रविवार, 22 नवंबर 2015

बाल-साहित्य के प्रति अगम्भीरता क्यों ? [जनसत्ता रविवारी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

जनसत्ता 
हिंदी में बाल-साहित्य का आरम्भ उन्नीसवी सदी के नवे दशक में भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रयासस्वरूप निकली पत्रिका बाल-दर्पण से माना जाता है । हालांकि इस आरम्भ के विषय में भी कुछेक मतभेद देखने-सुनने में आते रहे हैं, पर सर्वाधिक रूप से बाल-दर्पण से ही हिंदी में बाल-साहित्य के युग के आरम्भ की स्वीकार्यता रही है । इस हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि हिंदी जगत में लिखित रूप से बाल-साहित्य का इतिहास बमुश्किल एक सौ बीस-तीस वर्षों के आसपास का है । लेकिन  इससे इतर अगर मौखिक तौर पर बाल-साहित्य को देखें और विचार करें तो हिंदी समेत सभी भाषाओँ के बाल-साहित्य का इतिहास समय की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है । मौखिक बाल-साहित्य के विषय में बताना आवश्यक होगा कि बच्चे अपनी दादी-नानी व परिवार के अन्य बड़ों से राजा-रानी व परियों आदि की जो कहानियां सुनते हैं, वही मौखिक बाल-साहित्य है । लिहाजा इसमे संदेह का कोई कारण नही दिखता कि इस तरह के मौखिक बाल-साहित्य का आरम्भ मानव में बोलचाल व भाषा की समझ आने के साथ ही हो गया होगा । क्योंकि, अगर गौर करें तो बच्चों को दादी-नानी आदि के द्वारा जो कहानियां सुनाई जाती हैं, वो यूनानी दार्शनिक ‘इसप’ जिनका जन्म ६२० ई.पू माना जाता है, के ‘फेबल्स’ से काफी हद तक प्रभावित होती हैं । अतः इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ६२० ई.पू जन्मे इसप द्वारा अपने छात्रों को पढ़ाने के लिए तत्कालीन दौर में जो फेबल्स (कहानियां) कहे गए, वही समय के साथ सभ्यताओं-संस्कृतियों के आदान-प्रदान के कारण कुछ परिवर्तित होते हुए दादी-नानी की कहानियों के रूप में भारत के बच्चों तक भी पहुंचे । कुल मिलाकर कहने का आशय ये है कि मौखिक तौर पर बाल-साहित्य का अस्तित्व इसप के जन्म यानि ६२० ई.पू या उससे भी पहले से मौजूद है ।  
  उपरोक्त बातें तो मौखिक बाल-साहित्य और उसके इतिहास की हुईं । अब अगर हम लिखित बाल-साहित्य की बात करें तो सबसे पहले इससे जुड़े कुछ  बुनियादी सवाल सामने आते हैं कि आखिर बाल-साहित्य है क्या ? इसकी परिभाषा क्या है – इसके अंतर्गत किसी भी रचना की रचना-प्रक्रिया और स्वरूप क्या और कैसा होना चाहिए ? इन सवालों के संदर्भ में अगर बाल-साहित्य की परिभाषा पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि वो सबकुछ, जो ५ से १६ वर्ष तक के बच्चों की मानसिक अवस्था के अनुकूल और शिक्षापरक हो तथा सरल, सहज, सुबोध और मधुर भाषा-शैली में रचित हो, बाल-साहित्य है । अब इस परिभाषा को देखते हुए बाल-साहित्य के विषय में दो बातें एकदम साफ़ हो जाती हैं, पहली कि बाल-साहित्य का सीधा सरोकार बाल-ह्रदय से होता है, अतः बाल-साहित्य में भी बच्चों के मन की तरह ही हर प्रकार से कोमलता और मधुरता होनी चाहिए । दूसरी बात कि बच्चों का मन जटिलताओं से अलग सरलताओं की तरफ अधिक आकर्षित होता है, ऐसे में बाल-साहित्य में भी सरलता और सहजता अनिवार्य हो जाती है । बाल साहित्य और वयस्क साहित्य में मूल अंतर सिर्फ कथ्य और उसके कथन की भाषा-शैली का ही होता है । अन्यथा बाल-साहित्य में भी बाल-कहानी, बाल-कविता, बाल-गीत के अलावा नाटक, एकांकी, व्यंग्य, उपन्यास आदि वयस्क साहित्य के लिए उपयुक्त मानी जाने वाली सभी विधाओं पर कलम चलाई जा सकती है । न सिर्फ कलम चलाई जा सकती है बल्कि बच्चों के लिए बेहतरीन साहित्य रचा भी जा सकता है । 
   ऐसा तो कत्तई नही है कि हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य व उसके लेखकों-रचनाकारों की उपलब्धता न हो । कम मात्रा में ही सही, पर हिंदी में श्रेष्ठ बाल-साहित्य की मौजूदगी हर दौर में रही है और आज भी है । पर बावजूद इसके बाल-साहित्य को लेकर हमारे हिंदी पट्टी के अधिकांश और बड़े साहित्यकारों के भीतर एक संकुचित सोच घर कर चुकी है । सोच ये कि बाल-साहित्य तो बच्चों का खिलौना है, मनभुलावन है - इसमे कैसा रचना-कौशल और कैसा साहित्य ? कहने का अर्थ ये है कि हिंदी के तथाकथित स्थापित साहित्यकारों में बाल-साहित्य को बेहद हल्का समझने का भाव भरा पड़ा है, जिस कारण वे न तो  बाल-साहित्य के क्षेत्र में कलम आजमाई करते हैं और न ही इसके संबंध में कभी कोई गंभीर चर्चा या विमर्श ही छेड़ते हैं । न तो कभी, किसी बाल-साहित्य पर  किसी बड़े साहित्यकार द्वारा आलोचना-समीक्षा ही होती है और न ही कोई नामवर साहित्यकार किसी बाल-साहित्य की पुस्तक का विमोचन ही करता है । हालांकि ऐसा नही है कि बाल-साहित्य को लेकर ये संकुचित सोच सिर्फ आज के स्थापित साहित्यकारों में ही है, पूर्व में भी मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, विष्णु प्रभाकर आदि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने अपने लेखन की शुरुआत तो बाल-साहित्य से की, पर जब वे स्थापित हो गए तो बाल-साहित्य से किनारा कर लिए । बाल-साहित्य के प्रति हिंदी के इन स्थापित साहित्यकारों की ये अगम्भीरता एक प्रमुख कारण है कि आज हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य की कमी परिलक्षित हो रही है । अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर बाल-साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों के मन में ये हल्केपन का भाव क्यों है ? ऊपर स्पष्ट किया गया था कि कथ्य से लेकर भाषा-शैली तक हर स्तर पर बाल-साहित्य में सरलता और सहजता की उपस्थिति अनिवार्य होती है । अब हमारे बड़े और स्थापित साहित्यकार संभवतः इस सरलता और सहजता के कारण ही बाल-साहित्य को हल्का साहित्य मानते हैं । शायद उन्हें लगता है कि ऐसे साहित्य के लिए किसी रचना-कौशल, शब्द-शक्ति या अन्य किसी भी साहित्यिक योग्यता की कोई बहुत आवश्यकता नही होती । जबकि यथार्थ ये है कि  श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना करना भी उतना ही कठिन होता है, जितना कि वयस्क साहित्य की रचना करना । बल्कि कुछ मायनों जैसे कि शब्द-चयन, कथानक  आदि में तो बाल-साहित्य की रचना वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही कठिन होती है । उल्लेखनीय है कि बाल-साहित्य का एक प्रमुख उद्देश्य बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी होता है । इस लिहाज से बच्चों के लिए कुछ भी लिखते समय शब्दों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है । शब्द ऐसे होने चाहिए जिनको बच्चे न सिर्फ सहजता से समझ सकें बल्कि उनसे लगाव भी महसूस करें और पढ़ने के प्रति उनकी इच्छा और उत्साह बढ़े । इस लिहाज से श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना के समय रचनाकार को शब्द-चयन से लेकर कथ्य तक वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही सजग रहना पड़ता है । अतः स्पष्ट है कि स्थापित साहित्यकारों द्वारा बाल-साहित्य को बेजा ही हल्की नज़र से देखा जाता है । उचित तो ये होता कि वे बाल-साहित्य पर ऐसी हल्की सोच रखने की बजाय बच्चों के लिए कुछ श्रेष्ठ साहित्य रचने की कोशिश करते, तब उन्हें आभास होता कि बाल साहित्य कत्तई उतना सरल व सहज नही है, जितना कि वे  समझ रहे हैं ।
  आज के बच्चे ही कल युवा होंगे जिनके कंधों पर राष्ट्र की प्रगति का भार होगा । ऐसे में आवश्यक है कि बच्चों तक ऐसा साहित्य पहुंचे जिससे वर्तमान में उनकी नैतिक व बौद्धिक उन्नति तो हो ही, उनमे भविष्य के प्रति दूरदर्शिता भी आए । अगर हम अपने बच्चों को ऐसा साहित्य दे पाते हैं तो ही हम बच्चों के प्रति अपने दायित्व से कुछ न्याय कर पाएंगे और बच्चों में भविष्य में राष्ट्र को विकासपथ पर ले जाने की क्षमता की बुनियाद का निर्माण भी होगा ।

1 टिप्पणी:

  1. आज नहीं तो कल बाल साहित्य की महत्ता को आंका भी जाएगा और समझा भी जाएगा।

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