- पीयूष द्विवेदी भारत
देश
में हिंदी को लेकर चलने वाली समकालीन चर्चाओं में मोटे तौर पर दो पक्ष दिखाई देते
हैं। एक, जो यह मानता है कि देश में हिंदी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि उसे
देश के अहिंदीभाषी राज्यों में पहुंचाने के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया जा रहा। दूसरा
पक्ष मानता है कि देश में हिंदी की हालत बेहतर हो रही है और अब वो दुनिया में भी
अपनी धमक बढ़ाने लगी है। परन्तु, इस भाषाई विमर्श की परिधि से बाहर हिंदी की जो
जमीनी स्थिति है, वो उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्य की बोर्ड परीक्षाओं के
परिणामों में गत वर्ष भी सामने आई थी और अबकी भी आई है। बीते वर्ष राज्य की दसवीं
और बारहवीं की परीक्षा में लगभग दस लाख बच्चे हिंदी में अनुत्तीर्ण हो गए थे, तो
माना गया कि इस वर्ष यह हो गया होगा, आगे स्थिति सुधर जाएगी। परन्तु, इसबार अभी जब
परीक्षा परिणाम आए तो यह आंकड़ा जरा-सी कमी के साथ आठ लाख के करीब सामने आया।
आंकड़ों में कमी को लेकर कुछ लोग यह कह सकते हैं कि स्थिति में सुधार तो आया है,
परन्तु प्रश्न ये है कि देश के सबसे बड़े हिंदी भाषी राज्य में हिंदी को लेकर यह
स्थिति पैदा ही क्यों हुई?
अतः हिंदी पर होने वाली चर्चाओं में बात अहिंदीभाषी राज्यों में हिंदी के प्रसार या हिंदी की वैश्विक धमक से पहले इस बिंदु पर होनी चाहिए कि एक हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी की शैक्षिक स्थिति ऐसी क्यों हो गयी है? हिंदी का कायाकल्प करने वाले युगांतकारी लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कथा-सम्राट प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षरों की जन्मभूमि यूपी में इस तरह लाखों की तादाद में छात्रों का हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना, निश्चित रूप से अपनी भाषा के प्रति हमारी निष्ठा और नीयत पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
अतः हिंदी पर होने वाली चर्चाओं में बात अहिंदीभाषी राज्यों में हिंदी के प्रसार या हिंदी की वैश्विक धमक से पहले इस बिंदु पर होनी चाहिए कि एक हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी की शैक्षिक स्थिति ऐसी क्यों हो गयी है? हिंदी का कायाकल्प करने वाले युगांतकारी लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कथा-सम्राट प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षरों की जन्मभूमि यूपी में इस तरह लाखों की तादाद में छात्रों का हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना, निश्चित रूप से अपनी भाषा के प्रति हमारी निष्ठा और नीयत पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
दरअसल
हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी विषय को लेकर अभिभावकों और अध्यापकों से होते हुए
छात्रों तक में यह मानसिकता गहरे पैठी हुई है कि ये आसान विषय है और इसके अध्ययन
में बहुत अधिक समय व श्रम खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। इस मानसिकता के कारण न
तो अध्यापक ढंग से हिंदी पढ़ाने में ध्यान देते हैं और न अभिभावक ही बच्चों को इसपर
ध्यान देने के लिए प्रेरित करते हैं,
बल्कि कोई बच्चा यदि
हिंदी में अधिक रुचि ले रहा हो तो उसे अभिभावकों से हिंदी की बजाय गणित आदि विषयों
के जरूरी होने और उनपर जोर लगाने की नसीहत मिल जाती है।
हिंदी
विषय पर ध्यान न देने के कारण छात्र इसके अध्ययन को लेकर कोई रणनीति नहीं बना
पाते। हिंदी में साहित्यिक पाठ के अलावा व्याकरण का भी एक भाग होता है, लेकिन
परीक्षा के समय जल्दबाजी में छात्र अक्सर साहित्यिक पाठों के तो प्रश्नोत्तर रटकर
काम चला लेते हैं, मगर व्याकरण वाले हिस्से को यथोचित समय देकर समझ नहीं
पाते। हिंदी व्याकरण को लेकर छात्रों के अज्ञान और अगम्भीरता का आलम यह है कि
बहुतायत छात्रों को ‘नाउन-प्रोनाउन’ तो
पता होता है, मगर ‘संज्ञा-सर्वनाम’ पूछने
पर बगले झाँकने लगते हैं। यही छात्र जब आगे विश्वविद्यालयी अध्ययन में पहुँचते
हैं, तो वहां भी यह भाषाई अज्ञान उनके साथ बना रहता है। ‘की’ और ‘कि’ का भेद न
होना, अनुस्वार के उपयोग में नासमझी, अल्पविराम और पूर्णविराम के दोष सहित
वाक्य-विन्यास की समस्याएँ तक ऐसे छात्रों की लेखनी में प्रायः दृष्टिगत होती हैं।
इस पूरी समस्या के मूल में हिंदी भाषा के प्रति छात्र के घर से विद्यालय तक
व्याप्त अगंभीरता ही कारण है
और इस अगंभीरता के पीछे
अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का बड़ा हाथ है, जिसमें सिवाय हिंदी किताब के बाकी पूरी
पाठ्यसामग्री अंग्रेजी में होती है। इस स्थिति में हिंदी का हाशिये की भाषा बनकर
रह जाना स्वाभाविक है।
यहाँ
महात्मा गांधी का उल्लेख समीचीन होगा। गांधीजी कितने उदार थे, यह कहने की जरूरत
नहीं, परंतु भाषा के मामले में वे अंग्रेजी के प्रति किसी प्रकार की उदारता के
पक्ष में नहीं थे। हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा, ‘करोड़ों
लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस
शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी।…अंग्रेजी
शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है।‘ इस गुलामी से मुक्ति के लिए
गांधी का मत था कि भारतीय भाषाओं को चमकाना चाहिए और हिंदी तो सबको आनी चाहिए।
गांधीजी यह बात उस दौर में कह रहे थे, जब देश में विदेशी शासन था, परन्तु स्वशासन
स्थापित होने के बाद भी हमने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि आज अच्छी पढ़ाई का मतलब अंग्रेजी माना
जा चुका है। देश में अंग्रेजी का प्रभाव ऐसा हो गया है कि कोई साधारण ज्ञान रखने
वाला व्यक्ति भी अंग्रेजी में चार बातें बोलकर लोगों के बीच अपना एक अलग औरा बना
लेता है जबकि हिंदी बोलने वाले ज्ञानी व्यक्ति को भी वैसा महत्व नहीं मिलता। यह एक
विदेशी भाषा की मानसिक गुलामी के अतिरिक्त और क्या है?
सवाल
उठता है कि एक हिंदी भाषी देश में हिंदी में ही हर विषय की शिक्षा क्यों नहीं
प्राप्त की जा सकती? तर्क दिया जाता है कि विज्ञान और अभियांत्रिकी जैसे
विषयों के अध्ययन के लिए अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है, इसलिए
अंग्रेजी आवश्यक है। ऐसे में, सवाल उठता है कि आजादी के सत्तर साल बाद
भी उस सामग्री का हिंदी रूपांतरण क्यों नहीं किया जा सका? जाहिर
है, इस दिशा में काम करने की इच्छाशक्ति ही हमारी सरकारों
में नहीं है। ऊपर से शुरू हुई ये समस्या ही नीचे तक पहुंचकर यह स्थिति उत्पन्न कर
रही है कि एक हिंदी भाषी राज्य में ही लाखों की संख्या में छात्र हिंदी में
अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
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