बुधवार, 25 नवंबर 2015

पंचायती राज के प्रति असजग ग्रामीण [पंजाब केसरी, जनसत्ता, नेशनल दुनिया और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
कई राज्यों में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ राज्यों में हो चुके हैं तो कुछ में अभी जारी हैं। पंचायत चुनाव के इस मौसम में अगर देश के गांवों में जाकर वहां के हाल को समझने की कोशिश की जाय तो हर चौंक-चौराहे इन चुनावों की ही चर्चा है। सीट के सामान्य या आरक्षित रहने के विषय में कौतूहल है तथा प्रत्येक स्थिति के लिए न केवल संभावित प्रत्याशियों वरन ग्रामीण मतदाताओं के पास भी अपनी एक योजना है कि किसके पाले में रहना है और किसे जीताना है। लेकिन विडम्बना ये है कि ये योजनाबद्धता स्थानीय मुद्दों या ग्रामीण समस्याओं के आधार पर कत्तई नहीं है, इसका आधार जाति और लोगों के अपने-अपने व्यक्तिगत हित हैं। हर किसी का गणित है कि किस प्रत्याशी को जिताने पर उसे क्या और कितना लाभ मिल सकता है। अगर किसी पंचायत में एक ही जाति के दो-तीन लोग चुनाव में उतर गए तो वहां व्यक्तिगत हितों के आधार पर मतदाताओं के कई खेमे बन जाते हैं जैसे फलां प्रत्याशी से फलां व्यक्ति के सम्बन्ध अच्छे हैं तो परिवार समेत उसका वोट उसी प्रत्याशी  को जाएगा। अब वो कैसा है, किस छवि का है और उसका क्या एजेंडा है ? ये सब बातें गौण हैं। इसके अतिरिक्त धनबल इन चुनावों में भी सर्वोपरि है। पहले सामान्य तरीके से प्रचार करके प्रत्याशी मतदाता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता था, पर अब पंचायत चुनावों को भी लोकसभा और विधानसभाओं की चुनाव शैली की हवा लग गई है। पंचायत चुनावों पर काफी पैसा बहाया जाने लगा है। पहले ऐसा नहीं था। आमतौर पर लोग उसी प्रत्याशी को विजयी बनाते थे जो गाँव के लिए कुछ कर सकने लायक होता था, लेकिन अब स्थिति एकदम बदल चुकी है। धनबल का आलम यह है कि जो व्यक्ति अरसे से गाँव में रहा तक न हो और जिसे गाँव की समस्याओं-पीड़ाओं का कोई अता-पता भी नहीं हो, वो भी यदि पैसा खर्च करे तो बड़े आराम से चुनाव से चार दिन पहले गाँव में आकर भी एक सशक्त प्रत्याशी बन सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि पंचायत चुनाव भी समस्याओं से इतर जातिगत समीकरणों और धनबल के चक्रव्यूह में उलझा हुआ है। एक समस्या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व की भी है। मसलन, महिला प्रतिनिधित्व के उद्देश्य से जहां प्रधान की सीट महिला आरक्षित हैं, वहां महिला उम्मीदवारी महज प्रतीकात्मकता बन कर रह गई है। पत्नी के नाम से पर्चा दाखिला हुआ लेकिन चुनाव से लेकर जीतने के बाद काम-काज तक सब पति को ही देखना है। और दुखद तो ये है कि इस स्थिति को ग्रामीण लोग बड़े ही सहज भाव से स्वीकार भी किए हुए हैं। ऐसे मामलों में अक्सर वही लोग अपनी पत्नियों को उम्मीदवार बनाकर चुनाव जिताने में सफल होते हैं, जिनका गाँव में दबदबा है और जो खुद पैसे खर्च करने की क्षमता रखते हैं। अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि अपनी पत्नियों को चुनाव जीता कर ये लोग खुद पंचायतों के कामकाज संचालित करते हैं। विचार करें तो इसका मुख्य कारण यही है कि आज आज़ादी के साढ़े छः दशक से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति जागरूकता का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण लोग आज भी इसकी आवश्यकता और महत्व दोनों से अनभिज्ञ हैं।
जनसत्ता 
  इसी संदर्भ में अगर पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हुए इसे समझने का प्रयास करें तो भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। भले से विभिन्न कालों में इसके नाम अलग रहे हों। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक रूप से यह व्यवस्था महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था, आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।“ गांधी की इसी अवधारणा को फलीभूत करने के उद्देश्य से आजादी के पश्चात् संविधान में पंचायती राज की व्यवस्था करते हुए अनुच्छेद-४० में राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने यहाँ पंचायती राज का गठन करें। गांधीजी की इच्छा की पूर्ति के  नैतिक दबाव के कारण तत्कालीन सरकार द्वारा पंचायती राज की दिशा में गंभीरता दिखाते  हुए सन २ अक्तूबर, १९५२ को सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसके तहत सरकारी कर्मियों के साथ सामान्य लोगों को भी गाँव की प्रगति में भागीदार बनाने की व्यवस्था की गई। लेकिन इस व्यवस्था में लोग सिर्फ अपनी बात कह सकते थे, उसके लागू होने या करवाने के सम्बन्ध में उनके पास कोई विशेष अधिकार नहीं था, लिहाजा यह व्यवस्था शीघ्र ही असफल सिद्ध हो गई। कुछ यही हश्र १९५३ में आरम्भ राष्ट्रीय प्रसार सेवा का भी हुआ। इन नीतियों के विफल होने के पश्चात् पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सुझाव देने हेतु सन १९५७ में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने ग्राम समूहों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचित पंचायतों, खण्ड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों तथा ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया। इसके बाद अशोक मेहता समिति, डॉ राव समिति, डॉ एल एम् सिंधवी समिति, थूंगन समिति आदि समितियों का आवश्यकता महसूस होने पर समय दर समय क्रमशः गठन किया गया और इनके द्वारा दिए गए सुझावों पर कमोबेश अमल भी हुआ। आगे इस सम्बन्ध में संविधान में संशोधन भी किए गए जिनमे कि १९९३ में लागू हुआ ७३ वां संविधान संशोधन बेहद महत्वपूर्ण रहा। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई। त्रिस्तरीय पंचायती राज जिसमे सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्थिति में खंड स्तरीय क्षेत्र पंचायत और सबसे ऊपर जिला पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया। हालांकि जिन राज्यों की आबादी २० लाख से कम है, वहां ये मॉडल द्विस्तरीय हो जाता है।
नेशनल दुनिया 
इसके अतिरिक्त संविधान की ग्यारहवी अनुसूची में पंचायतों के लिए अधिकार और कार्य क्षेत्र भी सुनिश्चित किए गए हैं। इन कार्य क्षेत्रों में कृषि विस्तार, पेय जल, सड़क-पुलिया व संचार के अन्य माध्यमों का विकास, शिक्षा, तकनिकी शिक्षा, समाज कल्याण, गरीबी निवारण कार्यक्रमों का निर्माण व संचालन, लोक वितरण प्रणाली, नवीन  ऊर्जा स्रोतों का विकास, सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का निर्वाह आदि कुछ प्रमुख कार्य क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर ऐसे २९ कार्य क्षेत्र हैं जिन्हें पंचायतों के लिए चिन्हित किया गया है। इन कार्यक्षेत्रों के अनुसार ही पंचायतों को अधिकार भी प्राप्त हैं। सरकार की तरफ से  आर्थिक मद भी प्राप्त होता है। लेकिन समस्या वही है, ग्रामीण लोगों में जागरूकता का अभाव।  परिणामतः सरकार की तरफ से आया धन पंचायत के लिए चिन्हित कार्यों में लगने की बजाय ग्राम प्रधान और उसके निकटवर्ती लोगों के बीच बंदरबाट करके समाप्त कर दिया जाता है। मनरेगा जैसी योजनाओं का भ्रष्टाचार इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। अशिक्षित लोग यह सब उतना नहीं समझ पाते लेकिन तमाम लोग समझते भी हैं, मगर आवाज कोई नहीं उठाता। इन्हीं दिक्कतों के मद्देनज़र भारत सरकार द्वारा पंचायतों के डिजिटलकरण की बात की जा रही है और कुछेक कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है।
अमर उजाला 

  डिजिटलीकरण जब होगा तब होगा, फिलहाल आवश्यकता ये है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने की तरफ ध्यान दिया जाय। जागरूकता आने पर लोग पंचायत के कार्यों को समझेंगे तथा प्रधान पर उनके लिए दबाव बना सकेंगे और उसके आनाकानी करने पर ऊपर तक अपील भी कर सकेंगे। मत की ताकत समझ जाने पर वे जाति और व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर मतदान करने की तरफ भी अग्रसर होंगे। इसके अतिरिक्त पंचायती चुनाव प्रणाली में सुधार की भी दरकार है। खासकर चुनाव खर्च की एक सीमा तय की जाय और उसका कड़ाई से अनुपालन करवाया जाय। इससे सही उम्मीदवार के चयन की संभावना बढ़ेगी साथ ही जातीय समीकरणों से पंचायत चुनाव जीतने की रणनीति को भेदने के उपाय भी ज़रूरी है इन चोजों पर अगर ध्यान दिया जाय तो ही हम निकट या दूर भविष्य में सत्ता को विकेंद्रीकृत करके आमजन तक पहुंचा सकते हैं जो कि गांधी का अधूरा सपना है।

रविवार, 22 नवंबर 2015

बाल-साहित्य के प्रति अगम्भीरता क्यों ? [जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
हिंदी में बाल-साहित्य का आरम्भ उन्नीसवी सदी के नवे दशक में भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रयासस्वरूप निकली पत्रिका बाल-दर्पण से माना जाता है । हालांकि इस आरम्भ के विषय में भी कुछेक मतभेद देखने-सुनने में आते रहे हैं, पर सर्वाधिक रूप से बाल-दर्पण से ही हिंदी में बाल-साहित्य के युग के आरम्भ की स्वीकार्यता रही है । इस हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि हिंदी जगत में लिखित रूप से बाल-साहित्य का इतिहास बमुश्किल एक सौ बीस-तीस वर्षों के आसपास का है । लेकिन  इससे इतर अगर मौखिक तौर पर बाल-साहित्य को देखें और विचार करें तो हिंदी समेत सभी भाषाओँ के बाल-साहित्य का इतिहास समय की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है । मौखिक बाल-साहित्य के विषय में बताना आवश्यक होगा कि बच्चे अपनी दादी-नानी व परिवार के अन्य बड़ों से राजा-रानी व परियों आदि की जो कहानियां सुनते हैं, वही मौखिक बाल-साहित्य है । लिहाजा इसमे संदेह का कोई कारण नही दिखता कि इस तरह के मौखिक बाल-साहित्य का आरम्भ मानव में बोलचाल व भाषा की समझ आने के साथ ही हो गया होगा । क्योंकि, अगर गौर करें तो बच्चों को दादी-नानी आदि के द्वारा जो कहानियां सुनाई जाती हैं, वो यूनानी दार्शनिक ‘इसप’ जिनका जन्म ६२० ई.पू माना जाता है, के ‘फेबल्स’ से काफी हद तक प्रभावित होती हैं । अतः इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ६२० ई.पू जन्मे इसप द्वारा अपने छात्रों को पढ़ाने के लिए तत्कालीन दौर में जो फेबल्स (कहानियां) कहे गए, वही समय के साथ सभ्यताओं-संस्कृतियों के आदान-प्रदान के कारण कुछ परिवर्तित होते हुए दादी-नानी की कहानियों के रूप में भारत के बच्चों तक भी पहुंचे । कुल मिलाकर कहने का आशय ये है कि मौखिक तौर पर बाल-साहित्य का अस्तित्व इसप के जन्म यानि ६२० ई.पू या उससे भी पहले से मौजूद है ।  
  उपरोक्त बातें तो मौखिक बाल-साहित्य और उसके इतिहास की हुईं । अब अगर हम लिखित बाल-साहित्य की बात करें तो सबसे पहले इससे जुड़े कुछ  बुनियादी सवाल सामने आते हैं कि आखिर बाल-साहित्य है क्या ? इसकी परिभाषा क्या है – इसके अंतर्गत किसी भी रचना की रचना-प्रक्रिया और स्वरूप क्या और कैसा होना चाहिए ? इन सवालों के संदर्भ में अगर बाल-साहित्य की परिभाषा पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि वो सबकुछ, जो ५ से १६ वर्ष तक के बच्चों की मानसिक अवस्था के अनुकूल और शिक्षापरक हो तथा सरल, सहज, सुबोध और मधुर भाषा-शैली में रचित हो, बाल-साहित्य है । अब इस परिभाषा को देखते हुए बाल-साहित्य के विषय में दो बातें एकदम साफ़ हो जाती हैं, पहली कि बाल-साहित्य का सीधा सरोकार बाल-ह्रदय से होता है, अतः बाल-साहित्य में भी बच्चों के मन की तरह ही हर प्रकार से कोमलता और मधुरता होनी चाहिए । दूसरी बात कि बच्चों का मन जटिलताओं से अलग सरलताओं की तरफ अधिक आकर्षित होता है, ऐसे में बाल-साहित्य में भी सरलता और सहजता अनिवार्य हो जाती है । बाल साहित्य और वयस्क साहित्य में मूल अंतर सिर्फ कथ्य और उसके कथन की भाषा-शैली का ही होता है । अन्यथा बाल-साहित्य में भी बाल-कहानी, बाल-कविता, बाल-गीत के अलावा नाटक, एकांकी, व्यंग्य, उपन्यास आदि वयस्क साहित्य के लिए उपयुक्त मानी जाने वाली सभी विधाओं पर कलम चलाई जा सकती है । न सिर्फ कलम चलाई जा सकती है बल्कि बच्चों के लिए बेहतरीन साहित्य रचा भी जा सकता है । 
   ऐसा तो कत्तई नही है कि हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य व उसके लेखकों-रचनाकारों की उपलब्धता न हो । कम मात्रा में ही सही, पर हिंदी में श्रेष्ठ बाल-साहित्य की मौजूदगी हर दौर में रही है और आज भी है । पर बावजूद इसके बाल-साहित्य को लेकर हमारे हिंदी पट्टी के अधिकांश और बड़े साहित्यकारों के भीतर एक संकुचित सोच घर कर चुकी है । सोच ये कि बाल-साहित्य तो बच्चों का खिलौना है, मनभुलावन है - इसमे कैसा रचना-कौशल और कैसा साहित्य ? कहने का अर्थ ये है कि हिंदी के तथाकथित स्थापित साहित्यकारों में बाल-साहित्य को बेहद हल्का समझने का भाव भरा पड़ा है, जिस कारण वे न तो  बाल-साहित्य के क्षेत्र में कलम आजमाई करते हैं और न ही इसके संबंध में कभी कोई गंभीर चर्चा या विमर्श ही छेड़ते हैं । न तो कभी, किसी बाल-साहित्य पर  किसी बड़े साहित्यकार द्वारा आलोचना-समीक्षा ही होती है और न ही कोई नामवर साहित्यकार किसी बाल-साहित्य की पुस्तक का विमोचन ही करता है । हालांकि ऐसा नही है कि बाल-साहित्य को लेकर ये संकुचित सोच सिर्फ आज के स्थापित साहित्यकारों में ही है, पूर्व में भी मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, विष्णु प्रभाकर आदि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने अपने लेखन की शुरुआत तो बाल-साहित्य से की, पर जब वे स्थापित हो गए तो बाल-साहित्य से किनारा कर लिए । बाल-साहित्य के प्रति हिंदी के इन स्थापित साहित्यकारों की ये अगम्भीरता एक प्रमुख कारण है कि आज हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य की कमी परिलक्षित हो रही है । अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर बाल-साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों के मन में ये हल्केपन का भाव क्यों है ? ऊपर स्पष्ट किया गया था कि कथ्य से लेकर भाषा-शैली तक हर स्तर पर बाल-साहित्य में सरलता और सहजता की उपस्थिति अनिवार्य होती है । अब हमारे बड़े और स्थापित साहित्यकार संभवतः इस सरलता और सहजता के कारण ही बाल-साहित्य को हल्का साहित्य मानते हैं । शायद उन्हें लगता है कि ऐसे साहित्य के लिए किसी रचना-कौशल, शब्द-शक्ति या अन्य किसी भी साहित्यिक योग्यता की कोई बहुत आवश्यकता नही होती । जबकि यथार्थ ये है कि  श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना करना भी उतना ही कठिन होता है, जितना कि वयस्क साहित्य की रचना करना । बल्कि कुछ मायनों जैसे कि शब्द-चयन, कथानक  आदि में तो बाल-साहित्य की रचना वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही कठिन होती है । उल्लेखनीय है कि बाल-साहित्य का एक प्रमुख उद्देश्य बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी होता है । इस लिहाज से बच्चों के लिए कुछ भी लिखते समय शब्दों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है । शब्द ऐसे होने चाहिए जिनको बच्चे न सिर्फ सहजता से समझ सकें बल्कि उनसे लगाव भी महसूस करें और पढ़ने के प्रति उनकी इच्छा और उत्साह बढ़े । इस लिहाज से श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना के समय रचनाकार को शब्द-चयन से लेकर कथ्य तक वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही सजग रहना पड़ता है । अतः स्पष्ट है कि स्थापित साहित्यकारों द्वारा बाल-साहित्य को बेजा ही हल्की नज़र से देखा जाता है । उचित तो ये होता कि वे बाल-साहित्य पर ऐसी हल्की सोच रखने की बजाय बच्चों के लिए कुछ श्रेष्ठ साहित्य रचने की कोशिश करते, तब उन्हें आभास होता कि बाल साहित्य कत्तई उतना सरल व सहज नही है, जितना कि वे  समझ रहे हैं ।
  आज के बच्चे ही कल युवा होंगे जिनके कंधों पर राष्ट्र की प्रगति का भार होगा । ऐसे में आवश्यक है कि बच्चों तक ऐसा साहित्य पहुंचे जिससे वर्तमान में उनकी नैतिक व बौद्धिक उन्नति तो हो ही, उनमे भविष्य के प्रति दूरदर्शिता भी आए । अगर हम अपने बच्चों को ऐसा साहित्य दे पाते हैं तो ही हम बच्चों के प्रति अपने दायित्व से कुछ न्याय कर पाएंगे और बच्चों में भविष्य में राष्ट्र को विकासपथ पर ले जाने की क्षमता की बुनियाद का निर्माण भी होगा ।

शनिवार, 21 नवंबर 2015

भाजपा से भयभीत पार्टियाँ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
कहा जाता है कि राजनीति में कोई भी स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। इस बात का सबसे ताज़ा उदाहरण अभी हाल ही में देश ने बिहार विधानसभा चुनाव में देखा जब बिहार के दो कट्टर विरोधियों लालू और नीतीश के बीच गठबंधन हो गया। तिसपर साथ में कांग्रेस भी आ गई और बन गया इन तीनों दलों का महागठबंधन जिसने बिहार में मोदी लहर पर सवार मदमस्त भाजपा को चारो खाने चित कर दिया। बिहार में महागठबंधन की इस सफलता के बाद अटकले ये लगाईं जा रही हैं कि २०१७ में होने वाले  यूपी विधानसभा चुनावों में भी बिहार की तर्ज़ पर वहां के स्थानीय दलों द्वारा महागठबंधन बनाया जा सकता है। यह अटकले इस नाते भी अधिक हो रही हैं क्योंकि अभी हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि यूपी के आगामी विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। समझना आसान है कि बिहार के स्थानीय दलों के महागठबंधन को मिली सफलता के बाद यूपी के दलों में भी इस राजनीतिक पैंतरे के प्रति लालसा जग चुकी है। दरअसल युद्धनीति का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि जब कोई शत्रु आपसे इतना अधिक प्रबल हो जाय कि अकेले उसका मुकाबला संभव न रहे, तो उस महाशत्रु को रोकने के लिए अपने अन्य शत्रुओं से संधि कर लेनी चाहिए। महागठबंधन बस युद्धनीति के इसी सिद्धांत का एक क्रियान्वयन भर है। गौर करें तो भाजपा जिसकी राजनीतिक शक्ति विगत वर्ष हुए आम चुनावों के बाद निरपवाद रूप से निरंतर बढ़ती गई है, को रोकना किसी भी एक दल के लिए आसान नहीं लग रहा। ऐसे में, समझना बेहद आसान है कि भाजपा को रोकने की बेबसी में बिहार में दो लालू-नीतीश जैसे दो धुर विरोधियों का एका संभव हुआ और अब अगर यूपी में ऐसा होने की बात हो रही है तो इसके पीछे भी कहीं न कहीं भाजपा का भय ही काम कर रहा है। यूपी की पहली बड़ी और सत्तारूढ़ पार्टी सपा की तरफ से सीएम अखिलेश यादव ने बेशक यह कह दिया हो कि यूपी में भी महागठबंधन की संभावना है लेकिन यूपी की ही दूसरी बड़ी पार्टी बसपा ने अभी ऐसी किसी भी संभावना से इंकार कर दिया है। हालांकि अभी चुनाव में काफी अधिक समय शेष है लिहाजा बसपा के इंकार का कोई बहुत महत्व नहीं माना जा सकता। क्योंकि इस देश का राजनीति चरित्र तो ऐसा हो चुका है कि यहाँ राजनेता विचार और सिद्धांत अपनी सुविधानुसार कपड़े से भी ज्यादा तेजी से बदलने लगे हैं। अतः २०१७ आते-आते बसपा का यह इंकार भी नहीं बदल जाएगा, ये मुश्किल ही लगता है। और अगर २०१७ में यूपी के इन दोनों कट्टर विरोधियों में संधि हो गई जिसकी बड़ी संभावना है, तो फिर बिहार की ही तरह वहां भी एक सहयोगी के रूप कांग्रेस भी निश्चित ही उनके साथ हो जाएगी। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि बिहार से जिस तरह से स्थानीय दलों द्वारा आपसी विरोधों को तिलांजलि देते हुए महागठबंधन कायम करने की जिस संस्कृति का सूत्रपात किया गया है, वो भाजपा के लिए बड़ी संकटकारी सिद्ध होने वाली है। यूपी ही क्या, उससे इतर अन्य राज्यों में भी अब अगर इस तरह से स्थानीय विरोधी दलों के बीच एका होने लगे तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। महागठबंधन की इस रणनीति से पार पाने के लिए भाजपा को प्राथमिक तौर पर अपने राज्य संगठन को मजबूत करने की दिशा में काम करना होगा और हर राज्य में अपना एक ठोस चेहरा खड़ा करना होगा। क्योंकि उसका मत प्रतिशत बिहार में भी कम नहीं हुआ बल्कि पिछली बार की तुलना में बढ़ा ही है, पर वो हारी है तो कहीं न कहीं संगठन और स्थानीय नेतृत्व के अभाव में।
  बहरहाल इस महागठबंधन की संस्कृति के राजनीतिक प्रभाव जो भी हों, लेकिन विचार करें तो शासन के स्तर पर इसका प्रभाव हानिकारक ही दिखता है। इसको अच्छे से समझने के लिए अगर बिहार में बनी महागठबंधन सरकार को ही लें तो उसमे मुख्यमंत्री बेशक नीतीश कुमार हों, पर यह सर्वस्वीकृत है कि शासन की बागडोर सजायाफ्ता लालू यादव के हाथ में ही होगी क्योंकि उनकी सीटें नीतीश से अधिक हैं। अब बिहार ने तो चुना है नीतीश के नेतृत्व को, लेकिन उसको कहीं न कहीं शासन मिलेगा लालू यादव का। उन लालू यादव का जिनके शासन के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने अपने १५ वर्षों के शासन में बिहार को २०० वर्ष पीछे कर दिया। अब मूल बात यह है कि ये महागठबंधन सरकार क्या बिहार के जनादेश के साथ एक अप्रत्यक्ष अन्याय ही है। उल्लेखनीय होगा कि लालू-नीतीश का एका एक मजबूरी का बंधन है न कि उनके बीच कोई वैचारिक सहमति कायम हो चुकी है। लिहाजा यह सरकार पूरे समय चलेगी इसमें भी संदेह ही है। अतः कह सकते हैं कि वैचारिक विरोधों को तिलांजलि देकर महागठबंधन कायम करने की यह संस्कृति भारतीय राजनीति में वैचारिक पतन के उत्कर्ष को दिखाती है जिसे भारतीय लोकतंत्र के लिए कतई शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।

सोमवार, 16 नवंबर 2015

आस्था का महापर्व छठ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, हिंदी सामना और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
ये यूं ही नहीं कहा जाता कि भारत पर्वों, व्रतों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का देश है । दरअसल यहाँ शायद ही ऐसा कोई महीना बीतता हो जिसमे कोई व्रत या पर्व न पड़े । हमारे पर्वों में सबसे अलग बात ये होती है कि इन सब में हमारा उत्साह किसी न किसी आस्था से प्रेरित होता है । कारण कि भारत के अधिकाधिक पर्व अपने साथ किसी न किसी व्रत अथवा पूजा का संयोजन किए हुए हैं । ऐसे ही त्योहारों की कड़ी में पूर्वी भारत में सुप्रसिद्ध छठ पूजा का नाम भी प्रमुख रूप से आता है । दीपावली बीतने के बाद देश में छठ का वातावरण बन चुका है । आयोजन की बात करें तो बिहार के पटना घाट से लिए दिल्ली के यमुना घाट समेत और भी  तमाम छोटे-बड़े घाटों पर प्रत्येक वर्ष छठ का भव्य आयोजन होता है । शुरूआती समय में छठ अधिकाधिक रूप से सिर्फ बिहार तक सीमित था, पर समय के साथ मुख्यतः बिहारवासियों के भौगोलिक परिवर्तनों के कारण इस पर्व का प्रसार बिहार से सटे प्रदेशों में भी हुआ और होता गया । भौगोलिक परिवर्तनों से मुख्य आशय ये है कि बिहार की लड़कियां विवाहित होकर यूपी तथा अन्य जिन प्रदेशों व स्थानों में गईं, वहाँ वो अपने साथ अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को भी लेते गईं । उन्होंने अपनी इस परम्परा को न सिर्फ पूरी संलग्नता से कायम रखा बल्कि इसके महत्व-प्रभाव के वर्णन द्वारा और लोगों तक भी इसका प्रचार-प्रसार किया । इस प्रकार बिहार के बाहर इस पर्व का प्रसार होता गया और आज यह पर्व पूर्वी भारत में बिहार समेत यूपी, झारखंड व नेपाल के तराई क्षेत्रों तक में भी बड़े धूम-धाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है । इसके अतिरिक्त छिटपुट रूप से तो इसका आयोजन समूचे भारत में और विदेशों में भी देखने को मिलता है । बिहार व यूपी  के लोगों में इस पर्व को लेकर कितनी निष्ठा है, इसे इसी बात से  समझा जा सकता है कि प्रत्येक वर्ष छठ के अवसर पर दिल्ली, मुंबई आदि देश के तमाम राज्यों से बिहार व यूपी जाने वाली ट्रेनों में ऐसी भीड़ उमड़ती है कि प्रशासन को स्टेशनों पर न सिर्फ सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने पड़ते हैं, बल्कि इन राज्यों में जाने वाली मौजूद गाड़ियों के अतिरिक्त कुछ विशेष गाड़ियाँ भी चलानी पड़ती हैं । इतने के बावजूद भी जाने वाले लोगों की भीड़ को नियंत्रित करना प्रशासन को लोहे के चने चबवा देता है ।
नेशनल दुनिया 
   यदि इस पर्व के नाम पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि इस पर्व के तिथिसूचक के अपभ्रंस या देशज रूप को ही इस पर्व की संज्ञा के रूप में अपनाया गया है । जैसे कि इसे मुख्य रूप से इसकी षष्ठी तिथी को होने वाली सूर्यदेव की  अर्घ्य के लिए जाना जाता है । इस प्रकार षष्ठी तिथी के विशेष महत्व के कारण उसका अपभ्रंस छठ के रूप में हमारे सामने आता है । यूँ तो इस पर्व में देवता के रूप में सूर्यदेव की ही प्रतिष्ठा है, पर तिथी के कारण ये छठ नाम से प्रसिद्ध हो गया है । वैसे तो यह पर्व वर्ष में दो बार चैत्र और कार्तिक मास में मनाया जाता है । पर इनमे तुलनात्मक रूप से अधिक प्रसिद्धि कार्तिक मास के छठ की ही है । हिंदू कैलेण्डर के अनुसार कार्तिक मास में दीपावली बीतने के बाद इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ हो जाता है । कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरू होकर ये पर्व कार्तिक शुक्ल सप्तमी को भोर की अर्घ्य देने के साथ समाप्त होता है । इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ ‘नहाय खाय’ नामक एक रस्म से होता है । इसके बाद खरना, फिर सांझ की अर्घ्य व अंततः भोर की अर्घ्य के साथ इस पर्व का समापन हो जाता है । यूँ तो ये पर्व चार दिवसीय होता है, पर मुख्यतः षष्ठी और सप्तमी की अर्घ्य का ही विशेष महत्व माना जाता है । व्रती व्यक्ति द्वारा पानी में खड़े होकर सूर्य देव को ये अर्घ्य दिए जाते हैं । इसी क्रम में उल्लेखनीय होगा कि संभवतः ये अपने आप में ऐसा पहला पर्व है जिसमे कि डूबते और उगते दोनों ही सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है; उनकी वंदना की जाती है । सांझ-सुबह की इन दोनों अर्घ्यों के पीछे हमारे समाज में एक आस्था काम करती है । वो आस्था ये है कि सूर्यदेव की दो पत्नियाँ हैं – ऊषा और प्रत्युषा । सूर्य के भोर की किरण ऊषा होती है और सांझ की प्रत्युषा, अतः सांझ-सुबह दोनों समय अर्घ्य देने का उद्देश्य सूर्य की इन दोनों पत्नियों की अर्चना-वंदना होता है । छठ के गीत तो धुन, लय, बोल आदि सभी मायनों में एक अलग और अत्यंत मुग्धकारी वैशिष्ट्य लिए हुए होते हैं । ‘कांच ही बांस के बहन्गियाँ’, ‘मरबो जे सुगवा धनुष से’, ‘केलवा के पात पर’, ‘पटना के घाट पर’ आदि इस पर्व के कुछ सुप्रसिद्ध गीत हैं जिन्हें तमाम बड़े-छोटे गायकों द्वारा गाया भी जा चुका है । इन गीतों का लय और संगीत इतना अलग और मुग्धकारी होता है कि इनको सुनते वक़्त अनायास आपको छठ के वातावरण का आभास होने लगता हैं । आलम यह कि जिसका वास्ता छठ से न हो, वह भी अगर इन गीतों को सुने और समझ सके तो इनके आकर्षण से नहीं बच सकता । केला, सेब, अन्नानस, आदि अनेक फलों के अतिरिक्त गन्ना और घर में बने ठेकुआ, खजूर आदि चीजें इसके प्रसाद को भी विविधतापूर्ण और विशेष बनाती हैं ।
सामना 
   मोटे तौर पर जनसामान्य की मान्यता है कि ये सिर्फ स्त्रियों का पर्व है और काफी हद तक ये मान्यता सही भी है । पर इसके साथ ही ये भी एक सत्य है कि पुरुष के बिना इस पर्व की कई रस्मे अधूरी ही रह जाएंगी । उदाहरणार्थ इस पर्व की एक अत्यंत महत्वपूर्ण रस्म जिसमे कि घर के पुरुष द्वारा पूजन सामग्री का डाल सिर पर उठाकर छठ के घाट तक ले जाया जाता है । पुरुष के होने की स्थिति में ये रस्म पुरुष द्वारा ही किया जाना आवश्यक और उचित माना गया है । लिहाजा इसे सिर्फ स्त्रियों का पर्व कहना किसी लिहाज से सही नही लगता ।

  भारत के अधिकाधिक पर्वो की एक विशेषता ये भी है कि वो किसी न किसी पौराणिक मान्यता से प्रभावित होते हैं । छठ के विषय में भी ऐसा ही है । इसके विषय में पौराणिक मान्यताएं तो ऐसी हैं कि अब से काफी पहले रामायण अथवा महाभारत काल में ही छठ पूजा का आरम्भ हो चुका था । कोई कहता है कि सीता ने तो कोई कहता है कि कुंती या द्रोपदी ने सर्वप्रथम ये छठ व्रत और पूजा की थी । अब जो भी हो, पर इतना अवश्य है कि अगर आपको भारतीय शृंगार, परम्परा, शालीनता, सद्भाव, और आस्था समेत सांस्कृतिक समन्वय की छटा एकसाथ देखनी हो तो अर्घ्य के दिन किसी छठ घाट पर चले जाइए । आप वो देखेंगे जो आपके मन को प्रफुल्लित कर देगा ।

बुधवार, 11 नवंबर 2015

बिहार चुनाव नतीजों के निहितार्थ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आखिरकार महीनों के राजनीतिक जोड़-तोड़, आरोप-प्रत्यारोप और सभी प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों की भाषणबाजी के साथ बिहार विधानसभा चुनाव संपन्न हुए और उनके परिणाम भी अब सामने हैं। ये परिणाम किसीके लिए चौंकाने वाले हैं तो कोई इन्हें सामान्य और प्रत्याशित बता रहा है। जनादेश कुछ यूँ है कि भाजपा-पासवान-माझी-कुशवाहा के राजग गठबंधन को पूरी तरह से खारिज करते हुए बिहार के मतदाताओं ने नीतीश-लालू-सोनिया के महागठबंधन को विजयी बनाया है। महागठबंधन के नेता और राजद अध्यक्ष लालू यादव ने कहा था कि महागठबंधन १९० सीटें प्राप्त करेगा, उनका ये कथन सही साबित करते हुए महागठबंधन १७८ सीटों पर विजयी रहा तो वहीँ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का दो तिहाई सीटों का दावा एकदम गलत साबित हुआ और राजग गठबंधन मात्र ५८ सीटों पर सिमट गया। गठबंधन से इतर यदि सभी दलों की एकल स्थिति का अवलोकन करे तो लालू यादव की राजद ८० सीटों के साथ बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है तो वहीँ विगत विधानसभा की तुलना में ४४ सीटों के नुकसान के साथ नीतीश की जदयू को ७१ सीटें प्राप्त हुई हैं। ४० सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस को भी अप्रत्याशित रूप से २७ सीटें मिली हैं। इस चुनाव अपने उच्चस्तरीय प्रचार अभियानों और रणनीतियों के लिए अत्यधिक चर्चा में रहने वाली भाजपा पिछली विधानसभा की अपेक्षा ३८ सीटें कम होते हुए मात्र ५३ सीटों पर सिमट गई। उसके तीनों सहयोगी भी जिन्होंने ८७ सीटों पर चुनाव लड़ा था, मात्र ५ सीटें ही जीत सके। निष्कर्ष यह कि इस चुनाव सीटों के मामले में लालू यादव और कांग्रेस ने तरक्की की है, बाकी सबको सिर्फ नुकसान ही हुआ है। इन चुनाव परिणामों ने भाजपा के सम्बन्ध में सर्वाधिक सवाल खड़े किए हैं। सवाल यह कि आखिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री की अनेकों रैलियों तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत तमाम केन्द्रीय मंत्रियों की लगभग पूरे चुनाव बिहार में मौजूदगी के बावजूद भाजपा की ऐसी दुर्गत हुई है ? कहा यह भी जा रहा है कि कहीं प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता ख़त्म तो नहीं हो रही ? दरअसल यह सब प्रश्न जायज हैं और इनके जवाब आम लोगों के लिए जितने आवश्यक है, उससे कहीं अधिक भाजपा के लिए इनका उत्तर खोजना जरूरी है।
  विचार करें तो बिहार में भाजपा की इस भीषण हार के लिए कई कारण जिम्मेदार नज़र आते हैं जिनमे बिहार के सामजिक समीकरणों का भाजपा के विरुद्ध होना, विपक्ष की एकजुटता और खुद भाजपा की तमाम रणनीतिक गलतियां प्रमुख हैं। दिल्ली को अपवाद मान लें तो विगत वर्ष हुए आम चुनावों और उसके बाद हुए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि तमाम राज्यों के चुनावों में भाजपा या भाजपा गठबंधन ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई है। इसी कारण जब बिहार चुनाव की बात आई तो भाजपा को रोकने के लिए बिहार के दो धुर विरोधियों लालू और नीतीश ने एकसाथ होकर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया जिसमे उन्हें अपने बेहद बुरे राजनीतिक दौर से गुजर रही कांग्रेस का भी साथ मिला। नीतीश और लालू बराबर-बराबर १०१ सीटों पर तो कांग्रेस ४१ सीटों पर लड़ने उतरी। इधर भाजपा ने भी बिहार में जातीय समीकरणों को साधने के उद्देश्य से पासवान, मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा के साथ चुनाव में उतरने का तय किया। लेकिन विपक्ष की एकजुटता के आगे भाजपा का यह गठबंधन कारगर नहीं हो पाया। बिहार के यादव और मुस्लिम वोट पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ पड़े। दलितों और महादलितों का साथ भी उसे नहीं मिल सका; इसका प्रमाण ६४ सीटों पर लड़ रहे पासवान और मांझी के दलों को मिली महज ३ सीटें हैं। मांझी खुद उस मखदुमपुर सीट जहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने रैली कर उनके लिए वोट माँगा था, से हार गए। इन बातों से स्पष्ट होता है  कि बिहार के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय दलों तथा कांग्रेस की एकजुटता ने बिहार में भारी जातीय ध्रुवोकरण कर दिया और उनके वोट बैंक में सेंध लगाने की भाजपा की मंशा को धूमिल कर दिया। हालांकि एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भाजपा हार बेशक गई, पर वोट प्रतिशत के मामले में वो सबसे अव्वल रही है। आंकड़ो के मुताबिक़ भाजपा को सर्वाधिक २४.४ फीसदी वोट मिले हैं, लेकिन दिक्कत यही रही कि भाजपा के सहयोगी महागठबंधन के वोटों में सेंध नहीं लगा सके। परिणामतः आज स्थिति यह है कि जो भाजपा विगत विधानसभा में ९१ सीटों के साथ बिहार की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, वो इस दफे केंद्र की सत्ता, मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री और सर्वाधिक मतों के होते हुए भी महज ५३ सीटें ही जीत सकी।
डीएनए 


 लेकिन भाजपा की हार के लिए सिर्फ इतनी ही चीजें जिम्मेदार नहीं है। इस चुनाव भाजपा ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लेने की बजाय और गलतियाँ ही की। मोदी की आभा में लोक सभा तथा कुछेक राज्यों के चुनावों को जीतने के बाद भाजपा ने संभवतः सारी निर्भरता मोदी पर दाल कर चुनाव के लिए रणनीति बनाना ही छोड़ दिया है। मतलब कि हर राज्य का चुनाव मोदी की प्रतिष्ठा का चुनाव बना दिया जा रहा है जो कि न केवल मोदी वरन भाजपा के लिए भी घातक सिद्ध हो रहा है। प्रधानमंत्री पद  की एक गरिमा होती है, भाजपा अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसे लगातार कम कर रही है। कितनी बड़ी विडंबना है कि एक राज्य के चुनाव में देश का प्रधानमंत्री अपना काम-धाम छोड़कर ३० रैलियों को संबोधित करता है और उनमे गंभीर बातों और जन-सरोकारी मुद्दों पर केन्द्रित रहने की बजाय थ्री इडियट्स, भुजंगप्रसाद-चन्दन कुमार, तंत्र-मन्त्र जैसी अशोभनीय बातों के जरिये आरोप-प्रत्यारोप का खेल-खेलता है। चुनावों में बेशक ऐसी बातें बोली जाती हैं बल्कि महागठबंधन नेताओं के तरफ से भी बोली गईं, लेकिन उनका उत्तर राज्य के नेता देते तो ठीक रहता न कि खुद देश के प्रधानमंत्री। अब लालू यादव का मुकाबला करने के लिए उनकी भाषा के स्तर तक अगर आप जाएंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे न! बस वही हुआ है। इसके अतिरिक्त भाजपा की एक बड़ी गलती यह भी रही कि वो अपने मुद्दों पर लड़ने की बजाय विरोधियों के मुद्दों में उलझ गई। आरक्षण के मुद्दे को ही लें तो इसपर जब सर संघचालक मोहन भागवत का बयान आया कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए, तो भाजपा ने दृढ़तापूर्वक इसका समर्थन करने की बजाय जातीय समीकरणों के लोभ में इससे किनारा कर लिया। और प्रधानमंत्री मोदी अपनी रैली में कह आए कि आरक्षण के लिए जान की बाजी लगा देंगे। यह बिलकुल वही राजनीतिक भाषा थी जो लालू यादव ने मोहन भागवत के बयान के बाद बोली थी। स्पष्ट है कि यहाँ भाजपा अपने हथियार की बजाय लालू के मनपसंद हथियार से ही उनसे लड़ने लगी, ऐसे में पराजय तो होनी ही थी। इसके अतिरिक्त बिहार में नीतीश के सामने सीएम के लिए कोई चेहरा न खड़ा कर पाना भी भाजपा के लिए घातक  साबित हुआ है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि कुछ बिहार के सामजिक समीकरणों तो बहुत कुछ अपनी रणनीतिक गलतियों के कारण भाजपा यह चुनाव हारी है। उचित होगा कि वो इनपर आत्ममंथन कर सुधार करे, अन्यथा आने वाला समय उसके लिए अच्छा नहीं होगा। रहा महागठबंधन तो उसे जीत बेशक मिल गई हो और नीतीश बाबू सीएम भी बेशक बन जाएं, लेकिन यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि उनकी  सरकार कितनी स्थायी हो पाती है।

शनिवार, 7 नवंबर 2015

काले धन के पेंच [दैनिक जागरण राष्ट्रीय, नेशनल दुनिया और सामना में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
विगत दिनों योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण की एक प्रेस कांफ्रेंस में ऑनलाइन वार्ता के जरिये स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा स्थित एचएसबीसी बैंक के व्हिसल ब्लोवर हर्व फाल्सियानी द्वारा दावा किया गया कि भारत से अब भी बड़ी मात्रा में काला धन विदेश भेजा जा रहा  है जबकि पहले से जमा काले धन को लेकर भी सरकार अभी बहुत संजीदा नहीं दिख रही। उन्होंने यह भी कहा कि उनके पास इस सम्बन्ध में तमाम सूचनाएं हैं जिन्हें वे भारत सरकार से साझा कर सकते हैं बशर्ते कि सरकार उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराए। ज्ञात हो कि हर्व फाल्सियानी पर जिनेवा के  एचएसबीसी बैंक में काला धन जमा करने वालों की सूची सार्वजनिक करने का आरोप है। इसी कारण वे भारत सरकार से सुरक्षा मुहैया कराने की मांग कर रहे थे। अब एक तरफ फाल्सियानी यह सब कह रहे थे तो वहीँ दूसरी तरफ केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा ‘नेटवर्किंग द नेटवर्क’ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए काले धन पर उठाए क़दमों की बात की जा रही थी। जेटली ने कहा कि काले धन पर की जा रही कार्रवाई से वे संतुष्ट हैं और इसका असर अगले कुछेक वर्षों में देश के सामने आएगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि दुनिया एक दूसरे से सूचनाएं साझा करने के जरिये अब ऐसी व्यवस्था की ओर अग्रसर है जिसमे कि आप एक देश से दूसरे देश में अवैध धन को गुप्त तरीके से छुपाकर बच नहीं सकते। गौरतलब है कि विगत वर्ष ऑस्ट्रेलिया में जी-२० देशों की बैठक में सभी देशों ने २०१७-१८ से सूचनाओं के स्वतः आदान-प्रदान के लिए  सहमति जताई थी। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इसी बैठक में काले धन का मुद्दा भी उठाया गया था। इसके बाद अब ९० देश व स्वायत्त क्षेत्र सूचनाओं के आदान-प्रदान करने को तैयार हो गए हैं। स्पष्ट है कि इसी अंतर्राष्ट्रीय समझौते के आलोक में केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा काले धन से सम्बंधित उक्त बातें कही गईं।
नेशनल दुनिया 
  इसी क्रम में अगर ये समझने का प्रयास करें कि आखिर काला धन है क्या तो उल्लेखनीय होगा कि वो धन जो किसी लूट, डकैती, रिश्वतखोरी, अवैध तश्करी आदि गैरकानूनी तरीकों से अर्जित किया गया हो, काला धन कहलाता है। अब चूंकि आय की स्रोत बी बताए जा सकने के व टैक्स भरने से बचने के कारण सबंधित व्यक्तियों द्वारा काले धन की जानकारी आयकर विभाग को नहीं दी जाती हैं। ऐसे में, इस धन को आयकर विभाग की नज़रों से बचाने  का सबसे सुरक्षित स्थान विदेशी बैंक होते हैं। सो, अधिकाधिक काले धन के स्वामी अपना धन विदेशी बैंकों में जमा करवा देते हैं। अब विदेशी बैंकों में भारत का कुल कितना धन जमा है, इसपर जितने लोग हैं उतनी ही बाते हैं। लेकिन सही मायने में देश आज भी इस बात से अनभिज्ञ है कि देश का कितना पैसा विदेशी बैंकों में काले धन के रूप में जमा है ?
  बहरहाल, अब सवाल यह उठता है कि अगर सरकार काले धन पर  वाकई में इतनी गंभीर है तो फिर फाल्सियानी की इस बात में कितनी सच्चाई है कि देश से अब भी काला धन विदेशों में भेजा जा रहा है ? इस सवाल पर विचार करें तो फाल्सियानी की बातों में सच्चाई की पूरी संभावना दिखती है। क्योंकि अभी सरकार राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काले धन की रोकथाम के लिए व्यवस्था निर्मित करने की दिशा में काम कर रही है, न कि व्यवस्था निर्मित होकर काम करना शुरू कर चुकी है। लिहाजा अभी अगर फाल्सियानी यह कहते हैं कि देश से भारी मात्रा में काला धन विदेशों में जा रहा है तो इससे इंकार करने की कोई बड़ी वजह नहीं दिखती। अब काले धन की रोकथाम की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को तो भारत सरकार अकेले लागू नहीं कर सकती, इसके लिए अन्य देशों से भी सहमति बनानी होती है जिसमे कि समय लगना स्वाभाविक है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर काले धन की निगरानी के लिए व्यवस्था बनाना भारत सरकार के हाथ में है। संतोषजनक यह है कि सरकार इस दिशा में काले धन पर क़ानून बनाने से लेकर आयकर विभाग की निगरानी प्रणाली को और दुरुस्त करने जैसी प्रयास कर भी रही है, लेकिन अब जरूरत ये है कि ये प्रयास सिर्फ कागजों तक न रह जाएं वरन यथाशीघ्र उनके समुचित क्रियान्वयन की तरफ भी बढ़ा जाय।
 सामना 

  गौरतलब है कि सत्ता में आने के बाद से अबतक अगर भाजपा किसी मुद्दे पर सर्वाधिक रूप से विपक्ष के निशाने पर रही है तो वो मुद्दा काला धन ही है। चूंकि कहीं न कहीं  भाजपा ने आम चुनावों के दौरान काले धन के मुद्दे का एक हद तक राजनीतिक इस्तेमाल किया, पर इसमें बहुत चकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, भारतीय राजनीति में ये अक्सर होता रहा है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा कहा कुछ जाता है और सत्ता में आने के बाद किया कुछ जाता है। यह भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का एक अकाट्य कु-तथ्य है। इसे गलत कह सकते हैं, पर चाहकर भी इससे मुँह नहीं मोड़ा सकते। और इसी व्यवस्था की उपज होने व इसीमे पालित-पोषित होने के कारण कोई भी दल इससे अछूता नहीं है, भाजपा भी नहीं। हालांकि इस बात के बावजूद काले धन के मसले पर अगर गौर करें  तो मौजूदा भाजपानीत राजग सरकार की कार्यशैली पिछली संप्रग सरकार से अधिक विश्वसनीय और स्पष्ट सोच वाली नज़र आती है। इसी सन्दर्भ में अगर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें कि भाजपा द्वारा सत्ता में आने के बाद से काले धन पर क्या किया गया है तो स्पष्ट होता है कि  उसने काले धन के मसले पर चुनाव के दौरान जो वादे किए थे, उनको पूरा करने की दिशा में कई कदम भी उठाए हैं। मसलन, मोदी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा काले धन पर विशेष जांच दल (एस आई टी) गठित करने के निर्देश पर मुहर लगाकर उसका गठन कर दिया गया था। जबकि कांग्रेसनीत संप्रग-२ सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम दौर तक सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को मानने से बचती रही। भाजपा सरकार के ही कार्यकाल के दौरान सभी नहीं तो कुछ ही सही, विदेशी खाताधारकों के नाम भी सार्वजनिक किए गए। इसके अतिरिक्त काले धन पर ‘कालाधन (अघोषित विदेशी आय और आस्ति) कर अधिरोपण कानून-२०१५’   बनाने का काम भी इसी सरकार द्वारा किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कर संधियाँ जिनके अमल में आने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक आवागमन में काफी हद तक पारदर्शिता आने की संभावना है, पर भी विचार-विमर्श शुरू हुआ। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि काले धन पर सरकार ने कदम तो उठाए हैं, लेकिन अभी इस दिशा में और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।