रविवार, 7 अगस्त 2016

नशे की तरह है सोशल मीडिया [राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
राज एक्सप्रेस
हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा वहाँ की निचली अदालतों के न्यायाधीशों एवं कर्मचारियों को अदालत की कार्य-अवधि (वर्किंग ऑवर) के दौरान सोशल मीडिया का प्रयोग न करने का निर्देश जारी किया है। कहा गया है कि न्यायाधीश समेत अदालत के कर्मचारी अदालती कामकाज के दौरान मोबाइल आदि पर सोशल साइट्स न देखें। हालाकि इस दौरान बहुत आवश्यक होने पर परिवार से बात करने के लिए उन्हें इंटरनेट के इस्तेमाल की जायज छूट अवश्य दी गई है। इस निर्देश का अनुपालन न करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का भी नियम निर्धारित किया गया है। यह निर्देश हरियाणा-पंजाब और चंडीगढ़ की जिला अदालतों के लिए जारी किए गए हैं। ज्ञात हो कि हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय में यह नियम पहले से ही लागू है। सवाल यह है कि उच्च न्यायालय को इस प्रकार का नियम लागू करने की जरूरत क्यों महसूस हुई ? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें वर्तमान में सोशल मीडिया के स्वरुप और इसके प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण पर एक दृष्टि डालनी होगी।
दरअसल मौजूदा दौर सोशल मीडिया का है। चाहें सरकारी कार्यक्षेत्र से सम्बद्ध लोग हों या निजी क्षेत्र से, वे फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइट्स से जुड़ने और उनपर सक्रिय होने में कत्तई पीछे नहीं रह रहे हैं। सोशल मीडिया आज अभिव्यक्ति और संवाद का एक ऐसा माध्यम बन गया है, जहां देश-विदेश में घट रही प्रत्येक घटना पर तुरंत प्रतिक्रियाओं से लेकर अपने मनोभावों और निजी जीवन की झलकियों तक लोग हर विषय पर स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, राजनीति, दर्शन, प्रेम, धर्म आदि जिस विषय में व्यक्ति की रूचि है, उस विषय का समाज सोशल मीडिया पर जोरों-शोरों से सक्रिय है और खुद को अभिव्यक्त कर रहा है। साथ ही, इसपर व्यक्ति को अपनी बात पर इतना शीघ्र प्रतिक्रिया प्राप्त होती है कि वो स्वयं को अभिव्यक्त करने से नहीं रोक पाता। इन तमाम अच्छी चीजों के साथ ही इसकी कुछ बुराइयां भी हैं। इसका प्रयोग तब तक ठीक है, जबतक यह एक नशे का रूप न ले। यदि यह नशे का रूप ले लिया तो चिंता की बात है। अक्सर यह तब नशे का रूप ले लेता है, जब व्यक्ति के पास हमेशा इंटरनेट की उपलब्धता हो। ऐसे में, पोस्ट डालना और उसके बाद मिनट-मिनट पर उसपे आए पसंद एवं टिप्पणियों को चेक करना, इस नशे का सबसे बड़े लक्षण है। इससे बचने की जरूरत होती है। मगर, आज के समय में इंटरनेट की उपलब्धता होने के पर  इस नशे से खुद को बचाए रखने में अधिक लोग शायद ही सक्षम हो पाएं। बहरहाल, अब यूँ तो आज के समय में अधिकांश सरकारी कार्यालयों में इंटरनेट होता है, इसी कारण कार्य-अवधि में भी वहाँ के कर्मचारी कंप्यूटर और इंटरनेट उपलब्ध होने पर अपना लम्बा समय सोशल साइट्स पर बिताते हैं। ये संसाधन उपलब्ध न होने पर अपने मोबाइल के जरिये वे सोशल साइटों पर सक्रियता बनाए रहते हैं। इस चक्कर में कार्यालयी काम से उनका ध्यान भटकता है, जो अक्सर उनके कार्य की गुणवत्ता पर भी अत्यंत नकारात्मक प्रभाव डालती है। साथ ही, एक पक्ष यह भी है कि कार्य के दौरान व्यक्ति के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां और समस्याएँ आदि होती हैं, जिनसे उसे जूझना पड़ता है। इस दौरान व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की मनोदशाओं से गुजरना होता है। तिसपर न्यायालयों की कार्यप्रणाली तो वैसे भी अत्यंत सजग और सतर्कता की अपेक्षा करती है। अनगिनत धाराएं, अनेक अनुच्छेद, विविध मामलों से भरी इस जटिल कार्यप्रणाली में जरा-सा ध्यानभंग हुआ नहीं कि धारा कुछ होगी और न्यायाधीश महोदय मामला कुछ और समझ बैठेंगे। यह भी संभव है कि कार्य के दौरान उपस्थित कभी किसी विशेष मनोदशा  में अदालत का कोई कर्मचारी ही सोशल मीडिया पर अदालती कार्यवाही से जुडी कोई ऐसी बात साझा कर दे, जो सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए तो अलग समस्या खड़ी हो सकती है। संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालतों के लिए उक्त निर्देश जारी किया गया है। देश के अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों को भी अपने यहाँ इस प्रकार का अनुशासन लागू करना चाहिए। अदालतें ही क्यों, अन्य तमाम सरकारी कार्यालयों जैसे बैंक, बीमा समेत रेलवे और पुलिस थानों  आदि प्रशासनिक सेवाओं के कार्यालयों में भी इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए। सरकार चाहे तो इसके लिए तकनीक की सहायता भी ले सकती है। इस सम्बन्ध में निजी क्षेत्र से सीख लेने की जरूरत है, जहां तमाम ऐसी कम्पनियां हैं, जिन्होंने अपने कर्मचारियों को दिए कम्प्यूटर्स पर सोशल साइटों को अवरोधित (ब्लॉक) कर रखा है। इससे इंटरनेट होते हुए भी उनके कर्मचारी सोशल साइटों पर अधिक समय नहीं दे सकते। इसका असर यह है कि निजी क्षेत्र में कार्य को लेकर कर्मचारी एकदम मुस्तैद हैं और कार्य की गुणवत्ता भी बेहतर होती है। कुल मिलाकर हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय का उक्त निर्देश एक उदाहरण की तरह है, जिसका राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी कार्यालयों में जैसे भी संभव हो, अनुसरण किया जाना चाहिए, जिससे सरकारी अधिकारी-कर्मचारी सोशल मीडिया के नशे का शिकार न हों।

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