शुक्रवार, 6 जून 2014

सड़क सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह है मुंडे की मौत [डीएनए और जनवाणी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनवाणी 
महाराष्ट्र में भाजपा की रीढ़ माने जाने वाले और मोदी कैबिनेट में ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे का अचानक एक सड़क हादसे में निधन हो जाना, न सिर्फ भारतीय राजनीति के लिए एक दुखद घटना है, बल्कि देश की सड़क सुरक्षा पर गहरे प्रश्नचिन्ह भी लगाता है । अंदेशा जताया जा रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के ड्राइवर ने लाल बत्ती क्रास कर दी, जिस कारण ये दुर्घटना हुई । अब ये तो पूरी तरह से जांच के बाद ही स्पष्ट होगा कि इस दुर्घटना के लिए असल जिम्मेदार कौन है- गोपीनाथ मुंडे का ड्राइवर या ठोकर मारने वाली इंडिगो कार का ड्राइवर, लेकिन फ़िलहाल तो सवाल ये है कि गलती किसीकी भी हो, क्या इस दुर्घटना को रोका नहीं जा सकता था ? उसवक्त हमारे ट्रैफिक पुलिस के लोग कहाँ थे ? बेशक सड़क पर सुरक्षित रहने के लिए यातायात नियमों का पालन करने की  काफी हद तक जिम्मेदारी चलने वालों की ही होती है, लेकिन इसका ये भी अर्थ नहीं कि यातायात व्यवस्था के निरीक्षक निश्चिंत होकर बैठ जाएँ । अब जांच के बाद चाहें जो दोषी निकले, लेकिन इस हादसे के लिए हमारी सड़क सुरक्षा व्यवस्था व इससे सम्बंधित लोग निर्विवाद रूप से दोषी माने जा सकते हैं । अगर यातायात के क़ानून सख्त हों तो यातायात के नियमों का उल्लंघन करने से पहले लोग कई बार सोचें । पर यहाँ यातायत क़ानून ऐसे हैं कि लालबत्ती क्रास करने पर प्रायः मात्र चंद रूपयों का चालान लगाकर छोड़ दिया जाता है । आज  सबसे बड़ा और गंभीर प्रश्न तो ये उठता है कि देश की राजधानी में जब एक केंद्रीय मंत्री तक सड़क पर सुरक्षित नहीं हैं, तो साधारण लोग सड़कों पर किस प्रकार सुरक्षित हो सकते हैं ? दरअसल, सही मायने में तो गोपीनाथ मुंडे की सड़क दुर्घटना में हुई अकाल मृत्यु ने भारत की सड़क सुरक्षा व्यवस्था की वो असलियत एकबार फिर हमारे सामने ला दी है, जिसे इस देश में कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता । लिहाजा, सड़क सुरक्षा के मामले में आज भारत की हालत बहुत बदतर है । अभी हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, जहाँ सड़क दुर्घटना होने की गुंजाइश बेहद कम होती है । उसपर हमारे यहाँ पूरी आबादी के अनुपात में काफी कम लोगों के पास मोटर वाहन हैं । फिर भी सड़क सुरक्षा के मामले में भारत की दुर्दशा ऐसी है कि यहाँ प्रतिदिन औसतन ३८३ लोग सड़क हादसों में अपनी जान गँवा देते हैं । लेकिन बावजूद इस दुर्दशा के यहाँ सड़क सुरक्षा को लेकर न तो राजनीतिक स्तर पर ही कभी कोई सक्रियता दिखी है और न ही जनता के बीच ही ये कभी कोई मुद्दा बन पाया है । गौर करें तो सड़क सुरक्षा के मद्देनज़र तमाम ऐसे आवश्यक उपाय हैं, जो सरकारी हीला-हवाली के चक्कर में हाशिए पर पड़े हुए हैं । सन २००६-२००७ में सड़क सुरक्षा के मद्देनज़र सुझाव देने के लिए गठित सुन्दर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन यूपीए सरकार को ‘राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा एवं यातायात प्रबंधन बोर्ड’ के गठन समेत कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिए थे, जिनमे से यूपीए सरकार द्वारा बोर्ड गठन के प्रस्ताव को स्वीकार भी लिया गया था । यूपीए सरकार को ये सुझाव उसके पहले कार्यकाल के दौरान दिए गए थे । अब यूपीए सरकार अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा करके सत्ता से जा चुकी है, पर उस प्रस्तावित सड़क सुरक्षा बोर्ड का गठन आज तक नहीं हुआ है । हालांकि उस दौरान यूपीए सरकार ने बोर्ड गठन के संबंध में में एक विधेयक राज्यसभा में पेश जरूर किया था, मगर कुछ असहमतियों के कारण उसे स्थायी समिति को भेज दिया गया । लेकिन स्थायी समिति ने आम सहमति से इसके प्रावधान बनाने की बजाय लंबे समय तक इसे अटकाए रखा और फिर ये कह दिया कि ये बोर्ड बनाने से पहले सरकार सड़क सुरक्षा के लिए पहले से मौजूद कानूनों पर ठीक से अमल करवाए । इस प्रकार सड़क सुरक्षा के लिए काफी आवश्यक यह ‘सड़क सुरक्षा बोर्ड’ का गठन ठंडे बस्ते में चला गया ।
डीएनए 
ऐसा नहीं है कि ‘सड़क सुरक्षा बोर्ड’ का गठन हो जाने से सड़क दुर्घटनाओं में कोई चमत्कारिक कमी आ जाती, लेकिन उनपर एक सीमा तक नियंत्रण जरूर स्थापित हो सकता था । इस प्रस्तावित सड़क सुरक्षा बोर्ड में अध्यक्ष समेत विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित पाँच सदस्यों का प्रावधान है, जिनका कार्य सड़क सुरक्षा सम्बन्धी मानकों की सिफारिश करना, सड़के सही है या नहीं इस बात की पड़ताल कराना, दुर्घटना बहुल इलाकों की पहचान कराना आदि था । मगर सरकारी उदासीनता के कारण ये बोर्ड अब भी अपने गठन के इंतज़ार में पड़ा है । अब जब केन्द्र में भाजपा-नीत एनडीए की सरकार आ चुकी है और इस सरकार के ही एक केंद्रीय मंत्री की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई है, तो संभव है कि कहीं इस सरकार का ध्यान सड़क सुरक्षा बोर्ड समेत सड़क सुरक्षा सुदृढ़ करने के उपायों की तरफ जाए ।
  उपर्युक्त बातें तो सड़क सुरक्षा के कानूनों आदि की हो गई । पर इन सबसे इतर एक दायित्व सड़क पर चलने वाले लोगों का भी होता है कि वे सड़क पर चलते वक्त यातायत नियमों का गंभीरता से पालन करें । कितना भी कड़ा यातायात क़ानून या कितनी भी  बेहतर सड़क व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है, जब   सड़क पर चलने वाले लोग उसको गंभीरता से लें । लेकिन दुर्भाग्य कि भारत में अधिकाधिक लोग अपने गंतव्य तक शीघ्रता से पहुँचने के चक्कर में यातायात नियमों को नज़रंदाज़ कर के आगे बढ़ जाते हैं । विडम्बना ये है कि ऐसा करने वालों में तमाम शिक्षित लोग भी होते हैं । हालांकि इस विषय में सरकार की तरफ से टीवी, रेडियो, पोस्टर आदि के जरिये काफी हद तक जागरूकता लाने का प्रयास किया जाता रहा है, पर सरकार के इन जागरूकता प्रयासों का कोई बहुत प्रभाव पड़ता नहीं दिखता । 

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