रविवार, 14 अगस्त 2016

पुस्तक समीक्षा : अनदेखी दुनिया से रूबरू कराती कहानियाँ (दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)


  • पीयूष द्विवेदी भारत
तेजेंद्र शर्मा जी के कहानी संग्रह ‘बेघर आँखें’ की कहानियां अपने आप में न केवल अलग और अनूठी हैं, बल्कि उनकी विषयवस्तु का प्रस्तुतिकरण भी ऐसे हुआ है कि पढ़ने के बाद किसी भी आम पाठक को ऐसा प्रतीत होगा कि उसने कुछ नया पाया है। ये कहानियां एक मित्रवत अध्यापक की तरह हैं, जो पाठकों से बोलते-बतियाते हुए उनका ज्ञानवर्द्धन करती हैं। इन कहानियों को पढ़ने पर सहज ही यह अनुभव होता है कि इन्हें ऐसे ही हवा-हवाई ढंग से नहीं लिखा गया है, बल्कि इनके पीछे गहन शोध हुआ है और एक-एक तथ्य को बारीकी से समझकर फिर इनका ताना-बाना बुना गया है। हालाकि तेजेंद्र जी के लिए इनमे शोध का काम उनके अपने लम्बे जीवनकाल के अनुभवों ने ही किया होगा; ये कहीं न कहीं उनका अध्ययन और अनुभव से उत्पन्न ज्ञान है, जो उनके समग्र कथा-साहित्य की अधिकांश कहानियों और इस संग्रह की कहानियों में भी प्रत्यक्ष दिखता है।
पुस्तक आवरण
तेजेंद्र जी की अति-प्रसिद्ध कहानी ‘कब्र का मुनाफा’ इस संग्रह की कुल बारह कहानियों में पहली कहानी है। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी विषयवस्तु ही है। धन के आगे कैसे मानवीय संबंधों से लेकर खुद मनुष्य तक का अस्तित्व बौना होता जा रहा है, इस सामाजिक विसंगति को ‘कब्र का मुनाफा’ कहानी में बड़े अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कहानी के दोनों प्रमुख पात्रों खलील और नजम जिन्होंने अपने देश से दूर एक विदेशी कंपनी को बढ़ाकर काफी पैसा कमा लिया है, द्वारा जब अपने लिए कब्र की बुकिंग करवाई जाती है, तो पाठक चकित और हतप्रभ रह जाता है। कब्र की बुकिंग ? ये कैसी हकीकत सामने ला दी है कथाकार ने! अब क्या रिश्तों की डोर इतनी कमजोर हो गई है कि अपनी मौत तक की तैयारी आदमी को खुद करनी पड़ रही है। ऐसे स्वाभिमानी लोग तो होते हैं जो अपने क्रियाकर्म आदि के लिए कुछ धन सुरक्षित रख देते हैं, मगर यहाँ बात स्वाभिमान से कहीं अधिक धन से उपजे दंभ की है। खलील और नज़म कब्र की बुकिंग करते हैं ताकि मरने के बाद उन्हें पूरी शानो-शौकत के साथ दफनाया जाय और उनकी कब्र भी पूरी आलिशान बने, जिससे वे थकान भरे जीवन ख़त्म होने पर मौत के बाद आराम से रह सकें। इस दौरान शिया मुसलमानों के लिए अलग से ‘रिजर्व्ड कब्रिस्तान’ की चर्चा के जरिये मुस्लिम समुदाय में मौजूद ऊंच-नीच के भेदभाव को भी लेखक ने हल्के से छू लिया है। तिसपर कहानी का अंत तो हिलाकर रख देता है, जब खलील और नज़म द्वारा कब्र की बुकिंग को भी एक तिकड़म भिड़ाकर अपने लिए मुनाफे का धंधा बना लिया जाता है। अधिक पैसा आदमी को किस हद तक संवेदना और भावना से विहीन तथा दम्भी बना देता है, यह कहानी इसको शानदार ढंग से अभिव्यक्त करती है।
दैनिक जागरण
‘अभिशप्त’ और ‘पासपोर्ट का रंग’ संग्रह की ये दो कहानियां भिन्न विषयवस्तु की होने के बावजूद मूल रूप से इस केन्द्रीय-भाव पर आधारित हैं कि सामाजिक-आर्थिक आदि किसी न किसी मजबूरी के कारण अपने देश से विदेश में जाकर बसे भारतीयों में देशप्रेम की भावना कितनी प्रबल होती है, मगर फिर भी किसी न किसी मजबूरी में वे देश से दूर ही रह जाते हैं। ‘अभिशप्त’ कहानी का पात्र रजनीकांत बीए करने के बाद अच्छी नौकरी न मिलने और इतनी पढ़ाई के बाद देश में मजदूरी न करने की कुलीन-मध्यमवर्गीय मानसिकता के कारण मजबूरी में लन्दन आकर कुलीगिरी कर लेता है और फिर यहीं शादी-विवाह-बच्चे सब हो जाते हैं। इसके बाद पारिवारिक समस्याओं में फंसकर यही का हो जाता है और देश जाने की लाख इच्छा होने पर भी नहीं जा पाता। दूसरी तरफ ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी में बाऊजी की पीड़ा यह है कि उन्हें लन्दन में बसे बेटे के साथ रहने की मजबूरी में भारत की नागरिकता छोड़ उस ब्रिटेन की नागरिकता लेनी पड़ रही है, जिसके खिलाफ आजादी की लड़ाई में वे गोलियां खा चुके हैं। इस दौरान भारत सरकार की तरफ से यह ऐलान कि वो पांच देशों के भारतीयों को दोहरी नागरिकता देगी, उन्हें ख़ुशी से भर देता है। मगर, यह ऐलान सिर्फ ऐलान ही रह जाता है। सरकारें बदल जाती हैं, मगर इस ऐलान को अमलीजामा नहीं पहनाया जाता। आखिर बाऊजी भारतीय नागरिकता पाने की अपनी अधूरी इच्छा के साथ ही दुनिया से चल बसते हैं।  यहाँ लेखक ने प्रवासी भारतीयों के प्रति भारत सरकार की ढुलमुल कार्यप्रणाली को उजागर करने का भी सफल प्रयास किया है। ये कहानियां कहीं से भी बनावटी नहीं लगतीं। इसका कारण यह है कि लेखक खुद वर्षों से लन्दन के वासी हैं और इस नाते वहाँ से जुड़ी हर बात को पूरी बारीकी से जानते-समझते हैं। ब्रिटेन की सामाजिक-आर्थिक-प्रशासनिक परिस्थितियों को संक्षिप्त रूप से जानने की दृष्टि से भी ये कहानियां बेहद कारगर कही जा सकती हैं।   
‘ये क्या हो गया’, ‘मुझे मार डाल बेटा’, एकबार फिर होली’ आदि संग्रह की अन्य कहानियां भी अलग-अलग विषयवस्तुओं पर आधारित हैं। लगभग सभी कहानियां उच्च और निम्न मध्यमवर्ग की ही समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। इनमें ज्यादातर रोटी-पानी की जद्दोजहद से इतर कुछ ऐसी समस्याओं को रचनाकार ने अपना लक्ष्य बनाया है, जिनको या तो हम समझ नहीं पाते या समझते हुए भी नज़रन्दाज कर देते हैं।
भाषा सीधी-सरल हिंदी है, जिसमे उर्दू-फारसी और आवश्यकतानुसार अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर भाषा ऐसी है कि हिंदी की  सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति को भी यह कहानियां सहज ही समझ आ सकती हैं।
मोटे तौर पर तेजेंद्र जी की कहानियों के सम्बन्ध में एक बात स्पष्ट है कि ये हवा-हवाई नहीं, अनुभव की आंच से तपी कहानियाँ हैं। उन्होंने जो जिया है, महसूस किया है, वही लिखा है। उन्होंने अगर खेती-किसानी की समस्याओं को नहीं देखा-समझा है तो उनपर जबरन कलम चलाकर नकली कहानियां भी नहीं लिखी हैं। भरपेट खा-पीकर और वातानूकूलित कमरे में बैठकर दिन-रात पसीना बहाते मजदूर की कहानियां रचने वाले ज्यादातर नवोदित कहानीकारों को तेजेंद्र जी की इन कहानियों को पढना चाहिए, संभव है कि इनसे उन्हें असली और नकली कहानी का अंतर समझ आए और वे अपनी कहानी को असलियत के नज़दीक ले जा सकें।

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