गुरुवार, 23 जुलाई 2020

ओटीटी माध्यमों की अराजकता का संकट


  • पीयूष द्विवेदी भारत

कोरोना काल में आपदा को अवसर बनाने की बातों के बीच ओटीटी माध्यमों के लिए यह आपदा बड़ा अवसर सिद्ध हो रही है। सिनेमाघर बंद होने के कारण मनोरंजन के लिए इंटरनेट पर सक्रिय एक बड़े तबके का रुझान इन माध्यमों की तरफ हुआ है। दर्शकों के इस रुझान का पूरा लाभ लेने के लिए ओटीटी माध्यम लगातार नयी-नयी सामग्री लाने में लगे हैं। हॉटस्टार, अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स, जीफाइव, वूट, सोनी लिव आदि अनेक ओटीटी माध्यमों पर एक तरह से वेब सीरीजों और फिल्मों की बाढ़-सी आई हुई है। लेकिन सामग्री की इस अधिकता के बीच यदि उसकी गुणवत्ता पर गौर कर किया जाए तो स्पष्ट होता है कि इन ओटीटी सामग्रियों में स्वस्थ मनोरंजन की तुलना में सामाजिक-मानसिक विकृतियों का महिमामंडन और वैचारिक एजेंडों का निर्वहन अधिक है। एक वाक्य में इसे यूँ कह सकते हैं कि ओटीटी पर प्रसारित अधिकांश वेब सीरीजें पूरी तरह से भारतीयता की भावना के विरुद्ध और देश के जमीनी यथार्थ से कटी हुई हैं।
भारतीय वेब सीरीजों पर एक समग्र दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है कि भारतीय वेब सीरीज निर्माता 2018 में आई वेब सीरीज सेक्रेड गेम्स के प्रभाव से अबतक बाहर नहीं आ पाए हैं। यही कारण है कि आपको अधिकांश भारतीय वेब सीरीजें अपराध-कथाओं पर आधारित मिलेंगीं क्योंकि ऐसी कथाओं में गाली-गलौज, हिंसा और सेक्स दृश्यों को रचने की भरपूर संभावनाएं होती हैं। साथ ही, सनातन प्रतीकों का अपमान भी ऐसी अपराध-कथाओं का हिस्सा बन चुका है। हाल में आई ‘पाताल लोक’ वेब सीरीज इसका ताजा उदाहरण है, जो ध्यान से देखने पर सेक्रेड गेम्स की लकीर को ही बढ़ाती नजर आती है।  कोरोना काल में ही प्रसारित हुई ‘रसभरी’ नामक वेब सीरीज में भी हिन्दू प्रतीकों के मखौल के साथ-साथ स्कूली छात्रों के आपसी संबंधों तथा अपनी शिक्षिका के साथ उनके संबंधों को जैसे दिखाया गया है, वो बेहद आपत्तिजनक लगता है। शिक्षिका का जो चरित्र-चित्रण इसमें हुआ है, वो देश भर की शिक्षिकाओं का अपमान करने वाला तो है ही, नारी विरोधी भी है। तिसपर एक बाल कलाकार से जैसा नृत्य इसमें कराया गया है, वो शर्मनाक और आपत्तिजनक है। हो सकता है कि ऐसी विसंगतियां समाज में यदा-कदा घटित होती हों, लेकिन एक सभ्य समाज में इनके प्रति विरोध की भावना होनी चाहिए, न कि ऐसी वेब सीरीज बनाकर इनका महिमामंडन किया जाना चाहिए। जब-तब स्त्री-अस्मिता की पैरोकार बनने वाली स्वरा भास्कर ने ऐसी वेब सीरीज में काम करके स्त्री के सम्मान को कौन-सी ऊंचाई दी है, यह उन्हें बताना चाहिए। ऐसे ही गिनवाने को फोर मोर शॉट्स प्लीज़, असुर, रक्तांचल, लाल बाजार, माफिया जैसी हाल में आई तमाम वेब सीरीजें हैं, जिनमें अश्लीलता, हिंसा, गाली-गलौज आदि अस्वास्थ्यकर तत्वों की मौजूदगी देखी जा सकती है।      
तिसपर इन वेब सीरीजों के निर्माता-निर्देशकों का तर्क होता है कि वे यथार्थ दिखा रहे हैं। एकबार के लिए यदि इसे यथार्थ मान लें तो भी यह तथ्य रेखांकनीय है कि सिनेमा कलात्मक माध्यम है, जिसकी सफलता इसमें है कि क्रूर से क्रूर यथार्थ को भी ऐसे कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए कि दृश्य अपनी पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत भी हो जाए और देखने वाले को कुछ असहज या आपत्तिजनक भी न लगे। पुरानी फिल्मों में फिल्माए जाने वाले अंतरंग रुमानी दृश्य या बलात्कार के दृश्य इसका उदाहरण हैं, जिनमें संबंधित व्यक्तियों की एक झलक देने के बाद कैमरा बंद दरवाजे, बुझती लालटेन, बहती नदी, चलते पंखे, खुली खिड़की या किसी अन्य वस्तु की तरफ घूम जाता था और संगीत के माध्यम से पार्श्व में हो रही क्रिया का आभास दर्शक को दिया जाता था। हत्या आदि के दृश्यों का भी फिल्मांकन ऐसे किया जाता था कि वो देखने में वीभत्स न लगे। वास्तव में इसे ही कला कहते हैं। फिर आज के इस तकनीक संपन्न समय में ऐसे दृश्यों को फिल्माने के लिए ऐसे कुछ नए सांकेतिक तरीके क्यों नहीं इजाद किए और अपनाए जा सकते? बेशक किए जा सकते हैं, मगर नियमन के अंकुश से मुक्त जो वेब सीरीज निर्माता अभिव्यक्ति की अराजकता को ही कला मान चुके हैं, उनसे ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।
दरअसल भारत में वेब सीरीजों को लेकर अभी रचनात्मक ढंग से बहुत अधिक कुछ काम हुआ ही नहीं है। इसलिए यहाँ वेब सीरीज की सामग्री में बहुत विविधता नहीं मिलती है। ऐसे में, आवश्यकता है कि वेब सीरीज निर्माता अपराध-कथाओं या भूत-प्रेत की कथाओं के आसान तरीकों की लकीर का फ़कीर बनने की बजाय देश के विज्ञान, इतिहास, धर्म, दर्शन, साहित्य आदि क्षेत्रों से जुड़े विषयों पर पूर्वग्रहों से मुक्त रहते हुए पूरे शोध एवं प्रामाणिकता के साथ वेब सीरीजें लाने की दिशा में काम करें। किसी वैज्ञानिक विषय को कहानी की शक्ल में ढालकर मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है, इतिहास के अनकहे किस्सों को बताया जा सकता है और साहित्य की विभूतियों पर भी वेब सीरीज लाई जा सकती है। संभावनाएं बहुत हैं, बस करने की इच्छा और नीयत चाहिए। इस तरह की चीजें आने से न केवल देश में ओटीटी माध्यमों की सामग्री की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि उनमें विविधता भी आएगी तथा उनके दर्शक-वर्ग का भी विस्तार होगा। साथ ही, ओटीटी माध्यमों की सामग्री पर इतने सवाल भी नहीं उठेंगे जिससे उनके विनियमन, जिसका संकेत सरकार दे रही है, के दायरे में आने का खतरा भी कम होगा।
ओटीटी के खिलाड़ी यदि इन बातों को देखते हुए अपनी वेब सीरीजों में यथोचित सुधार लाते हैं तो ठीक, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब यह माध्यम भी संस्थागत निगरानी में आ जाएंगे और तब इसके धुरंधरों के पास ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन’ का रोना रोने के सिवाय और कुछ नहीं बचेगा।

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

हिंदी भाषी राज्य में हिंदी की दुर्दशा (दैनिक जागरण में प्रकाशित)


  • पीयूष द्विवेदी भारत

देश में हिंदी को लेकर चलने वाली समकालीन चर्चाओं में मोटे तौर पर दो पक्ष दिखाई देते हैं। एक, जो यह मानता है कि देश में हिंदी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि उसे देश के अहिंदीभाषी राज्यों में पहुंचाने के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया जा रहा। दूसरा पक्ष मानता है कि देश में हिंदी की हालत बेहतर हो रही है और अब वो दुनिया में भी अपनी धमक बढ़ाने लगी है। परन्तु, इस भाषाई विमर्श की परिधि से बाहर हिंदी की जो जमीनी स्थिति है, वो उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्य की बोर्ड परीक्षाओं के परिणामों में गत वर्ष भी सामने आई थी और अबकी भी आई है। बीते वर्ष राज्य की दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में लगभग दस लाख बच्चे हिंदी में अनुत्तीर्ण हो गए थे, तो माना गया कि इस वर्ष यह हो गया होगा, आगे स्थिति सुधर जाएगी। परन्तु, इसबार अभी जब परीक्षा परिणाम आए तो यह आंकड़ा जरा-सी कमी के साथ आठ लाख के करीब सामने आया। आंकड़ों में कमी को लेकर कुछ लोग यह कह सकते हैं कि स्थिति में सुधार तो आया है, परन्तु प्रश्न ये है कि देश के सबसे बड़े हिंदी भाषी राज्य में हिंदी को लेकर यह स्थिति पैदा ही क्यों हुई?  
अतः हिंदी पर होने वाली चर्चाओं में बात अहिंदीभाषी राज्यों में हिंदी के प्रसार या हिंदी की वैश्विक धमक से पहले इस बिंदु पर होनी चाहिए कि एक हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी की शैक्षिक स्थिति ऐसी क्यों हो गयी है? हिंदी का कायाकल्प करने वाले युगांतकारी लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कथा-सम्राट प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षरों की जन्मभूमि यूपी में इस तरह लाखों की तादाद में छात्रों का हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना, निश्चित रूप से अपनी भाषा के प्रति हमारी निष्ठा और नीयत पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

दरअसल हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी विषय को लेकर अभिभावकों और अध्यापकों से होते हुए छात्रों तक में यह मानसिकता गहरे पैठी हुई है कि ये आसान विषय है और इसके अध्ययन में बहुत अधिक समय व श्रम खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। इस मानसिकता के कारण न तो अध्यापक ढंग से हिंदी पढ़ाने में ध्यान देते हैं और न अभिभावक ही बच्चों को इसपर ध्यान देने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि कोई बच्चा यदि हिंदी में अधिक रुचि ले रहा हो तो उसे अभिभावकों से हिंदी की बजाय गणित आदि विषयों के जरूरी होने और उनपर जोर लगाने की नसीहत मिल जाती है।
हिंदी विषय पर ध्यान न देने के कारण छात्र इसके अध्ययन को लेकर कोई रणनीति नहीं बना पाते। हिंदी में साहित्यिक पाठ के अलावा व्याकरण का भी एक भाग होता है, लेकिन परीक्षा के समय जल्दबाजी में छात्र अक्सर साहित्यिक पाठों के तो प्रश्नोत्तर रटकर काम चला लेते हैं, मगर व्याकरण वाले हिस्से को यथोचित समय देकर समझ नहीं पाते। हिंदी व्याकरण को लेकर छात्रों के अज्ञान और अगम्भीरता का आलम यह है कि बहुतायत छात्रों को नाउन-प्रोनाउनतो पता होता है, मगर संज्ञा-सर्वनामपूछने पर बगले झाँकने लगते हैं। यही छात्र जब आगे विश्वविद्यालयी अध्ययन में पहुँचते हैं, तो वहां भी यह भाषाई अज्ञान उनके साथ बना रहता है। ‘की’ और ‘कि’ का भेद न होना, अनुस्वार के उपयोग में नासमझी, अल्पविराम और पूर्णविराम के दोष सहित वाक्य-विन्यास की समस्याएँ तक ऐसे छात्रों की लेखनी में प्रायः दृष्टिगत होती हैं। इस पूरी समस्या के मूल में हिंदी भाषा के प्रति छात्र के घर से विद्यालय तक व्याप्त अगंभीरता ही कारण है और इस अगंभीरता के पीछे अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का बड़ा हाथ है, जिसमें सिवाय हिंदी किताब के बाकी पूरी पाठ्यसामग्री अंग्रेजी में होती है। इस स्थिति में हिंदी का हाशिये की भाषा बनकर रह जाना स्वाभाविक है।
यहाँ महात्मा गांधी का उल्लेख समीचीन होगा। गांधीजी कितने उदार थे, यह कहने की जरूरत नहीं, परंतु भाषा के मामले में वे अंग्रेजी के प्रति किसी प्रकार की उदारता के पक्ष में नहीं थे। हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा, करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी।अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है।‘ इस गुलामी से मुक्ति के लिए गांधी का मत था कि भारतीय भाषाओं को चमकाना चाहिए और हिंदी तो सबको आनी चाहिए। गांधीजी यह बात उस दौर में कह रहे थे, जब देश में विदेशी शासन था, परन्तु स्वशासन स्थापित होने के बाद भी हमने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि आज अच्छी पढ़ाई का मतलब अंग्रेजी माना जा चुका है। देश में अंग्रेजी का प्रभाव ऐसा हो गया है कि कोई साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी अंग्रेजी में चार बातें बोलकर लोगों के बीच अपना एक अलग औरा बना लेता है जबकि हिंदी बोलने वाले ज्ञानी व्यक्ति को भी वैसा महत्व नहीं मिलता। यह एक विदेशी भाषा की मानसिक गुलामी के अतिरिक्त और क्या है?
सवाल उठता है कि एक हिंदी भाषी देश में हिंदी में ही हर विषय की शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त की जा सकती? तर्क दिया जाता है कि विज्ञान और अभियांत्रिकी जैसे विषयों के अध्ययन के लिए अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है, इसलिए अंग्रेजी आवश्यक है। ऐसे में, सवाल उठता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी उस सामग्री का हिंदी रूपांतरण क्यों नहीं किया जा सका? जाहिर है, इस दिशा में काम करने की इच्छाशक्ति ही हमारी सरकारों में नहीं है। ऊपर से शुरू हुई ये समस्या ही नीचे तक पहुंचकर यह स्थिति उत्पन्न कर रही है कि एक हिंदी भाषी राज्य में ही लाखों की संख्या में छात्र हिंदी में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।