शनिवार, 20 अगस्त 2016

शुद्ध दूध का संकट [जनसत्ता में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत
विगत दिनों माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दूध में मिलावट पर गंभीर रूप से चिंता जताई गई है। न्यायालय ने इस सम्बन्ध में चिंता जताते हुए कहा है कि इस समस्या से मुकाबले के लिए खाद्य सुरक्षा एवं मानक क़ानून में संशोधन कर इसे और दंडनीय तथा प्रभावी बनाए जाने की जरूरत है। अपने पूर्व के आदेशों का उल्लेख करते हुए मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि सरकार इस क़ानून के सम्बन्ध में भारतीय दंड संहिता में राज्यों की तरफ से सुझाए गए प्रावधानों को अपनाए तो सम्बंधित समस्या के समाधान के लिए ठीक रहेगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि चूंकि नवजात शिशुओं को दूध दिया जाता है, इसलिए इसका मिलावटयुक्त होना और भी अधिक घातक है। गौर करें तो यह कोई पहली बार नहीं है, जब दूध में मिलावट को लेकर न्यायालय की तरफ से चिंता जताई गई हो या निर्देश दिए गए हों। इससे पहले भी गत वर्षों में कई बार न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध में सरकारों को विविध निर्देश दिए जाते रहे हैं। बीते वर्ष २०१४ के आखिर में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दूध में मिलावट की समस्या को बेहद गंभीर बताते हुए केंद्र सरकार से कहा गया कि वो ‘खाद्य संरक्षा व मानक क़ानून’ में संशोधन के लिए विचार करे। इसके अलावा न्यायालय द्वारा राज्य सरकारों को भी अपने-अपने राज्य में दूध में मिलावट की स्थिति तथा इससे सम्बंधित क़ानून की मौजूदा स्थिति में संशोधन करने या नया क़ानून बनाने जैसे पहलुओं पर विचार करके न्यायालय में रिपोर्ट पेश करने को कहा गया। इससे पहले २०१४ में ही फ़रवरी में शीर्ष न्यायालय द्वारा दूध में मिलावट पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों से सम्बंधित क़ानून को सख्त बनाने के लिए कहा गया था। लेकिन, इस दिशा में अबतक कोई प्रगति देखने को नहीं मिली और देश के लगभग सभी राज्यों में दूध में मिलावट बदस्तूर जारी है। परिणामतः न्यायालय को एकबार फिर इस सम्बन्ध में अपनी बात दोहरानी पड़ी है। दरअसल दूध में मिलावट की समस्या देश में इस कदर और इतने भयानक रूप से फ़ैल गई है कि न्यायालय को बार-बार इस सम्बन्ध में निर्देश देने पड़ रहे हैं। पिछले साल यूपी के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने खुलासा किया था कि मदर डेयरी जैसी दूध की विश्वसनीय एजेंसी के दूध के सैंपल में डिटर्जेंट पाया गया है। ऐसे ही और भी तमाम खुलासे अक्सर होते रहते हैं। यह वर्तमान समय का कटु सत्य है कि आज देश में मिलावटी दूध का कारोबार बहुत तेजी से फ़ैल चुका है और इस सबंध में दूध मुहैया कराने वाली कोई भी एजेंसी विश्वसनीय नहीं रह गई है। कम से कम लागत में अधिकाधिक मुनाफा कमाने की  दुष्प्रवृत्ति के कारण दूध व्यापारियों द्वारा ग्राहक की सेहत से बेपरवाह इसमें पानी से लेकर डिटर्जेंट,, यूरिया जैसी बेहद हानिकारक चीजें तक मिलाई जा रही हैं।

अभी दूध में मिलावट करने व इसकी बिक्री करने के लिए न्यूनतम छः महीने की सजा का प्रावधान है जो कि इस अपराध के लिहाज से बेहद कम है। मिलावट का यह अपराध लोगों के जीवन को खतरे में डालने के अपराध जैसा है, अतः इसके लिए क़ानून व सजा आदि एकदम सख्त होनी चाहिए।  पर दूध मिलावट का ये क़ानून ऐसा है कि मिलावटखोर के पकड़े जाने पर भी इसमें सजा की नौबत आती ही नहीं है। क्योंकि इस क़ानून में मिलावट करने वालों के लिए प्राथमिकी दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। अब जब प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होती, तो पुलिस कार्रवाई क्यों करे। आख़िरकार अधिकाधिक मामले लेन-देन के द्वारा निपटा दिए जाते हैं। इन्ही सब विसंगतियों के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि दूध मिलावट के लिए मौजूदा क़ानून में समुचित संशोधन किए जाएं व इसकी सजा को उम्रकैद कर दिया जाय, लेकिन न्यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद सरकारें जाने क्यों इसको लेकर अबतक कुछ नहीं कर रही हैं।  


देश में दूध में मिलावट की स्थिति कितनी भयावह है, इसको गत वर्ष हुए एक सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ आंकड़ों के जरिये बखूबी समझा जा सकता है। शुद्ध दूध की उपलब्धता के सम्बन्ध में खाद्य सुरक्षा एवं मानक अथारिटी (एफएसएसएआई) के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पिछले वर्ष जो तस्वीर सामने आई है, वो न सिर्फ चौंकाती है बल्कि डराती भी है। इस सर्वेक्षण में देश भर में परिक्षण किए गए दूध के नमूनों में से ७० फिसद नमूनों में मिलावट पाई गई थी। चौंकाने वाली बात तो ये है कि इस सर्वेक्षण के अंतर्गत बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा, मिजोरम आदि राज्यों के दूध के नमूनों में से तो एक भी नमूना दूध की शुद्धता के मानक के अनुरूप नहीं ठहरा। अर्थात कि सब में भारी मात्रा में मिलावट पाई गई। इनके अतिरिक्त पंजाब के दूध के नमूने में ८१, दिल्ली में ७०, गुजरात में ८९, महाराष्ट्र में ६५, राजस्थान में ७६, जम्मू-कश्मीर में ८३ और मध्य प्रदेश में ४८ प्रतिशत मिलावट पाई गई। गोवा और पुडुचेरी मात्र दो ऐसे राज्य हैं, जिनके दूध के नमूने शत-प्रतिशत शुद्ध व तय मानकों के अनुरूप थे। मिलावट के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं में सर्वाधिक मात्रा पानी की है। पानी की मिलावट के पीछे दूध व्यापारियों का सिर्फ इतना उद्देश्य होता है कि कम दूध को ज्यादा करके अधिक मुनाफा कमाया जा सके। अब मुनाफा कमाने के अन्धोत्साह में ये व्यापारी  शायद यह भूल जाते हैं कि पानी की मिलावट से दूध की गुणवत्ता तो नष्ट हो ही जाती है, पानी में मौजूद कीटाणु आदि दूध में पहुंचकर लोगों के स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचा सकते हैं। इतना ही नहीं, पानी मिलाने के बाद दूध का गाढ़ापन कम होता है, तो पकड़े जाने से बचने के लिए वे दूध का गाढ़ापन, स्वाद और घनत्व बढ़ाने के लिए उसमें यूरिया, स्टार्च, फॉर्मेलिन, डिटर्जेंट, स्किम मिल्क पावडर, न्यूट्रालाइजर्स आदि तमाम हानिकारक तत्वों की मिलावट कर देते हैं।
उपर्युक्त सर्वेक्षण में ही पाया गया है कि दूध के ४६ प्रतिशत नमूनों में जहाँ पानी की मिलावट पाई गई, वहीँ बाकी में डिटर्जेंट, यूरिया आदि अनेक हानिकारक तत्वों की। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि आहार विशेषज्ञों के अनुसार अभी तक तीन सफेद खाद्य वस्तुओं को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था जिनमें नमक, शकर और मैदा शामिल थी, लेकिन अब इस सूची में  दूध भी शुमार हो गया है। ‘द इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि डिटर्जेंट के कारण खाद्य विषाक्तता (फूड पॉइजनिंग) और आंतों एवं पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा दूध में मिलावट के कारण हृदय संबंधी समस्या, कैंसर और कई बार मृत्यु तक हो सकती है। जिस दूध में यूरिया, कास्टिक सोड़ा या फॉर्मेलिन की मिलावट है, उसे पीने से तुरंत को पेट संबंधी दिक्कतें शुरू होती हैं और लंबे समय में यह गंभीर बीमारी में बदल जाती है, जो जानलेवा हो सकती है। लेकिन, अपने मुनाफाखोरी के आगे लोगों की स्वास्थ्य चिंता दूध व्यापारी क्यों करे, तिसपर क़ानून की लचरता भी उन्हें मिलावट के लिए निर्भय बना देती है। 
जनसत्ता

इन सब तथ्यों  के बाद यह समझना बेहद आसान है कि देश में दूध में मिलावट का धंधा किस स्तर पर चल रहा है और इससे देश के लोगों का स्वास्थ्य किस हद तक दुष्प्रभावित हो सकता है। पर, विडम्बना ये है कि देश के लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े इस बेहद गंभीर मसले को लेकर देश की शीर्ष अदालत जितनी गंभीर है, उसकी तुलना में इस देश की सरकारें कुछ भी नहीं। सरकारों की अगम्भीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई दफे कहे जाने के बावजूद केंद्र या राज्य सरकारों ने दूध मिलावट की रोकथाम के लिए सम्बंधित क़ानून को सख्त बनाने की दिशा में अबतक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
अगर एक नज़र दूध मिलावट के लिए मौजूद क़ानून व सजा आदि पर डालें तो हम समझ सकते हैं कि यहाँ मामला कितना लचर है। अभी दूध में मिलावट करने व इसकी बिक्री करने के लिए न्यूनतम छः महीने की सजा का प्रावधान है जो कि इस अपराध के लिहाज से बेहद कम है। मिलावट का यह अपराध लोगों के जीवन को खतरे में डालने के अपराध जैसा है, अतः इसके लिए क़ानून व सजा आदि एकदम सख्त होनी चाहिए।  पर दूध मिलावट का ये क़ानून ऐसा है कि मिलावटखोर के पकड़े जाने पर भी इसमें सजा की नौबत आती ही नहीं है। क्योंकि इस क़ानून में मिलावट करने वालों के लिए प्राथमिकी दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। अब जब प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होती, तो पुलिस कार्रवाई क्यों करे। आख़िरकार अधिकाधिक मामले लेन-देन के द्वारा निपटा दिए जाते हैं। इन्ही सब विसंगतियों के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि दूध मिलावट के लिए मौजूदा क़ानून में समुचित संशोधन किए जाएं व इसकी सजा को उम्रकैद कर दिया जाय, लेकिन न्यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद सरकारें जाने क्यों इसको लेकर अबतक कुछ नहीं कर रही हैं। आज जरूरत ये है कि दूध मिलावट से सम्बंधित क़ानून में संशोधन कर प्राथमिकी दर्ज करने की व्यवस्था लाई जाय तथा इसकी सजा को भी सख्त किया जाय। साथ ही, स्वास्थ्य विभाग में फुड इंस्पेक्टरों की किल्लत को भी दूर करने की जरूरत है जिससे कि मिलावटखोरों के खिलाफ सही ढंग से कारवाई करते हुए उनपर नकेल कसी जा सके। इन सब चीजों के लिए पहली आवश्यकता यही है कि हमारी सरकारें इस मसले की गंभीरता को समझें कि ये इस देश के नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है। अगर केंद्र व राज्य सरकारें इस विषय को लेकर गंभीर होते हुए दृढ इच्छाशक्ति के साथ दूध में मिलावटखोरी की रोकथाम के लिए उक्त कदम उठाती हैं तो धीरे-धीरे ही सही इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।