय व्यपार जगत के लिए बेहतर होगा, बल्कि समूची दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति को और मजबूत भी करेगा ।
   किसी विद्वान ने उचित ही कहा है कि हम पड़ोसी नहीं चुन सकते, लेकिन पड़ोसी को अच्छा दोस्त जरूर बना सकते हैं । यहाँ भी यही स्थिति है । बेशक सार्क के अधिकाधिक सदस्य राष्ट्रों, खासकर पाकिस्तान, के साथ भारत के कई विवाद हैं, लेकिन उन सब के बावजूद भौगोलिक दृष्टिकोण से ये सब राष्ट्र हमारे पड़ोसी हैं । अतः न सिर्फ इन राष्ट्रों से हर प्रकार से सुमधुर संबंध होना, बल्कि इन राष्ट्रों में शांति होना भी भारत की निर्बाध प्रगति के लिए आवश्यक है । लिहाजा, इन चीजों को ही नज़र में रखते हुए नरेंद्र मोदी द्वारा सार्क को पुनः सक्रिय करके उसके स्थापना काल के तय उद्देश्यों को क्रियान्वित करने की सोच दिखा रहे हैं । अब देखने वाली बात ये होगी कि भारत के वे सार्क  को सक्रिय करने की अपनी इस कूटनीति में कितना और कैसे कामयाब होते हैं । वैसे, उनका इस कूटनीति में कामयाब होना न सिर्फ भारत, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया के लिए अत्यंत सुखद होगा । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें