शनिवार, 29 नवंबर 2014

कलंकित होता क्रिकेट [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
यह सही है कि आईपीएल ने न सिर्फ भारतीय बल्कि विश्व क्रिकेट का काफी हित किया है, इसके जरिए तमाम खेल प्रतिभाएं निखरकर देश व दुनिया  के सामने आई हैं. जडेजा, आश्विन से लेकर शिखर धवन, अम्बाती रायडू तक तमाम ऐसे खिलाड़ी हैं जो आईपीएल के जरिये ही अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में भी अपना मुकाम बना सके हैं. ये तो आईपीएल के उजले  पक्ष हो गए, लेकिन इसी आईपीएल के स्याह पक्ष भी हैं. ऐसे स्याह पक्ष जिनकी कालिमा से  आईपीएल का सारा उजला पक्ष धूमिल हो जाता है. हम बात कर रहे हैं आईपीएल फिक्सिंग प्रकरण की जिसकी जांच सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में हो रही है. इस प्रकरण पर नज़र जाते ही न सिर्फ इस देश में धर्म माना जाने वाला क्रिकेट कलंकित दिखने लगता है बल्कि क्रिकेट प्रेमियों का इसपर से विश्वास भी डोल जाता है. दरअसल यह मामला तब शुरू हुआ जब पिछले साल मई में राजस्थान रॉयल्स टीम के तीन खिलाड़ियों को स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया. इसके बाद सट्टेबाजों से सम्बन्ध को लेकर बिंदु दारा सिंह भी पकड़े गए. इनसे पूछताछ के बाद इसमें आईपीएल की एक टीम चेन्नई सुपर किंग के मालिक एन श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन की भी पुलिस के सामने पेशी हुई. फिर बीसीसीआई ने दो रिटायर्ड जजों की सदस्यता वाली एक जांच बैठाई जिन्होंने अपनी जांच में सबकुछ  पाक साफ़ घोषित कर दिया. इन्हीं सब प्रकरणों के बाद जैसे-तैसे बढ़ते हुए मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा तो उसके द्वारा इस मामले की निष्पक्ष व स्पष्ट जांच के लिए जस्टिस मुद्गल समिति का गठन कर दिया गया. अब इस मुद्गल समिति की जांच में आईपीएल की जो तस्वीर धीरे-धीरे सामने आ रही है, उसने न सिर्फ क्रिकेट को शर्मसार किया है बल्कि दुनिया के सबसे ताकतवर क्रिकेट बोर्ड को सवालों के घेरे में भी ला दिया है. मुद्गल समिति ने जो जांच रिपोर्ट न्यायालय में पेश की उसमे  खिलाड़ियों व क्रिकेट अधिकारियों आदि के कुल १३ नामों का जिक्र है. हालांकि अभी सिर्फ चार नाम ही सार्वजनिक हुए हैं और किसी खिलाड़ी के नाम को सार्वजनिक करने पर न्यायालय ने रोक लगाई हुई है. चार सार्वजनिक नामों में एन श्रीनिवासन, उनके दामाद मयप्पन, राजस्थान रॉयल के सह मालिक राज कुंद्रा व पूर्व आईपीएल अधिकारी सुन्दर रमन के नाम हैं. इसी सन्दर्भ कोर्ट द्वारा एन श्रीनिवासन को बीसीसीआई का अध्यक्ष पद  व आईपीएल टीम का मालिकाना हक़ दोनों रखने के कारण ‘हितों के टकराव’ की स्थिति पैदा होने की बात कही गई. कोर्ट का यह कहना सही भी है क्योंकि अब बीसीसीआई अध्यक्ष के  नाते जहाँ श्रीनिवासन का दायित्व क्रिकेट को साफ़-सुथरा व विश्वसनीय रखने का होगा, वहीँ बतौर टीम मालिक उनका उदेश्य किसी भी हालत में आईपीएल को जीतना ही रहेगा. यह भी सामने आया है कि आईपीएल में फिक्सिंग के बारे में श्रीनिवासन को जानकारी होती थी. ऐसे में यह क्यों न माना जाय कि एन श्रीनिवासन ने बतौर बीसीसीआई अध्यक्ष अपने पद का दुरूपयोग कर अपनी टीम चेन्नई के जीतने में सहायता की होगी ? स्पष्ट है कि यहाँ हितों का टकराव जैसा मामला रहा है और इस टकराव में कहीं न कहीं श्रीनिवासन ने क्रिकेट के हित की बजाय अपने हित को ज्यादा तवज्जो दिया है. इसीलिए कोर्ट द्वारा श्रीनिवासन की टीम चेन्नई सुपर किंग्स के लिए कहा गया है कि इस टीम को बिना किसी जांच के आईपीएल से बाहर कर देना चाहिए. अब चेन्नई टीम का क्या होगा, यह निर्णय तो बीसीसीआई के हाथ है, लेकिन सही यही होता कि चेन्नई  को बाहर करने की बजाय सिर्फ उन्हीं लोगों पर कारवाई होती जिन्होंने इस प्रतिभावान टीम को फिक्सिंग के कीचड़ में डालकर ख़राब किया. अब जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि बतौर बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन ने अपनी शक्तियों का काफी दुरूपयोग किया है. इनके द्वारा शक्तियों का दुरूपयोग कहीं न कहीं इस मामले में भी देखा जा सकता है कि  बीसीसीआई फिक्सिंग प्रकरण की जांच के लिए दो रिटायर्ड जजों की अपनी जांच बिठाती है और उस जांच में सबकुछ पाक साफ़ बताया जाता है, जबकि अब जब वही जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित मुद्गल समिति कर रही है तो उपर्युक्त तमाम गोरखधंधे उजागर हुए हैं. कहना गलत नहीं होगा कि बीसीसीआई द्वारा बैठाई गई जांच में श्रीनिवासन के प्रभाववश जानबूझकर चीजों को छिपाया गया व मामले को ख़त्म करने की कोशिश की गई. ये तो शुक्र है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए जांच दल गठित कर दिया अन्यथा क्रिकेट के भीतर मौजूद इस कालिख और इसको लगातार गन्दा कर रहे लोगों का पता शायद देश को चलता ही नहीं.

    इन बातों को देखते हुए क्रिकेट जगत में से ऐसी भी आवाजें उठ रही हैं कि यह सब झमेला आईपीएल के कारण हो रहा है, इसलिए सबसे पहले उसे ही बंद कर देना चाहिए. हालांकि यह मांग किसी लिहाज से तर्कसंगत या उचित नहीं प्रतीत होती. क्योंकि ऐसा कैसे माना जाय कि आईपीएल को बंद कर देने से फिक्सिंग रुक जाएगी और वो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट को प्रभावित नहीं करेगी ? तात्पर्य यह है कि आईपीएल को बंद कर देना इस समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि यह समस्या आईपीएल से कहीं अधिक भारतीय क्रिकेट और क्रिकेट बोर्ड की विश्वसनीयता, शुचिता और निष्ठा को प्रभावित करने वाली है. इस समस्या से निपटने के लिए आज सबसे बड़ी जरूरत भारतीय क्रिकेट बोर्ड को राजनीतिकरण से मुक्त करने की है. क्रिकेट बोर्ड के राजनीतिकरण  का मूल कारण यह विडम्बना है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष अक्सर ऐसे व्यक्ति बनते रहे हैं जिनका क्रिकेट से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता. कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि से होता है तो कोई बड़ा उद्योगपति. भारतीय क्रिकेट बोर्ड के प्रथम  अध्यक्ष आर ई ग्रांट गोवन से लेकर अबतक राजनीति और उद्योग से जुड़े लोगों का ही भारतीय क्रिकेट बोर्ड पर कब्ज़ा रहा है. अब ऐसे लोगों ने क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष पद पर बैठकर और कुछ तो नहीं, बस भारतीय क्रिकेट बोर्ड का राजनीतिकरण ही किया है. अब क्रिकेट बोर्ड कोई राजनीतिक संस्था तो है नहीं, यह  क्रिकेट की संस्था है और इसका नेतृत्व क्रिकेट से जुड़े व्यक्ति को ही करना चाहिए.  अतः जरूरत है कि बोर्ड के संविधान में परिवर्तन कर अब से यह अनिवार्य किया जाय कि बोर्ड का अध्यक्ष कोई क्रिकेट से जुड़ा व्यक्ति ही बनेगा. ऐसा करके भारतीय क्रिकेट बोर्ड के राजनीतिकरण को रोका जा सकता है. इसके अलावा जरूरत यह भी है कि फिक्सिंग को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं व ऐसा करने वालों को सख्त से सख्त सजा देकर आदर्श स्थापित किया जाए जिससे कि आगे कोई ऐसा न कर सके. अगर भारत सरकार इस विषय में गंभीर होकर उक्त कदम उठाती है तो ही इस देश में धर्म समझे जाने वाले क्रिकेट को उसकी पुरानी प्रतिष्ठा पुनः वापस मिल पाएगी.

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

मेरा भोलापन लौटा दो..



















  • पीयूष द्विवेदी भारत 
ये ज्ञान-विज्ञान भी ले लो
ये मान-सम्मान भी ले लो
इस जहाँ का झूठा-मूठा
मेरा अभिमान भी ले लो
जहाँ जलन, क्रोध से मुक्त रहूँ, मुझे वो बचपन लौटा दो
मेरा भोलापन लौटा दो, मेरा भोलापन लौटा दो

मेरा ये रूप भी ले लो
शोहरत अनूप भी ले लो
इस उम्र की एक और देन
ये ह्रदय कुरूप भी ले लो
जहाँ दुश्मन-दोस्त बराबर हों, वो अपनापन लौटा दो
मेरा भोलापन लौटा दो, मेरा भोलापन लौटा दो

ये झूठ-फरेब भी ले लो
हर बात उरेब भी ले लो
किसी दूसरे का हक़ लेकर
भरी ये जेब भी ले लो
जहाँ झूठ-फरेब का नाम न हो, वो सच्चापन लौटा दो
मेरा भोलापन लौटा दो, मेरा भोलापन लौटा दो

ये हास-कुहास भी ले लो
ये जीवन ख़ास भी ले लो
इस बदन की अपराध भरी
हर इक सांस भी ले लो
जहाँ अपराध नहीं, गलती करते, वो लड़कपन लौटा दो
मेरा भोलापन लौटा दो, मेरा भोलापन लौटा दो

शनिवार, 22 नवंबर 2014

खुद की मुश्किलें बढ़ा लिए रामपाल [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
१४ दिन के भारी तमाशे के बाद आख़िरकार पुलिस ने तथाकथित संत रामपाल को उनके सतलोक आश्रम से गिरफ्तार कर ही लिया. लेकिन, रामपाल द्वारा कोर्ट में पेश होने से बचने के लिए जिस तरह से अपने समर्थकों के जरिये तमाम नौटंकियों से लेकर हिंसा तक करवाई गई, उससे न सिर्फ देश के संविधान सम्मत कानून का अपमान हुआ बल्कि संत समुदाय के माथे पर  कालिख भी पुती. इस पूरे मामले पर अगर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें तो १९९५ में सिंचाई विभाग से जेई का पद  छोड़कर कबीरपंथी संत बने रामपाल ने सन २००६ में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती पर कुछ गलत टिप्पणी की जिसके परिणामस्वरूप आर्य समाजियों व रामपाल के बीच भारी झड़प हुई जिसमे एक युवक की जान चली गई. बस तभी से इस विवाद ने जन्म लिया. हालांकि तत्कालीन दौर में तो इस मामले में रामपाल को न्यायालय द्वारा माफ़ी दे दी गई लेकिन आर्य समाजी लोगों ने इसके विरोध में काफी उत्पात मचाया. परिणामतः इस साल जुलाई में रामपाल को उक्त हत्या के मामले में मिली माफ़ी रद्द कर रोहतक कोर्ट में उनकी हाजिरी लगवाई गई. इस दौरान उनके समर्थकों ने अदालत परिषर में वकील के साथ ही विवाद कर लिया जिससे यह मामला उच्च न्यायालय में जा पहुँचा और उच्च न्यायालय ने अदालत की अवमानना के लिए दोषी ठहराते हुए रामपाल को अदालत में पेश होने का आदेश दे दिया. बस इसी मामले में रामपाल को अदालत में पेश होना था लेकिन वे कभी बीमारी तो कभी कुछ और, तरह-तरह के बहाने बनाकर अदालत में पेश होने से बचने की कवायद कर रहे हैं. इसीके मद्देनज़र न्यायालय ने पुलिस को यह आदेश दिया कि जैसे भी हो वो रामपाल को गिरफ्तार कर आगामी शुक्रवार तक न्यायालय में पेश करे. पर इस मामले में पुलिस पर ढुलमुल रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए तमाम लोगों द्वारा उसकी आलोचना की गई. लेकिन इस प्रकरण में पुलिस की आलोचना करने वालों को केवल आँख बंद करके पुलिस की आलोचना करने की बजाय कुछ बातों पर गौर करना चाहिए. गौर करें तो पुलिस के लिए रामपाल को हिरासत में लेकर अदालत में पेश करना कत्तई आसन नहीं था. कारण कि एक तो रामपाल अपने हथियारबंद कमांडों के साथ तमाम लोगों को बंधक बना आश्रम के अन्दर छिपकर बैठे थे, उसपर उनके कुछेक अंधसमर्थकों की भारी भीड़ भी पुलिस के लिए बेहद मुश्किल खड़ी कर रही थी. अब पुलिस के साथ समस्या ये थी  कि अगर वो कड़ा रुख अख्तियार कर फायरिंग आदि के जरिये आश्रम में घुसती  तो इसमें निर्दोष लोगों की जान जाने का काफी खतरा होता. कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि पुलिस के पास यही विकल्प था कि वो धीरे-धीरे रामपाल के समर्थकों की भीड़ को वहां से हटाए और फिर रामपाल को गिरफ्तार करे. पुलिस ने किया भी वही. अभी इतने संयम के बाद भी ६ लोगों की लाशें आश्रम से बरामद हुई. यानि कि इतना बचने के बाद भी कुछ न कुछ हिंसा तो हो ही गई. मगर फिर भी, इस पूरे प्रकरण में पुलिस की आलोचना की बजाय उसके संयम की प्रशंसा ही की जानी चाहिए. उसने वही किया जो किया जा सकता था.  
    गंभीर सवाल यह उठता है कि रामपाल अपने अंध समर्थकों व हथियारबंद सुरक्षा कर्मियों की आड़ लेकर देश के क़ानून का जो मजाक उड़ा रहे थे, क्या वो एक संत का आचरण था ? रामपाल खुद को जिन कबीर का अनुयायी संत मानते हैं क्या उन कबीर ने यही कहा था कि अपनी रक्षा के लिए निर्दोष महिलाओं-बच्चों-बूढों को ढाल बनाकर खुद छिप जाना चाहिए ? जाहिर है, इन प्रश्नों का उत्तर रामपाल जैसे कथित और नकली संत के पास नहीं होगा. वैसे, अगर विचार करें तो आश्रम के भीतर छिपकर बैठ के पुलिस के साथ अपने समर्थकों की  झड़प करवाकर रामपाल आखिर क्या सिद्ध करना चाहते थे ?  अगर इसके जरिये उनकी मंशा अपना शक्ति प्रदर्शन कर न्यायालय और प्रशासन को भयभीत करने की थी  तो संभव है कि वे अबतक इस मुगालते से बाहर आ गए होंगे. क्योंकि उनकी उक्त नौटंकी उनकी गिरफ्तारी तो न्हिन्न टाल सकी, उलटे उनकी मुश्किलें और बढ़ाएगी. रामपाल को तो इस देश में सबसे अधिक समर्थक होने का दावा करने वाले एक तथाकथित संत आसाराम से सबक लेना चाहिए था कि कैसे उन्होंने भी अपनी गिरफ़्तारी रोकने के लिए अपने समर्थकों से ऐसा ही कुछ बवाल करवाया था, लेकिन अपनी गिरफ्तारी को नहीं रोक सके. न केवल उनकी गिरफ़्तारी हुई बल्कि साल भर से बिना किसी सजा के जेल में भी पड़े हैं. जमानत तक नहीं मिल रही और अब उनके सब समर्थक भी शांत हैं. कोई उनकी खोज-खबर नहीं ले रहा. कहने का आशय यह है कि एकबार क़ानून के चंगुल में फंसने के बाद आप कितने भी समर्थक वाले हों, आपको कोई समर्थक पूछने वाला नहीं. इसलिए उचित हुआ होता कि आसाराम से सबक लेते हुए रामपाल अपनी यह नौटंकी बंद करके पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिए होते. न्यायालय में पेश होकर अपना पक्ष रखते, अगर उनके पक्ष में दम होता तो सब आरोपों को पार कर वे साफ़ और बेदाग होकर बाहर आते. पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और मुट्ठी भर समर्थकों के दम इस देश की क़ानून व्यवस्था को चुनौती देते रहे. अब ये तो समय ही बताएगा कि इस कुकृत्य का उन्हें कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है.

बुधवार, 19 नवंबर 2014

दूध की शुद्धता का सवाल [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, दबंग दुनिया. नेशनल दुनिया और प्रजातंत्र लाइव में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला
यों तो दूध को सेहत के लिए अमृत कहा जाता है, पर आज अधिकाधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में इस अमृत समान दूध में विभिन्न प्रकार की मिलावटें कर इसके व्यापारियों द्वारा इसे विष तुल्य बना दिया जा रहा है. कम से कम लागत में अधिकाधिक मुनाफा कमाने की  दुष्प्रवृत्ति के कारण दूध व्यापारियों द्वारा ग्राहक की सेहत से बेपरवाह इसमें पानी से लेकर डिटर्जेंट आदि हानिकारक चीजें तक मिलाई जा रही हैं. दूध में मिलावट की ये समस्या कितनी गंभीर है इसे इसीसे समझा जा सकता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसपर जब-तब राज्य व केंद्र सरकारों को तरह-तरह के निर्देश दिए जाते रहे हैं. अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दूध में मिलावट की समस्या को बेहद गंभीर बताते हुए केंद्र सरकार से कहा गया है कि वो ‘खाद्य संरक्षा व मानक क़ानून’ में संशोधन के लिए विचार करे. इसके अलावा न्यायालय ने राज्य सरकारों को भी अपने-अपने राज्य में दूध में मिलावट की स्थिति तथा इससे सम्बंधित क़ानून की मौजूदा स्थिति में संशोधन करने या नया क़ानून बनाने आदि सभी पहलुओं पर विचार करके न्यायालय में रिपोर्ट पेश करने को कहा है. उक्त सभी कार्यों के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को चार सप्ताह का समय दिया गया है. इससे पहले भी इसी साल फ़रवरी में शीर्ष न्यायालय द्वारा दूध में मिलावट पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों से सम्बंधित क़ानून को सख्त बनाने के लिए कहा गया था. लेकिन इस दिशा में अबतक कोई प्रगति देखने को नहीं मिली और देश के लगभग सभी राज्यों में दूध में मिलावट बदस्तूर जारी है.
नेशनल दुनिया
   देश में दूध में मिलावट की स्थिति कितनी भयावह है, इसको अभी हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ आंकड़ों के जरिये बखूबी समझा जा सकता है. शुद्ध दूध की उपलब्धता के सम्बन्ध में खाद्य सुरक्षा एवं मानक अथारिटी (एफएसएसएआई) द्वारा अभी हाल ही में किए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में जो तस्वीर सामने आई है, वो न सिर्फ चौंकाती है बल्कि डराती भी है. इस सर्वेक्षण देश भर में परिक्षण किए गए दूध के नमूनों में से ७० फिसद नमूनों में मिलावट पाई गई. चौंकाने वाली बात तो ये है कि इस सर्वेक्षण के अंतर्गत बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा, मिजोरम आदि राज्यों के दूध के नमूनों में से तो एक भी नमूना दूध की शुद्धता के मानक के अनुरूप नहीं ठहरा. अर्थात कि सब में भारी मात्रा में मिलावट पाई गई.
प्रजातंत्र लाइव
इनके अतिरिक्त पंजाब के दूध के नमूने में ८१, दिल्ली में ७०, गुजरात में ८९, महाराष्ट्र में ६५, राजस्थान में ७६, जम्मू-कश्मीर में ८३ और मध्य प्रदेश में ४८ प्रतिशत मिलावट पाई गई. गोवा और पुडुचेरी मात्र दो ऐसे प्रदेश हैं जिनके के नमूने शत-प्रतिशत शुद्ध व तय मानकों के अनुरूप थे. मिलावट के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं में सर्वाधिक मात्रा पानी की है. पानी की मिलावट के पीछे दूध व्यापारियों का सिर्फ इतना उद्देश्य होता है कि कम दूध को ज्यादा करके अधिक मुनाफा कमाया जा सके. अब मुनाफा कमाने के अन्धोत्साह में ये व्यापारी  शायद यह भूल जाते हैं कि पानी की मिलावट से दूध की गुणवत्ता तो नष्ट हो ही जाती है, पानी में मौजूद कीटाणु आदि दूध में पहुंचकर लोगों के स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचा सकते हैं. पर इसकी तो छोड़िये, दूध व्यापारियों पर तो मुनाफाखोरी का ऐसा भूत सवार  है कि वे पानी के अलावा डिटर्जेंट से लेकर यूरिया जैसे पदार्थों तक को भी दूध में मिलाने से तनिक भी नहीं कतरा रहे. उपर्युक्त सर्वेक्षण में ही पाया गया है कि दूध के ४६ प्रतिशत नमूनों में जहाँ पानी की मिलावट पाई गई, वहीँ बाकी में डिटर्जेंट, यूरिया आदि की. इन सब आंकड़ों के बाद यह समझना बेहद आसान है कि देश में दूध में मिलावट का धंधा किस स्तर पर चल रहा है. पर विडम्बना ये है कि देश के लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े इस बेहद गंभीर मसले को लेकर देश की शीर्ष अदालत जितनी गंभीर है, उसकी तुलना में इस देश की सरकारें कुछ भी नहीं. सरकारों की अगम्भीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई दफे कहे जाने के बावजूद केंद्र या राज्य सरकारों ने दूध मिलावट की रोकथाम के लिए सम्बंधित क़ानून को सख्त बनाने की दिशा में अबतक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. बहरहाल न्यायालय ने अब यह उम्मीद जताई है कि मौजूदा सरकार संसद के आगामी सत्र में इस सम्बन्ध में क़ानून संशोधन करेगी.

दबंग दुनिया 

   अगर एक नज़र दूध मिलावट के लिए मौजूद क़ानून व सजा आदि पर डालें तो हम समझ सकते हैं कि यहाँ मामला कितना लचर है. अभी दूध में मिलावट करने व इसकी बिक्री करने के लिए न्यूनतम छः महीने की सजा का प्रावधान है जो कि इस अपराध के लिहाज से बेहद कम है. मिलावट का यह अपराध लोगों के जीवन को खतरे में डालने के अपराध जैसा है, अतः इसके लिए क़ानून व सजा आदि एकदम सख्त होनी चाहिए.  पर दूध मिलावट का ये क़ानून ऐसा है कि मिलावटखोर के पकड़े जाने पर भी इसमें सजा की नौबत आती ही नहीं है. क्योंकि इस क़ानून में मिलावट करने वालों के लिए प्राथमिकी दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है. अब जब प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होती, तो पुलिस कार्रवाई क्योंकर करे. आख़िरकार अधिकाधिक मामले लेन-देन के द्वारा निपटा दिए जाते हैं. इन्ही सब विसंगतियों के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि दूध मिलावट के लिए मौजूदा क़ानून में समुचित संशोधन किए जाएं व इसकी सजा को उम्रकैद कर दिया जाय, लेकिन सरकारें जाने क्यों इसको लेकर अबतक कुछ नहीं की हैं. आज जरूरत ये है कि दूध मिलावट से सम्बंधित क़ानून में संशोधन कर प्राथमिकी दर्ज करने की व्यवस्था लाई जाय तथा इसकी सजा को भी सख्त किया जाय. साथ ही, स्वास्थ्य विभाग में फुड इंस्पेक्टरों की किल्लत को भी दूर करने की जरूरत है जिससे कि मिलावटखोरों के खिलाफ सही ढंग से कारवाई करते हुए उनपर नकेल कसी जा सके. इन सब चीजों के लिए पहली आवश्यकता यही है कि हमारी सरकारें इस मसले की गंभीरता को समझें कि ये इस देश के नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है. अगर केंद्र व राज्य सरकारें इस विषय को लेकर गंभीर होते हुए दृढ इच्छाशक्ति के साथ दूध में मिलावटखोरी की रोकथाम के लिए उक्त कदम उठाती हैं तो धीरे-धीरे ही सही इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है. 

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

जब राम ने मारा कंस को और हुई महाभारत...

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हजारों वर्ष पहले की बात है, अयोध्या में दशरथ का राज था। उनकी तीन रानियाँ थीं। राम उन्हिकी पहली रानी के लड़के थे। राजा की बाकी दो रानियों के भी तीन लड़के थे। भरत, लक्ष्मण और शत्रुहन। राजा दशरथ राम को सिंहासन देना चाहते थे, इसलिए उनकी दूसरी रानी मंथरा ने क्षल से राजा को मार दिया और अपने बेटे भरत (इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा) को राजा बनवाने का आयोजन करने लगी। राम ने इसका विरोध किया तो उसने सैनिकों से राम को भी जंगल में ले जाकर मारने को कह दिया। सैनिक राम को जंगल में लेकर तो गए, लेकिन उन्हें दया आ गई और उन्होंने राम को जिन्दा छोड़कर कहा कि कहीं दूर चले जाओ अन्यथा मारे जाओगे। राम जंगल में भटकते-भटकते लंका पहुँच गए। यहाँ उनकी मुलाकात सीता से हुई। लंका का राजा कंस बड़ा दुष्ट था और अपनी प्रजा पर बहुत अत्याचार करता था। वहां की प्रजा में केवल कृष्ण ही उसके विरुद्ध आवाज उठा रहे थे। अब राम जब वहां पहुंचे तो एकदिन कंस के सैनिकों ने उनपर धावा बोल दिया, पर राम ने अपने पराक्रम से उन्हें मार भगाया। राम का पराक्रम देख कृष्ण ने सोचा कि राम के सहयोग से कंस का अंत किया जा सकता है। कृष्ण ने राम से मित्रता कर ली। राम ने कृष्ण को अपनी सारी दुःख-गाथा सुनाई। कृष्ण ने कहा - अगर तुम कंस को मारने में मेरी सहायता करोगे  तो मै भी तुम्हारा राज दिलाने में तुम्हारी मदद करूँगा। फिर क्या था! कृष्ण और राम ने मिलकर लंका के आम लोगों की एक सेना तैयार कर कंस पर धावा बोल दिया। अब इन दो-दो योद्धाओं का सामना कंस नहीं कर सका और मारा गया। कृष्ण  लंका के राजा बन गए। अब उन्होंने अयोध्या के बारे में जानकारी मंगाई तो पता चला कि अयोध्या की सेना लंका की सेना से बहुत बड़ी है। तब काफी सोच-विचारकर कृष्ण ने अपने मित्र और किष्किन्धा के राजा पांच पांडवों से मदद मांगी। इधर राम ने भी हस्तिनापुर के अपने मित्र सुग्रीव, हनुमान आदि को याद किया। और इन सब को इकठ्ठा कर एक बड़ी सेना के साथ राम और कृष्ण ने अयोध्या पर हमला कर दिया। अठ्ठारह दिनों तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ, तमाम क्षल प्रपंच हुए। इस युद्ध में लक्ष्मण और शत्रुहन भरत को धोखा देकर राम के पाले में आ गए। और आखिर में राम और कृष्ण के आगे भरत ने पराजय स्वीकार ली। राम ने उन्हें क्षमा कर दिया। राम का राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने सीता से विवाह भी कर लिया। अठ्ठारह दिनों के इसी राम-कृष्ण और भरत आदि के बीच चले युद्ध को ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य के नाम से जाना जाता है।

आवश्यक सूचना: यह सन २०५० की महाभारत की संक्षिप्त कहानी है। वेंडी डोनिगर से लेकर महिषासुर प्रकरण तक आज जिस तरह से इतिहास का ‘ऑपरेशन’ किया जा रहा है, उसे देखते हुए २०५० में ऐसी किसी महाभारत की कहानी के होने पर कत्तई आश्चर्य नहीं किया जा सकता। फिर भी इससे किसीकी भावनाओं को ठेस पहुंचे तो क्षमा।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

अपनी करनी भुगत रहा पाकिस्तान [डीएनए]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
वाघा सीमा के पास भारत-पाक रिट्रीट समारोह के दौरान पाकिस्तानी क्षेत्र में जिस तरह से आत्मघाती आतंकी हमला हुआ है, वो बेहद चौंकाने वाला है । यह हमला भारतीय सीमा क्षेत्र से महज ५०० मीटर की दूरी पर पाकिस्तानी इलाके में हुआ जिसमे कि तीन पाकिस्तानी  रेंजर्स समेत कुल ५५ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और तमाम लोग घायल भी हुए । आतंकी संगठन अलकायदा से सम्बंधित एक संगठन जुन्दल्ला ने इस हमले की जिम्मेदारी भी ले ली है । हालांकि पाकिस्तान में तो छिटपुट आतंकी हमले अक्सर होते रहते हैं, मगर ये हमला कई कारणों से बेहद बड़ा और कई सवाल खड़े करने वाला है । पहली बात कि ये हमला पाकिस्तानी सीमा क्षेत्र जहाँ पाकिस्तानी सैनिक मौजूद रहते हैं, में हुआ । दूसरी चीज कि ये हमला भारत-पाक रिट्रीट समारोह के अवसर पर हुआ जब पाकिस्तानी सेना आदि के द्वारा अपने क्षेत्र में कथित तौर पर सुरक्षा के विशेष इंतजाम किए गए थे । अब पाकिस्तानी सेना की मौजूदगी और तथाकथित विशेष सुरक्षा इंतजामों के बीच इस तरह के भीषण आतंकी हमले का होना सीधे तौर पर  पाकिस्तान की आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था की लचरता व पाकिस्तान में अत्यंत विकराल रूप ले चुके आतंकियों के हौसले को ही दिखाता है। अगर आपको याद हो तो बीते वर्ष पाकिस्तान के कराची अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर लगातार  दो दिन आतंकियों ने हमला करके तमाम जानें ली थीं । बेहद संघर्ष के बाद पाकिस्तानी जवान उन्हें खदेड़ सके थे । इन सब बातों से यह पूरी तरह से साफ़ है कि आज पाकिस्तान में आतंकी संगठनों की ताकत और हिम्मत आसमान छू रही है और उनके आगे पाकिस्तानी सेना समेत पाकिस्तान की पूरी सुरक्षा व्यवस्था घुटनों के बल नज़र आ रही है। पाकिस्तान में आज स्थिति की भयावहता ये है कि आतंकी जब और जहाँ चाहें हमला कर लोगों की जान ले सकते हैं और उनको कोई नहीं रोक सकता। पाकिस्तान में आतंकियों का ये बोलबाला न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि समूची दुनिया और विशेषतः भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय है। इसका कारण ये है कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है, ऐसे में वहाँ आतंकियों के मजबूत होने की स्थिति में सबसे बड़ा खतरा ये है कि कहीं किसी तरह आतंकी पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने कब्जे में न ले लें। हालांकि पाकिस्तान की तरफ से हमेशा से ये आश्वासन दिया जाता रहा है कि उसके परमाणु हथियार आतंकियों की पहुँच से दूर और एकदम सुरक्षित हैं। लेकिन, आज जिस तरह से पाकिस्तान में आतंकियों के हमले आदि बढ़ गए हैं और पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियां उन्हें रोकने में पूरी तरह से लाचार साबित हो रही हैं, उसे देखते हुए विश्व समुदाय के लिए पाकिस्तान के आश्वासन पर भरोसा करना कहीं से तर्कसंगत नहीं दिखता। लिहाजा, कुल मिलाकर मोटी बात ये है कि आज पाकिस्तान दुनिया के लिए बारूद का ऐसा ढेर बन चुका है, जिसमे जरा सी चिंगारी लगने पर पाकिस्तान के साथ-साथ समूची दुनिया में भी विनाश का तांडव मच सकता है।

   आज पाकिस्तान द्वारा भले ही स्वयं को आतंक से पीड़ित बताते हुए उससे  लड़ाई के नाम पर अमेरिका समेत कई देशों से मोटी रकम प्राप्त की जा रही हो,  लेकिन असल सच्चाई तो ये है कि आज जो आतंकवाद पाकिस्तान के लिए नासूर बन चुका है, उस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरूआती दौर में पालने-पोषने वाला और कोई नहीं, खुद पाकिस्तान ही है। इस बात की पुष्टि भारत समेत अमेरिका आदि देशों द्वारा भी लगातार की जाती रही है । अभी हाल ही में पेंटागन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की श्रेष्ठ सेना का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान आतंकियों की मदद लेता रहा है । इन तथ्यों से स्पष्ट है कि आज पाकिस्तान वही काट रहा है, जो कभी उसने बोया था। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई हो, पाकिस्तानी सेना हो या पाकिस्तानी हुकूमत हो, इनमे से कोई ऐसा नहीं है, जिसने भारत में आतंक फैलाने के लिए आतंकियों को शह नहीं दी हो। भारत में होने वाले अधिकांश आतंकी हमलों में किसी न किसी तरह आईएसआई आदि का हाथ सामने आता रहा है। फिर चाहें वो संसद भवन पर हुआ हमला हो या मुंबई में हुआ २६/११ का हमला या और भी तमाम आतंकी हमले, सभी में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, सेना व पाकिस्तानी हुकूमत की भूमिका पाई गई है। हाँ, ये अलग बात है कि पाकिस्तान बड़ी ही बेशर्मी से अपनी भूमिका की इन साक्ष्यपूर्ण बातों को नकारता रहा है। बहरहाल, पाकिस्तान ने जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए खड़ा किया था, वो भारत को तो कोई बहुत क्षति नहीं पहुंचा सका। बल्कि उल्टे आज वो पाकिस्तान को ही दिन पर दिन लीलता जा रहा है और पाकिस्तानी हुकूमत उसे रोकने के लिए कुछ खास नहीं कर पा रही। पर दुर्भाग्य तो ये है कि इतने के बाद भी अबतक इस संबंध में पूरी तरह से पाकिस्तान की अक्ल पर से परदा नहीं हटा  है। वो अब भी आतंकवाद को लेकर भारत के साथ मिलकर लड़ने की बजाय भारत में आतंकी हमले करवाने की अपनी कोशिशें जारी रखे हुए है। सीमा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा जो आए दिन संघर्ष विराम का उल्लंघन किया जाता है, उसका उद्देश्य यही होता है कि गोलीबारी के बीच कुछ आतंकियों को भारतीय सीमा में घुसा दिया जाए। इसके अलावा अभी कुछ समय पहले ही भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा टुंडा आदि जो कुछ आतंकी पकड़े गए हैं, उनके तार भी पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी से ही जुड़ते नज़र आ रहे हैं। स्पष्ट है कि भारत को तबाह करने के लिए उपजाए अपने आतंकवाद के चक्र में बुरी तरह पिसने के बावजूद पाकिस्तान के रवैये में अब तक कोई विशेष सुधार नहीं आया है। रिट्रीट समारोह मामले में ही उसने आतंकी हमले के बाद तीन दिन तक भारत से रिट्रीट समारोह न करने का आग्रह कर भारत को रोक खुद अचानक ही रिट्रीट समारोह कर लिया। यानी एक और धोखा । उचित तो ये होता कि आतंकियों व तमाम हथकण्डों के जरिये भारत को मिटाने का ख्वाब देखने की बजाय पाकिस्तान पूरी इच्छाशक्ति से भारत के साथ मिलकर आतंक के खिलाफ लड़ता। ऐसा करके ही वो आतंक के चंगुल से स्वयं को बचा सकता है, वरना वो स्वयं तो आतंक से जूझेगा ही, समूची दुनिया को भी परेशानी में डाले रहेगा।

शनिवार, 1 नवंबर 2014

सैन्य आधुनिकीकरण की दिशा में बड़े कदम [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
मोदी सरकार द्वारा भारतीय सेनाओं के लिए ८० हजार करोड़ के आवश्यक साजो-सामान की खरीद व निर्माण का जो निर्णय लिया गया है, वो न सिर्फ हमारी सेनाओं को मजबूती देने वाला है, बल्कि ज़माने से ठण्डे बस्ते में पड़े सेनाओं के आधुनिकीकरण की दिशा में भी बड़ा कदम है। गौरतलब है कि अभी हाल ही में रक्षा खरीद परिषद् की बैठक में ये निर्णय लिया गया है कि देश की तीनों सेनाओं के लिए आवश्यक हथियारों व साजो-सामान की खरीद के लिए ८० हजार करोड़ रूपये खर्च किए जाएंगे। इसके अंतर्गत ५० हजार करोड़ की लागत से नौ सेना के लिए देश में ही ६ पनडुब्बियों का निर्माण किया जाएगा। इसमें प्रधानमंत्री के मेक इन इण्डिया कार्यक्रम का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। थल सेना के लिए इजरायल से ८३५६ टैंक रोधी स्पाइक मिसाईलों व इनके लांचरों की खरीद के लिए   ३२०० करोड़ रूपये रखे गए हैं। इसके अतिरिक्त डोरनियर विमान, इनफेंट्री वाहनों समेत तमाम और चीजों की खरीद का भी निर्णय लिया गया है। इससे पहले भी बीती जुलाई में सत्ता संभालते ही मोदी सरकार द्वारा २१ हजार करोड़ के रक्षा खरीद प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी, जिसके अंतर्गत जंगी जहाजों, गश्ती पोतों आदि के निर्माण का निर्णय लिया गया था। इसके अतिरिक्त बीते अगस्त महीने में सेनाओं को आधुनिक बनाने के लिए की जाने वाली तमाम रक्षा खरीदों के लिए ही १७ हजार करोड़ के मद को भी मंजूरी दी गई। और इन सबके बाद अब ये ८० हजार करोड़ की रक्षा खरीद का ऐलान भी हमारे सामने है। इन सब चीजों से स्पष्ट होता है कि मोदी सरकार पूर्ववर्ती संप्रग सरकार की तरह देश की सेनाओं की आवश्यकताओं को लेकर कोई समझौता करने को कत्तई तैयार नहीं है।
  दरअसल, जिस सेना के हाथ में देश की रक्षा की जिम्मेदारी है, लम्बे समय से आवश्यक उपकरणों के अभाव में उसकी हालत काफी कमजोर सी हो रही है। हालांकि बावजूद इसके ऐसा नहीं है कि हमारी सेनाएं देश की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन फिर भी जब सामने चीन और पाकिस्तान जैसे खतरनाक और संदिग्ध पड़ोसी मौजूद हों, तो देश की सेनाओं का पूरी तरह से मजबूत और आधुनिक उपकरणों से युक्त होना अनिवार्य हो जाता है। गौर करें तो चीन लगातार अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण करता रहा है और आज उसकी सेना का प्रत्येक अंग युद्ध की आधुनिक तकनीक में सिद्धहस्त है। पर संप्रग सरकार के दस साल के शासन काल में तकनिकी प्रक्रियाओं में उलझे रहने व निर्णय न लिए जाने के कारण हमारी सेनाएं पड़ोसी देश चीन की सेनाओं के मुकाबले पीछे काफी चली गयी हैं। यह सही है कि अपने शासन के दौरान संप्रग सरकार ने देश के रक्षा बजट को राजग सरकार के ६० हजार करोड़ से बढ़ाते-बढ़ाते २ लाख करोड़ तक कर दिया, पर हमें यह भी नहीं भूलना चहिए कि इस दौरान वैश्विक स्तर पर रूपया बेहद कमजोर भी हुआ है। इसके अतिरिक्त सवाल यह भी है कि क्या इस बजट का सेना के लिए  कोई विशेष उपयोग हो सका ? क्या यह बजट पूरी तरह से सेना के सशक्तिकरण के काम आया ? इन सवालों का जवाब नकारात्मक ही है। क्योंकि संप्रग सरकार के शासनकाल में सेनाओं के लिए की जाने वाली अधिकाधिक खरीद किसी न किसी कारणवश रक्षा व वित्त मंत्रालय की फाइलों में ही चक्कर काटती रहीं। कुछ रक्षा व वित्त मंत्रालय के बीच सही तालमेल न होने के कारण तो कुछ तकनिकी प्रक्रियाओं को पार न करने के कारण अधिकाधिक रक्षा खरीद अधर में ही लटकी रहीं। संप्रग सरकार के समय रक्षा खरीदों में धीमी गति होने का एक बड़ा कारण यह भी था कि वो सरकार अधिकाधिक रक्षा खरीद विदेशी कंपनियों से करती थी। इसमे होता ये था कि उन विदेशी कंपनियों से खरीद के दौरान कभी कीमत बढ़ने तो कभी उपकरणों की गुणवत्ता आदि को लेकर सरकार का विवाद हो जाता। परिणामतः रक्षा खरीद ठण्डे बस्ते में चली जाती और संप्रग सरकार उधर से आँख बंद कर लेती। लेकिन मोदी सरकार द्वारा  अबतक  रक्षा खरीद पर लिए गए निर्णयों से इतना तो साफ़ हो गया है कि यह सरकार रक्षा खरीद के मामले में विदेशी कंपनियों से अधिक भारतीय कंपनियों को ही तरजीह देने का मन रखती है। उदाहरणार्थ अगर अभी हुए इस ताज़ा ८० हजार करोड़ के खरीद के ऐलान पर ही गौर करें तो इसमें से ५० हजार करोड़ की पनडुब्बियों का निर्माण भारतीय कंपनियों द्वारा देश में ही किया जाएगा। इसके अलावा अधिकाधिक रक्षा खरीद भारतीय कंपनियों से ही करने का निर्णय सरकार द्वारा लिया गया है।

  बहरहाल, यह तो स्पष्ट है कि सेनाओं जरूरतों के प्रति  संप्रग सरकार के लचर व लापरवाह रवैये के कारण हमारी सेनाएं  समय के साथ आधुनिक उपकरणों व हथियारों आदि से काफी हद तक वंचित रहीं। इसीके मद्देनज़र भारतीय सेनाओं के आधुनिकीकरण की बात तमाम रक्षा विशेषज्ञों समेत खुद सेना से जुड़े लोगों द्वारा  भी लगातार की जाती रही। पर अब जिस तरह से मोदी सरकार द्वारा अपने अबतक के काफी कम समय के शासनकाल में ही हमारी सेनाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्णय पर निर्णय लिए जा रहे हैं, इसे देखते हुए यह उम्मीद तो जगती ही है कि यह सरकार सेनाओं को लेकर बेहद गंभीर है। कह सकते हैं कि कम से कम हमारी सेनाओं के तो अच्छे दिनों की शुरुआत हो ही गई है।