बुधवार, 25 नवंबर 2015

पंचायती राज के प्रति असजग ग्रामीण [पंजाब केसरी, जनसत्ता, नेशनल दुनिया और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
कई राज्यों में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ राज्यों में हो चुके हैं तो कुछ में अभी जारी हैं। पंचायत चुनाव के इस मौसम में अगर देश के गांवों में जाकर वहां के हाल को समझने की कोशिश की जाय तो हर चौंक-चौराहे इन चुनावों की ही चर्चा है। सीट के सामान्य या आरक्षित रहने के विषय में कौतूहल है तथा प्रत्येक स्थिति के लिए न केवल संभावित प्रत्याशियों वरन ग्रामीण मतदाताओं के पास भी अपनी एक योजना है कि किसके पाले में रहना है और किसे जीताना है। लेकिन विडम्बना ये है कि ये योजनाबद्धता स्थानीय मुद्दों या ग्रामीण समस्याओं के आधार पर कत्तई नहीं है, इसका आधार जाति और लोगों के अपने-अपने व्यक्तिगत हित हैं। हर किसी का गणित है कि किस प्रत्याशी को जिताने पर उसे क्या और कितना लाभ मिल सकता है। अगर किसी पंचायत में एक ही जाति के दो-तीन लोग चुनाव में उतर गए तो वहां व्यक्तिगत हितों के आधार पर मतदाताओं के कई खेमे बन जाते हैं जैसे फलां प्रत्याशी से फलां व्यक्ति के सम्बन्ध अच्छे हैं तो परिवार समेत उसका वोट उसी प्रत्याशी  को जाएगा। अब वो कैसा है, किस छवि का है और उसका क्या एजेंडा है ? ये सब बातें गौण हैं। इसके अतिरिक्त धनबल इन चुनावों में भी सर्वोपरि है। पहले सामान्य तरीके से प्रचार करके प्रत्याशी मतदाता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता था, पर अब पंचायत चुनावों को भी लोकसभा और विधानसभाओं की चुनाव शैली की हवा लग गई है। पंचायत चुनावों पर काफी पैसा बहाया जाने लगा है। पहले ऐसा नहीं था। आमतौर पर लोग उसी प्रत्याशी को विजयी बनाते थे जो गाँव के लिए कुछ कर सकने लायक होता था, लेकिन अब स्थिति एकदम बदल चुकी है। धनबल का आलम यह है कि जो व्यक्ति अरसे से गाँव में रहा तक न हो और जिसे गाँव की समस्याओं-पीड़ाओं का कोई अता-पता भी नहीं हो, वो भी यदि पैसा खर्च करे तो बड़े आराम से चुनाव से चार दिन पहले गाँव में आकर भी एक सशक्त प्रत्याशी बन सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि पंचायत चुनाव भी समस्याओं से इतर जातिगत समीकरणों और धनबल के चक्रव्यूह में उलझा हुआ है। एक समस्या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व की भी है। मसलन, महिला प्रतिनिधित्व के उद्देश्य से जहां प्रधान की सीट महिला आरक्षित हैं, वहां महिला उम्मीदवारी महज प्रतीकात्मकता बन कर रह गई है। पत्नी के नाम से पर्चा दाखिला हुआ लेकिन चुनाव से लेकर जीतने के बाद काम-काज तक सब पति को ही देखना है। और दुखद तो ये है कि इस स्थिति को ग्रामीण लोग बड़े ही सहज भाव से स्वीकार भी किए हुए हैं। ऐसे मामलों में अक्सर वही लोग अपनी पत्नियों को उम्मीदवार बनाकर चुनाव जिताने में सफल होते हैं, जिनका गाँव में दबदबा है और जो खुद पैसे खर्च करने की क्षमता रखते हैं। अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि अपनी पत्नियों को चुनाव जीता कर ये लोग खुद पंचायतों के कामकाज संचालित करते हैं। विचार करें तो इसका मुख्य कारण यही है कि आज आज़ादी के साढ़े छः दशक से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति जागरूकता का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण लोग आज भी इसकी आवश्यकता और महत्व दोनों से अनभिज्ञ हैं।
जनसत्ता 
  इसी संदर्भ में अगर पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हुए इसे समझने का प्रयास करें तो भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। भले से विभिन्न कालों में इसके नाम अलग रहे हों। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक रूप से यह व्यवस्था महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था, आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।“ गांधी की इसी अवधारणा को फलीभूत करने के उद्देश्य से आजादी के पश्चात् संविधान में पंचायती राज की व्यवस्था करते हुए अनुच्छेद-४० में राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने यहाँ पंचायती राज का गठन करें। गांधीजी की इच्छा की पूर्ति के  नैतिक दबाव के कारण तत्कालीन सरकार द्वारा पंचायती राज की दिशा में गंभीरता दिखाते  हुए सन २ अक्तूबर, १९५२ को सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसके तहत सरकारी कर्मियों के साथ सामान्य लोगों को भी गाँव की प्रगति में भागीदार बनाने की व्यवस्था की गई। लेकिन इस व्यवस्था में लोग सिर्फ अपनी बात कह सकते थे, उसके लागू होने या करवाने के सम्बन्ध में उनके पास कोई विशेष अधिकार नहीं था, लिहाजा यह व्यवस्था शीघ्र ही असफल सिद्ध हो गई। कुछ यही हश्र १९५३ में आरम्भ राष्ट्रीय प्रसार सेवा का भी हुआ। इन नीतियों के विफल होने के पश्चात् पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सुझाव देने हेतु सन १९५७ में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने ग्राम समूहों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचित पंचायतों, खण्ड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों तथा ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया। इसके बाद अशोक मेहता समिति, डॉ राव समिति, डॉ एल एम् सिंधवी समिति, थूंगन समिति आदि समितियों का आवश्यकता महसूस होने पर समय दर समय क्रमशः गठन किया गया और इनके द्वारा दिए गए सुझावों पर कमोबेश अमल भी हुआ। आगे इस सम्बन्ध में संविधान में संशोधन भी किए गए जिनमे कि १९९३ में लागू हुआ ७३ वां संविधान संशोधन बेहद महत्वपूर्ण रहा। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई। त्रिस्तरीय पंचायती राज जिसमे सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्थिति में खंड स्तरीय क्षेत्र पंचायत और सबसे ऊपर जिला पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया। हालांकि जिन राज्यों की आबादी २० लाख से कम है, वहां ये मॉडल द्विस्तरीय हो जाता है।
नेशनल दुनिया 
इसके अतिरिक्त संविधान की ग्यारहवी अनुसूची में पंचायतों के लिए अधिकार और कार्य क्षेत्र भी सुनिश्चित किए गए हैं। इन कार्य क्षेत्रों में कृषि विस्तार, पेय जल, सड़क-पुलिया व संचार के अन्य माध्यमों का विकास, शिक्षा, तकनिकी शिक्षा, समाज कल्याण, गरीबी निवारण कार्यक्रमों का निर्माण व संचालन, लोक वितरण प्रणाली, नवीन  ऊर्जा स्रोतों का विकास, सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का निर्वाह आदि कुछ प्रमुख कार्य क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर ऐसे २९ कार्य क्षेत्र हैं जिन्हें पंचायतों के लिए चिन्हित किया गया है। इन कार्यक्षेत्रों के अनुसार ही पंचायतों को अधिकार भी प्राप्त हैं। सरकार की तरफ से  आर्थिक मद भी प्राप्त होता है। लेकिन समस्या वही है, ग्रामीण लोगों में जागरूकता का अभाव।  परिणामतः सरकार की तरफ से आया धन पंचायत के लिए चिन्हित कार्यों में लगने की बजाय ग्राम प्रधान और उसके निकटवर्ती लोगों के बीच बंदरबाट करके समाप्त कर दिया जाता है। मनरेगा जैसी योजनाओं का भ्रष्टाचार इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। अशिक्षित लोग यह सब उतना नहीं समझ पाते लेकिन तमाम लोग समझते भी हैं, मगर आवाज कोई नहीं उठाता। इन्हीं दिक्कतों के मद्देनज़र भारत सरकार द्वारा पंचायतों के डिजिटलकरण की बात की जा रही है और कुछेक कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है।
अमर उजाला 

  डिजिटलीकरण जब होगा तब होगा, फिलहाल आवश्यकता ये है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने की तरफ ध्यान दिया जाय। जागरूकता आने पर लोग पंचायत के कार्यों को समझेंगे तथा प्रधान पर उनके लिए दबाव बना सकेंगे और उसके आनाकानी करने पर ऊपर तक अपील भी कर सकेंगे। मत की ताकत समझ जाने पर वे जाति और व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर मतदान करने की तरफ भी अग्रसर होंगे। इसके अतिरिक्त पंचायती चुनाव प्रणाली में सुधार की भी दरकार है। खासकर चुनाव खर्च की एक सीमा तय की जाय और उसका कड़ाई से अनुपालन करवाया जाय। इससे सही उम्मीदवार के चयन की संभावना बढ़ेगी साथ ही जातीय समीकरणों से पंचायत चुनाव जीतने की रणनीति को भेदने के उपाय भी ज़रूरी है इन चोजों पर अगर ध्यान दिया जाय तो ही हम निकट या दूर भविष्य में सत्ता को विकेंद्रीकृत करके आमजन तक पहुंचा सकते हैं जो कि गांधी का अधूरा सपना है।

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