- पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण |
आखिरकार
महीनों के राजनीतिक जोड़-तोड़, आरोप-प्रत्यारोप और सभी प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों
की भाषणबाजी के साथ बिहार विधानसभा चुनाव संपन्न हुए और उनके परिणाम भी अब सामने
हैं। ये परिणाम किसीके लिए चौंकाने वाले हैं तो कोई इन्हें सामान्य और प्रत्याशित
बता रहा है। जनादेश कुछ यूँ है कि भाजपा-पासवान-माझी-कुशवाहा के राजग गठबंधन को
पूरी तरह से खारिज करते हुए बिहार के मतदाताओं ने नीतीश-लालू-सोनिया के महागठबंधन
को विजयी बनाया है। महागठबंधन के नेता और राजद अध्यक्ष लालू यादव ने कहा था कि
महागठबंधन १९० सीटें प्राप्त करेगा, उनका ये कथन सही साबित करते हुए महागठबंधन १७८
सीटों पर विजयी रहा तो वहीँ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का दो तिहाई सीटों का दावा
एकदम गलत साबित हुआ और राजग गठबंधन मात्र ५८ सीटों पर सिमट गया। गठबंधन से इतर यदि
सभी दलों की एकल स्थिति का अवलोकन करे तो लालू यादव की राजद ८० सीटों के साथ बिहार
की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है तो वहीँ विगत विधानसभा की तुलना में ४४ सीटों के नुकसान
के साथ नीतीश की जदयू को ७१ सीटें प्राप्त हुई हैं। ४० सीटों पर लड़ने वाली
कांग्रेस को भी अप्रत्याशित रूप से २७ सीटें मिली हैं। इस चुनाव अपने उच्चस्तरीय
प्रचार अभियानों और रणनीतियों के लिए अत्यधिक चर्चा में रहने वाली भाजपा पिछली
विधानसभा की अपेक्षा ३८ सीटें कम होते हुए मात्र ५३ सीटों पर सिमट गई। उसके तीनों
सहयोगी भी जिन्होंने ८७ सीटों पर चुनाव लड़ा था, मात्र ५ सीटें ही जीत सके।
निष्कर्ष यह कि इस चुनाव सीटों के मामले में लालू यादव और कांग्रेस ने तरक्की की
है, बाकी सबको सिर्फ नुकसान ही हुआ है। इन चुनाव परिणामों ने भाजपा के सम्बन्ध में
सर्वाधिक सवाल खड़े किए हैं। सवाल यह कि आखिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री की
अनेकों रैलियों तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत तमाम केन्द्रीय मंत्रियों की लगभग
पूरे चुनाव बिहार में मौजूदगी के बावजूद भाजपा की ऐसी दुर्गत हुई है ? कहा यह भी
जा रहा है कि कहीं प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता ख़त्म तो नहीं हो रही ? दरअसल
यह सब प्रश्न जायज हैं और इनके जवाब आम लोगों के लिए जितने आवश्यक है, उससे कहीं
अधिक भाजपा के लिए इनका उत्तर खोजना जरूरी है।
विचार करें तो बिहार में भाजपा की इस भीषण हार
के लिए कई कारण जिम्मेदार नज़र आते हैं जिनमे बिहार के सामजिक समीकरणों का भाजपा के
विरुद्ध होना, विपक्ष की एकजुटता और खुद भाजपा की तमाम रणनीतिक गलतियां प्रमुख हैं।
दिल्ली को अपवाद मान लें तो विगत वर्ष हुए आम चुनावों और उसके बाद हुए मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि तमाम राज्यों के चुनावों में
भाजपा या भाजपा गठबंधन ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई है। इसी कारण जब बिहार चुनाव
की बात आई तो भाजपा को रोकने के लिए बिहार के दो धुर विरोधियों लालू और नीतीश ने
एकसाथ होकर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया जिसमे उन्हें अपने बेहद बुरे राजनीतिक दौर
से गुजर रही कांग्रेस का भी साथ मिला। नीतीश और लालू बराबर-बराबर १०१ सीटों पर तो
कांग्रेस ४१ सीटों पर लड़ने उतरी। इधर भाजपा ने भी बिहार में जातीय समीकरणों को
साधने के उद्देश्य से पासवान, मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा के साथ चुनाव में उतरने
का तय किया। लेकिन विपक्ष की एकजुटता के आगे भाजपा का यह गठबंधन कारगर नहीं हो
पाया। बिहार के यादव और मुस्लिम वोट पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ पड़े। दलितों और
महादलितों का साथ भी उसे नहीं मिल सका; इसका प्रमाण ६४ सीटों पर लड़ रहे पासवान और
मांझी के दलों को मिली महज ३ सीटें हैं। मांझी खुद उस मखदुमपुर सीट जहाँ
प्रधानमंत्री मोदी ने रैली कर उनके लिए वोट माँगा था, से हार गए। इन बातों से
स्पष्ट होता है कि बिहार के दो सबसे बड़े
क्षेत्रीय दलों तथा कांग्रेस की एकजुटता ने बिहार में भारी जातीय ध्रुवोकरण कर
दिया और उनके वोट बैंक में सेंध लगाने की भाजपा की मंशा को धूमिल कर दिया। हालांकि
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भाजपा हार बेशक गई, पर वोट प्रतिशत के मामले में वो
सबसे अव्वल रही है। आंकड़ो के मुताबिक़ भाजपा को सर्वाधिक २४.४ फीसदी वोट मिले हैं,
लेकिन दिक्कत यही रही कि भाजपा के सहयोगी महागठबंधन के वोटों में सेंध नहीं लगा
सके। परिणामतः आज स्थिति यह है कि जो भाजपा विगत विधानसभा में ९१ सीटों के साथ बिहार
की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, वो इस दफे केंद्र की सत्ता, मोदी जैसे लोकप्रिय
प्रधानमंत्री और सर्वाधिक मतों के होते हुए भी महज ५३ सीटें ही जीत सकी।
डीएनए |
लेकिन भाजपा की हार के
लिए सिर्फ इतनी ही चीजें जिम्मेदार नहीं है। इस चुनाव भाजपा ने अपनी पिछली गलतियों
से सबक लेने की बजाय और गलतियाँ ही की। मोदी की आभा में लोक सभा तथा कुछेक राज्यों
के चुनावों को जीतने के बाद भाजपा ने संभवतः सारी निर्भरता मोदी पर दाल कर चुनाव
के लिए रणनीति बनाना ही छोड़ दिया है। मतलब कि हर राज्य का चुनाव मोदी की प्रतिष्ठा
का चुनाव बना दिया जा रहा है जो कि न केवल मोदी वरन भाजपा के लिए भी घातक सिद्ध हो
रहा है। प्रधानमंत्री पद की एक गरिमा होती
है, भाजपा अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसे लगातार कम कर रही है। कितनी बड़ी
विडंबना है कि एक राज्य के चुनाव में देश का प्रधानमंत्री अपना काम-धाम छोड़कर ३०
रैलियों को संबोधित करता है और उनमे गंभीर बातों और जन-सरोकारी मुद्दों पर
केन्द्रित रहने की बजाय थ्री इडियट्स, भुजंगप्रसाद-चन्दन कुमार, तंत्र-मन्त्र जैसी
अशोभनीय बातों के जरिये आरोप-प्रत्यारोप का खेल-खेलता है। चुनावों में बेशक ऐसी
बातें बोली जाती हैं बल्कि महागठबंधन नेताओं के तरफ से भी बोली गईं, लेकिन उनका उत्तर
राज्य के नेता देते तो ठीक रहता न कि खुद देश के प्रधानमंत्री। अब लालू यादव का
मुकाबला करने के लिए उनकी भाषा के स्तर तक अगर आप जाएंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे
न! बस वही हुआ है। इसके अतिरिक्त भाजपा की एक बड़ी गलती यह भी रही कि वो अपने
मुद्दों पर लड़ने की बजाय विरोधियों के मुद्दों में उलझ गई। आरक्षण के मुद्दे को ही
लें तो इसपर जब सर संघचालक मोहन भागवत का बयान आया कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए,
तो भाजपा ने दृढ़तापूर्वक इसका समर्थन करने की बजाय जातीय समीकरणों के लोभ में इससे
किनारा कर लिया। और प्रधानमंत्री मोदी अपनी रैली में कह आए कि आरक्षण के लिए जान
की बाजी लगा देंगे। यह बिलकुल वही राजनीतिक भाषा थी जो लालू यादव ने मोहन भागवत के
बयान के बाद बोली थी। स्पष्ट है कि यहाँ भाजपा अपने हथियार की बजाय लालू के मनपसंद
हथियार से ही उनसे लड़ने लगी, ऐसे में पराजय तो होनी ही थी। इसके अतिरिक्त बिहार
में नीतीश के सामने सीएम के लिए कोई चेहरा न खड़ा कर पाना भी भाजपा के लिए
घातक साबित हुआ है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह
है कि कुछ बिहार के सामजिक समीकरणों तो बहुत कुछ अपनी रणनीतिक गलतियों के कारण
भाजपा यह चुनाव हारी है। उचित होगा कि वो इनपर आत्ममंथन कर सुधार करे, अन्यथा आने
वाला समय उसके लिए अच्छा नहीं होगा। रहा महागठबंधन तो उसे जीत बेशक मिल गई हो और
नीतीश बाबू सीएम भी बेशक बन जाएं, लेकिन यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि उनकी सरकार कितनी स्थायी हो पाती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें