शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

संघ पर सवाल उठाने से पहले मुस्लिम ये बताएं कि उन्होंने आजादी के लिए क्या किया ?


  • पीयूष द्विवेदी भारत
मुस्लिम समुदाय के बहुतायत लोगों द्वारा अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आज़ादी की लड़ाई में क्या योगदान दिया है ? लेकिन, ये सवाल उठाने वाले से पलटकर अगर यह पूछ दिया जाता है कि मुस्लिम समुदाय आज़ादी के समय क्या कर रहा था, तो वे अक्सर बगले झांकने लगते हैं और अंततः कोई जवाब नहीं दे पाते। जवाब देंगे भी कैसे! जवाब देने के लिए उनके पास कुछ भी ठोस नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन १९२५ में केशव बलिराम हेडगवार द्वारा की गई थी, जिसके लगभग दो दशक बाद सैकड़ों वर्षों से विविध रूपों में जारी आज़ादी का संघर्ष हमें पूर्ण स्वराज मिलने के साथ समाप्त हो गया था। अपनी स्थापना के बाद संघ ने विविध प्रकार से आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया, लेकिन चूंकि उस वक़्त आज़ादी के आन्दोलन का राष्ट्रीय मंच कांग्रेस थी और आज़ादी के लिए संघर्षरत सभी अन्य संगठन उसीके साथ मिलकर संघर्ष का रहे थे, इसलिए संघ भी उसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहा। हेडगवार द्वारा सन १९२० जब अभी संघ की स्थापना नहीं हुई थी, में ही कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित करने की मांग की गई थी, लेकिन तब यह स्वीकृत नहीं हुई। लेकिन, जब सन १९३० में कांग्रेस को अपनी भूल का आभास हुआ और उसने पूर्ण स्वराज को अपनी मांग घोषित कर दिया, तब संघ प्रमुख हेडगवार ने संघ की सभी शाखाओं में पत्र के द्वारा यह सूचना भिजवा दी कि १५ जनवरी, १९३० को स्वतंत्रता दिवस मानते हुए सभी शाखाओं पर झंडा फहराया जाय। १९२८ में साइमन कमीशन के विरोध में नागपुर में संघ स्वयसेवक सबसे आगे रहे थे। इसी वर्ष सत्याग्रह कर रहे डॉ। हेडगवार, दादाराव परमार्थ, अप्पाजी जोशी आदि अनेक स्वयंसेवक संघर्ष करते हुए घायल होने से लेकर जेल जाने तक तमाम यातनाएं सहन किए। यह स्वतंत्रता संग्राम में संघ की सक्रियता का प्रभाव ही था कि सन १९४० में अंग्रेज सरकार उससे इतनी आतंकित हुई कि संघ की सैनिक वेश-भूषा पर राष्ट्रीय प्रतिबन्ध ही लगा दी। ऐसे ही और भी कई जनांदोलनों में संघ ने अग्रणी भूमिका निभाई। यहाँ तक एक तथ्य तो यह भी है कि १९४३ में अंग्रेज सरकार  के गुप्तचर विभाग ने एक रिपोर्ट पेश की जिसमे स्पष्ट कहा गया था कि संघ के पास आज़ादी के लिए एक पूरी सुनियोजित रूप-रेखा थी। स्पष्ट है कि संघ ने अपनी स्थापना के बाद से आज़ादी मिलने तक के २२ वर्षों के अपेक्षाकृत कम समय में ही आज़ादी के लिए व्यापक स्तर पर अपनी तात्कालिक क्षमतानुसार भारी संघर्ष किया। ये अलग बात है कि आज़ादी के बाद देश में कांग्रेस का शासन स्थापित हो गया, जिसके फलस्वरूप स्वतंत्रता के लिए सिर्फ कांग्रेसी योगदानों को सर्वाधिक रूप से याद और इतिहास-पुस्तकों में उल्लिखित किया गया। अनेक छोटे-बड़े संगठनों और व्यक्तियों जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपने स्तर पर अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया था, का उल्लेख इतिहास में चलते-फिरते कुछ पंक्तियों में करके ही निपटा दिया गया। संघ भी इसीका एक उदाहरण है।

यह तो बात हुई संघ की! अब संघ पर आज़ादी में योगदान न देने का हवा-हवाई आरोप लगाने वाले मुस्लिम समुदाय के आज़ादी की लड़ाई में योगदान पर गौर करें उससे पहले यह उल्लेखनीय होगा कि अंग्रेजों को भारत में जमने देने वाले कोई और नहीं मुस्लिमों के पूर्वज यानी मुग़ल ही थे। जहांगीर के कमजोर शासन और अदूरदर्शी नीति का ही ये कुपरिणाम था कि कभी भारत के हिस्से में व्यापार के लिए बादशाह के आगे अनुनय-विनय करने वाली बिर्टिश ईस्ट इंडिया कंपनी अगले कुछ वर्षों में ही देश की शासक बन गई। आज़ादी की लड़ाई में इनके योगदान पर आएं तो बीसवीं सदी जब स्वतंत्रता संग्राम अपने असली उफान पर था और देश का लक्ष्य सिर्फ पूर्ण स्वतंत्रता थी, तब मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि अंग्रेजों से चिपककर अपने संकीर्ण हित साध रहे थे। मुस्लिम लीग का इतिहास किसीको बताने की जरूरत नहीं कि जब पूरे देश के लिए राष्ट्रीय स्वाधीनता महत्वपूर्ण थी, उस समय इन्हें मुस्लिमों का हित सर्वोपरि दिख रहा था और उसके लिए ये अंग्रेजों से चिपककर बैठे थे। इनकी तमाम मांगें अंग्रेजों ने बड़ी ही जल्दी मान भी ली थी, क्योंकि उन्हें पता था कि मुस्लिम लीग का होना भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई को कमजोर करेगा। इसके अतिरिक्त पूरा इतिहास छान लीजिये, उसमे मुस्लिम समुदाय या इनके किसी संगठन द्वारा किया गया एक भी ऐसा छोटा-बड़ा आन्दोलन नहीं मिलेगा जो भारत की स्वतंत्रता के लिए किया गया हो। एक आन्दोलन (खिलाफत आन्दोलन) इन्होने किया भी तो वो देश की आज़ादी के लिए नहीं, अपने मजहबी प्रमुख तुर्की खलीफा को हटाने के विरोध में। ये आन्दोलन भारत के लिए नहीं, इस्लाम के लिए था। स्पष्ट है कि तब भी इनके लिए देश से अधिक मज़हब महत्वपूर्ण था। ये अलग बात है कि तभी महात्मा गांधी असहयोग आन्दोलन आरम्भ किए थे, सो उन्होंने सांप्रदायिक एकता की दृष्टि से किसी तरह समझा-बुझाकर इनके उस आन्दोलन को भी असहयोग आन्दोलन में ही आत्मसात कर लिया। अन्यथा तो ये अपने इस्लाम की हिफाज़त के लिए ही अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए थे। बाकी आज़ादी मिलने के बाद इन्होने अलग मुल्क के नाम पर क्या तांडव मचाया और दूसरी तरफ संघ ने कैसे विभाजन से लेकर ६२ के चीन युद्ध और फिर आपातकाल तक विभिन्न मोर्चों पर देशहित के लिए कैसे संघर्ष किया, उसका इतिहास अलग है। अतः उचित होगा कि संघ पर आज़ादी की लड़ाई में योगदान न देने का आरोप लगाने से पहले मुस्लिम समुदाय एकबार अपने गिरेबां में झाँक लिया करे, फिर अगर उसमे नैतिकता का अंश भी होगा तो ये आरोप लगाने के लिए उसकी जबान हिलेगी भी नहीं।

1 टिप्पणी:

  1. पेटिकोट के दीवानी और दीवाने एक बार इसे ज़रूर देखें एक ऐसा सच पढ़ें जिसे आपको कोई नहीँ बताता


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