शनिवार, 22 नवंबर 2014

खुद की मुश्किलें बढ़ा लिए रामपाल [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
१४ दिन के भारी तमाशे के बाद आख़िरकार पुलिस ने तथाकथित संत रामपाल को उनके सतलोक आश्रम से गिरफ्तार कर ही लिया. लेकिन, रामपाल द्वारा कोर्ट में पेश होने से बचने के लिए जिस तरह से अपने समर्थकों के जरिये तमाम नौटंकियों से लेकर हिंसा तक करवाई गई, उससे न सिर्फ देश के संविधान सम्मत कानून का अपमान हुआ बल्कि संत समुदाय के माथे पर  कालिख भी पुती. इस पूरे मामले पर अगर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें तो १९९५ में सिंचाई विभाग से जेई का पद  छोड़कर कबीरपंथी संत बने रामपाल ने सन २००६ में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती पर कुछ गलत टिप्पणी की जिसके परिणामस्वरूप आर्य समाजियों व रामपाल के बीच भारी झड़प हुई जिसमे एक युवक की जान चली गई. बस तभी से इस विवाद ने जन्म लिया. हालांकि तत्कालीन दौर में तो इस मामले में रामपाल को न्यायालय द्वारा माफ़ी दे दी गई लेकिन आर्य समाजी लोगों ने इसके विरोध में काफी उत्पात मचाया. परिणामतः इस साल जुलाई में रामपाल को उक्त हत्या के मामले में मिली माफ़ी रद्द कर रोहतक कोर्ट में उनकी हाजिरी लगवाई गई. इस दौरान उनके समर्थकों ने अदालत परिषर में वकील के साथ ही विवाद कर लिया जिससे यह मामला उच्च न्यायालय में जा पहुँचा और उच्च न्यायालय ने अदालत की अवमानना के लिए दोषी ठहराते हुए रामपाल को अदालत में पेश होने का आदेश दे दिया. बस इसी मामले में रामपाल को अदालत में पेश होना था लेकिन वे कभी बीमारी तो कभी कुछ और, तरह-तरह के बहाने बनाकर अदालत में पेश होने से बचने की कवायद कर रहे हैं. इसीके मद्देनज़र न्यायालय ने पुलिस को यह आदेश दिया कि जैसे भी हो वो रामपाल को गिरफ्तार कर आगामी शुक्रवार तक न्यायालय में पेश करे. पर इस मामले में पुलिस पर ढुलमुल रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए तमाम लोगों द्वारा उसकी आलोचना की गई. लेकिन इस प्रकरण में पुलिस की आलोचना करने वालों को केवल आँख बंद करके पुलिस की आलोचना करने की बजाय कुछ बातों पर गौर करना चाहिए. गौर करें तो पुलिस के लिए रामपाल को हिरासत में लेकर अदालत में पेश करना कत्तई आसन नहीं था. कारण कि एक तो रामपाल अपने हथियारबंद कमांडों के साथ तमाम लोगों को बंधक बना आश्रम के अन्दर छिपकर बैठे थे, उसपर उनके कुछेक अंधसमर्थकों की भारी भीड़ भी पुलिस के लिए बेहद मुश्किल खड़ी कर रही थी. अब पुलिस के साथ समस्या ये थी  कि अगर वो कड़ा रुख अख्तियार कर फायरिंग आदि के जरिये आश्रम में घुसती  तो इसमें निर्दोष लोगों की जान जाने का काफी खतरा होता. कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि पुलिस के पास यही विकल्प था कि वो धीरे-धीरे रामपाल के समर्थकों की भीड़ को वहां से हटाए और फिर रामपाल को गिरफ्तार करे. पुलिस ने किया भी वही. अभी इतने संयम के बाद भी ६ लोगों की लाशें आश्रम से बरामद हुई. यानि कि इतना बचने के बाद भी कुछ न कुछ हिंसा तो हो ही गई. मगर फिर भी, इस पूरे प्रकरण में पुलिस की आलोचना की बजाय उसके संयम की प्रशंसा ही की जानी चाहिए. उसने वही किया जो किया जा सकता था.  
    गंभीर सवाल यह उठता है कि रामपाल अपने अंध समर्थकों व हथियारबंद सुरक्षा कर्मियों की आड़ लेकर देश के क़ानून का जो मजाक उड़ा रहे थे, क्या वो एक संत का आचरण था ? रामपाल खुद को जिन कबीर का अनुयायी संत मानते हैं क्या उन कबीर ने यही कहा था कि अपनी रक्षा के लिए निर्दोष महिलाओं-बच्चों-बूढों को ढाल बनाकर खुद छिप जाना चाहिए ? जाहिर है, इन प्रश्नों का उत्तर रामपाल जैसे कथित और नकली संत के पास नहीं होगा. वैसे, अगर विचार करें तो आश्रम के भीतर छिपकर बैठ के पुलिस के साथ अपने समर्थकों की  झड़प करवाकर रामपाल आखिर क्या सिद्ध करना चाहते थे ?  अगर इसके जरिये उनकी मंशा अपना शक्ति प्रदर्शन कर न्यायालय और प्रशासन को भयभीत करने की थी  तो संभव है कि वे अबतक इस मुगालते से बाहर आ गए होंगे. क्योंकि उनकी उक्त नौटंकी उनकी गिरफ्तारी तो न्हिन्न टाल सकी, उलटे उनकी मुश्किलें और बढ़ाएगी. रामपाल को तो इस देश में सबसे अधिक समर्थक होने का दावा करने वाले एक तथाकथित संत आसाराम से सबक लेना चाहिए था कि कैसे उन्होंने भी अपनी गिरफ़्तारी रोकने के लिए अपने समर्थकों से ऐसा ही कुछ बवाल करवाया था, लेकिन अपनी गिरफ्तारी को नहीं रोक सके. न केवल उनकी गिरफ़्तारी हुई बल्कि साल भर से बिना किसी सजा के जेल में भी पड़े हैं. जमानत तक नहीं मिल रही और अब उनके सब समर्थक भी शांत हैं. कोई उनकी खोज-खबर नहीं ले रहा. कहने का आशय यह है कि एकबार क़ानून के चंगुल में फंसने के बाद आप कितने भी समर्थक वाले हों, आपको कोई समर्थक पूछने वाला नहीं. इसलिए उचित हुआ होता कि आसाराम से सबक लेते हुए रामपाल अपनी यह नौटंकी बंद करके पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिए होते. न्यायालय में पेश होकर अपना पक्ष रखते, अगर उनके पक्ष में दम होता तो सब आरोपों को पार कर वे साफ़ और बेदाग होकर बाहर आते. पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और मुट्ठी भर समर्थकों के दम इस देश की क़ानून व्यवस्था को चुनौती देते रहे. अब ये तो समय ही बताएगा कि इस कुकृत्य का उन्हें कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है.

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