मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

सॉफ्ट पॉर्न पर भी लगे अंकुश (दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)


  • पीयूष द्विवेदी भारत

बीते दिनों हैदराबाद में प्रियंका रेड्डी के बलात्कार और जलाए जाने का मामला सामने आने के बाद एकबार फिर देश में बलात्कार को लेकर आक्रोश देखने को मिला। इस मामले के चार आरोपियों का भागने की कोशिश के दौरान हैदराबाद पुलिस एनकाउंटर कर चुकी है, जिसपर मानवाधिकार की अलग चर्चा चल रही है। इन सब के बीच देश में कई और बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं यानी कि इतने शोर-शराबे के बाद भी ऐसी घटनाएं रुक नहीं रहीं। ऐसे में प्रश्न यह है कि बलात्कार की समस्या का मूल कारण क्या है और किस तरह इसे रोका जा सकता है? कुछ लोग मानते हैं कि कड़ा क़ानून बनाकर बलात्कार पर अंकुश लगाया जा सकता है तो कुछ का मानना है कि बलात्कारियों को गोली मार देना इसका उपाय है। लेकिन विचार करें तो वास्तव में इन सब बातों में अज्ञान आधारित भावुकता ही अधिक है, ठोस समाधान नहीं। देश में बलात्कार को लेकर पहले से ही बहुत सख्त क़ानून मौजूद है, उसे और कितना भी सख्त कर लिया जाए, बलात्कार को रोकने में बहुत अधिक कारगर नहीं हो सकता। कारण यह कि बलात्कार चोरी-तस्करी जैसा कोई पेशेवर अपराध नहीं है, बल्कि यौन कुंठाओं और मानसिक विकृति से अभिप्रेरित एक बर्बर आपराधिक कृत्य है।

अब प्रश्न यह उठता है कि फिर बलात्कार को रोकने का उपाय क्या है? बलात्कार पर अंकुश के लिए आवश्यक है कि लोगों में यौन कुंठा और विकृति पैदा करने वाले कारकों पर लगाम लगाई जाए जिनमें एक प्रमुख कारक है - पॉर्न। उल्लेखनीय होगा कि प्रियंका रेड्डी प्रकरण में ही जहां एक तरफ लोग बलात्कार को लेकर आक्रोश व्यक्त कर रहे थे, वहीं यह घृणास्पद जानकारी भी सामने आई कि बहुत से लोग पॉर्न  वेबसाइटों पर पीड़िता के नाम से वीडियो खोज रहे थे।
इसके बाद सोशल मीडिया पर तमाम लोगों ने पॉर्न पर प्रतिबन्ध की बात उठाई तो वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर केंद्र सरकार से सभी पॉर्न वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है। इस प्रकरण के दौरान केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए बताया कि सरकार ने तीन सौ के करीब चाइल्ड पॉर्न की वेबसाइटों को प्रतिबंधित किया है। यह अच्छा है कि अब बलात्कार के पीछे पॉर्न को जिम्मेदार मानकर बहस होने लगी है, लेकिन पॉर्न की ये समस्या सिर्फ इसकी वेबसाइटों तक सीमित नहीं है बल्कि टीवी, सिनेमा जैसे मनोरंजन के क्षेत्रों को भी इसने अपनी चपेट में ले लिया है।
आजकल तमाम फिल्मों में रोमांस के नामपर जिस प्रकार नायक-नायिका के अंतरंग दृश्यों का एकदम नग्न और खुला प्रदर्शन होने लगा है, उसे पॉर्न  तो नहीं लेकिन ‘मिनी पॉर्न’ अवश्य कहा जा सकता है। ऐसे अंतरंग दृश्य हेट स्टोरी, जिस्म, मर्डर, रागिनी एमएमएस जैसी कितनी ही फिल्मों की पहचान हैं। इन फिल्मों का हर भाग इसी दावे के साथ आता है कि उसमें पिछले भाग की तुलना में अधिक अंतरंग दृश्य हैं। हालांकि मुख्यधारा की सिनेमा में तो फिर भी सेंसर बोर्ड के कारण थोड़ी मर्यादा रहती है, लेकिन इससे अलग ओटीटी माध्यमों पर प्रसारित वेबसीरीजों में तो जैसे होड़ मची है कि कौन सेक्स दृश्यों को कितनी अधिक नग्नता और मर्यादाहीनता के साथ दिखा सकता है।
आज सेक्रेड गेम्स, लस्ट स्टोरीज, मिर्ज़ापुर, फोर मोर शॉट्स, गंदी बात, बेकाबू जैसी अश्लीलता की सब सीमाएं पार करतीं वेबसीरिजें नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, एल्ट बालाजी आदि देश के कई प्रमुख ओटीटी माध्यमों पर प्रसारित हो रही हैं। इन वेबसीरीजों में न तो संबंधों की मर्यादा का ध्यान रखा जाता है और न ही लोकलाज की भावना का। इनके अलावा कितने ही छोटे-छोटे ओटीटी माध्यम भी हैं, जिनका निर्माण ही शायद वेबसीरिज के नाम पर सॉफ्ट पॉर्न दिखाने के लिए हुआ है। उनपर मौजूद सामग्रियों में और कुछ होता ही नहीं है। साथ ही वीडियो के सबसे सहज और लोकप्रिय माध्यम यूट्यूब पर भी इस तरह की सामग्री की भरमार है। लेकिन समस्या यह है कि इन माध्यमों के लिए कोई नियामक संस्था नहीं है, इस कारण ‘कलात्मक आजादी’ के नामपर इन्हें मनमानी चीजें प्रस्तुत करने में कोई बाधा नहीं होती।
दुखद किन्तु सत्य है कि इस प्रकार की कथित मनोरंजन सामग्री के समर्थक भी हैं। उनका तर्क होता है कि जो समाज में हो रहा है, उसीको दिखाया जा रहा है। यहाँ सवाल है कि क्या सिनेमा समाज की कोरी नकल होती है? क्या उसकी अपनी कोई मौलिकता और अंतर्दृष्टि नहीं होती? क्या वो सबकुछ वैसे ही प्रस्तुत करती है जैसे समाज में हो रहा होता है? इन सवालों का कोई संतोषप्रद जवाब इन कथित मनोरंजन सामग्रियों के समर्थकों के पास शायद ही हो।
एक तर्क यह भी दिया जाता है कि अगर यह चीजें दर्शकों को पसंद आईं तो वे देखेंगे वर्ना नहीं देखेंगे। अब अगर दर्शकों की इच्छाओं को आधार बनाकर ही चला जाए तब तो दर्शक और भी बहुत कुछ देखना व करना चाहते हैं, तो क्या उन्हें उसकी आजादी दे दी जाएगी। ऐसा नहीं होता। सिनेमा निर्माण एक सामाजिक एवं नैतिक दायित्व से पूर्ण कर्म है जिसका ध्यान इससे जुड़े लोगों को रखना चाहिए।
रही बात कलात्मक आजादी की तो कलात्मकता तो इस बात में है जब आप किसी अश्लील लगने वाले दृश्य को भी ऐसे फिल्मा लें कि बात संप्रेषित भी हो जाए और अश्लीलता का प्रदर्शन भी न हो। पुरानी फिल्मों में फिल्माए जाने वाले अंतरंग रुमानी दृश्य या बलात्कार के दृश्य इसका उदाहरण हैं, जिनमें संबंधित व्यक्तियों की एक झलक देने के बाद कैमरा बंद दरवाजे, दीये, चलते पंखे, खुली खिड़की या किसी अन्य वस्तु की तरफ घूम जाता था और संगीत के माध्यम से पार्श्व में हो रही क्रिया का आभास दर्शक को दिया जाता था। वास्तव में इसे ही कला कहते हैं। फिर आज के इस तकनीक संपन्न समय में अंतरंग दृश्यों को फिल्माने के लिए ऐसे कुछ नए सांकेतिक तरीके क्यों नहीं इजाद किए और अपनाए जा सकते?
निःसंदेह सेक्स कोई वर्जित या दूषित चीज नहीं है, लेकिन समाज में उसको लेकर कुछ मर्यादाएं निश्चित की गयी हैं ताकि समाज व्यभिचार के मार्ग पर न बढ़े। आज मनोरंजन के नाम पर उक्त प्रकार की सामग्रियों द्वारा उन मर्यादाओं को नष्ट करने का तो प्रयास किया ही जा रहा है, यहीं से लोगों के मन-मस्तिष्क में यौन विकृति भी पनप रही है जो कि बलात्कार जैसी घटनाओं का एक प्रमुख कारण है। अतः सरकार को न केवल पॉर्न  वेबसाइटों पर प्रतिबंध की दिशा में काम करना चाहिए बल्कि मनोरंजन की आड़ में परोसे जा रहे इस सिनेमाई सॉफ्ट पोर्न पर अंकुश लगाने के लिए भी कदम उठाने चाहिए। अगर पॉर्न और सॉफ्ट पॉर्न  दोनों को पूरी तरह से रोका जा सके तो निःसंदेह बलात्कार के मामलों में बड़ी मात्रा में कमी आ सकती है।

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

इतिहास के पुनर्लेखन का प्रश्न (दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत 17 सितम्बर को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गुप्तवंशक वीर : स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का ऐतिहासिक पुन:स्मरण एवं भारत राष्ट्र का राजनीतिक भविष्य' विषय पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि इतिहास में गड़बड़ियों के लिए अंग्रेजों वामपंथियों को दोष देने से कुछ नहीं होगा बल्कि वर्तमान में भारतीय दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन किए जाने की जरूरत है। उन्होंने मौर्य वंश, गुप्त वंश से लेकर शिवाजी तक का उदाहरण देते हुए कहा कि इन महापुरुषों के विषय में आज ढूँढने पर कोई संदर्भ ग्रन्थ नहीं मिलता तो यह हमारी कमी है।

अमित शाह के इस वक्तव्य में भारतीय इतिहास का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य मौजूद है। दरअसल आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू पर पश्चिम का गहरा प्रभाव था। समाजवाद को वे देश की समस्याओं का सबसे बेहतर समाधान मानते थे। पश्चिम का यह प्रभाव उनकी इतिहास-दृष्टि पर भी रहा। पश्चिमी विद्वानों द्वारा स्थापित आर्य आक्रमण सिद्धांत, जो इतिहास का एक विवादास्पद विषय रहा है, में उनकी आस्था थी।पिता के पत्र पुत्री के नामपुस्तक में संकलित एक पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘..हिंदुस्तान के रहने वाले द्रविड़ कहलाते थे। ये वही लोग हैं, जिनकी संतान आजकल दक्षिण हिंदुस्तान में मद्रास के आसपास रहती है। उनपर आर्यों ने उत्तर से आकर हमला किया, उस जमाने में मध्य एशिया में बेशुमार आर्य रहते होंगे... आर्य एक मजबूत लड़ने वाली जाति थी, उसने द्रविड़ों को भगा दिया।


प्रथम प्रधानमंत्री की इस पश्चिम-प्रभावित दृष्टि का प्रभाव देश के इतिहास लेखन पर भी पड़ा और इतिहासकारों ने पूर्वग्रहयुक्त अभारतीय दृष्टि के साथ भारतीय इतिहास का लेखन किया, जिसमें विदेशी आक्रान्ताओं के पराक्रम शासन का वर्णन तो खूब हुआ, परन्तु देश के अनेक महापुरुष उचित स्थान नहीं पा सके।  ये इतिहास कुछ यूँ रहा, जिसमें साम्राज्य-विस्तार की लालसा में खून की नदियाँ बहाने वाले  मुग़ल शासक अकबर को महान बना दिया गया, लेकिन उसके खिलाफ जंगल-जंगल भटककर संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप की कोई विशेष चर्चा नहीं की गयी।
रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, मंगल पाण्डेय, तात्या टोपे जैसे 1857 के स्वाधीनता संग्राम के अनेक नाम हैं, जिन्हें इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं मिला। शाह ने ठीक ही कहा कि अगर सावरकर होते तो 1857 के स्वाधीनता संग्राम को हम प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नहीं, विद्रोह ही मान रहे होते। कुल मिलाकर अमित शाह ने अपने वक्तव्य में इतिहास में गड़बड़ी की समस्या को तो रेखांकित किया ही, लेकिन उससे कहीं अधिक जोर भारतीय दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन कर इस समस्या को दूर करने पर दिया।            

शाह इतिहास के जिस भारतीय दृष्टि से युक्त पुनर्लेखन की बात कर रहे, संस्थागत रूप से वर्तमान में उसके लिए कोई संभावनापूर्ण स्थिति नहीं दिखती। भारतीय अनुसन्धान इतिहास परिषद की वेबसाइट खंगालने पर किसी भी नए ऐतिहासिक शोध या स्थापना से सम्बंधित किसी किताब की जानकारी नहीं मिलती। ऐसी किसी किताब की कोई चर्चा भी कहीं नहीं सुनाई देती।  
इससे इतर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य कर रहे नए लेखकों को देखें तो आज  हिंदी का ज्यादातर नया लेखन कथा-कविता पर केन्द्रित हो रहा है, शोध-इतिहास की तरफ नए लेखक जाना ही नहीं चाहते। जो भी नया लेखक रहा, वो कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह या उपन्यास के साथ रहा है। कथा-कविता की पुस्तकों की भीड़ में ऐसी पुस्तकें बहुत कम दिखती हैं जो इतिहास में उपेक्षित रहे किसी विषय पर प्रकाश डालती हों या किसी ऐतिहासिक स्थापना को निरस्त कर नयी स्थापना करती हों।  

हालांकि ऐसा नहीं है कि रचनात्मक साहित्य लिखते हुए ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं लिखे जा सकते। आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर दिनकर तक हिंदी साहित्य में कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने रचनात्मक साहित्य के साथ इतिहास पर भी जमकर कलम चलाई और उनका लिखा आज हमारी थाती है। परन्तु, ये कर्म असीम धैर्य, श्रम और समर्पण के साथ-साथ साहस भी मांगता है, जिसका आज केफास्ट फ़ूड लेखनकी संस्कृति में जी रही नए लेखकों की पीढ़ी में ख़ासा अभाव है। इतिहास ग्रन्थ तो छोड़िये, अच्छे ऐतिहासिक उपन्यास भी अब नहीं लिखे जा रहे, बल्कि उनका स्थान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की कल्पित कथाओं ने ले लिया है। विश्वविद्यालयों के इतिहास विभाग में भी शोध के स्तर पर कुछ बेहतर होता नजर नहीं आता। कुल मिलाकर इस बात से अधिकांश लोग सहमत मिलेंगे कि भारतीय इतिहास में सबकुछ ठीक नहीं है, किन्तु कोई इसे ठीक करने की जहमत नहीं उठाना चाहता।  

एक प्रश्न यह भी उठता है कि नए सिरे से इतिहास-लेखन की दिशा क्या होनी चाहिए और उसमें किन बिन्दुओं पर काम किया जाना चाहिए। इसके लिए कुछ-कुछ दिशा तो गृहमंत्री ने अपने भाषण में ही दे दी कि इतिहास के उपेक्षित महापुरुषों और साम्राज्यों पर संदर्भ ग्रन्थ तैयार किए जाएं। इसके अलावा अबतक जो इतिहास लेखन हुआ है, उसका अधिकांश हिस्सा ईसा के बाद का है जबकि भारतीय सभ्यता की जड़ें बहुत गहरी, बहुत पुरातन हैं। दिक्कत यही है कि हमने भारतीयता युक्त इतिहास दृष्टि से कभी उनको देखने का प्रयत्न ही नहीं किया। यह अभारतीय दृष्टि ही है, जिसने रामायण और महाभारत जैसे हमारी सभ्यता-संस्कृति के महान ऐतिहासिक ग्रंथों को मिथक के रूप में निरुपित किया है, जबकि भारत सहित दुनिया भर में प्राप्त अनेक प्रमाण यह इंगित कर चुके हैं कि यह ग्रन्थ इतिहास हैं। 

राखीगढ़ी में प्राप्त बसावट के अवशेष हों या सिनौली में प्राप्त रथ, मुकुट हों या इंडोनेशिया के समुद्र में मौजूद भगवान् विष्णु का पांच हजार साल पुराना मंदिर हो अथवा काफी पहले जर्मनी में प्राप्त हुई नरसिंह भगवान की कई हजार साल पुरानी प्रतिमा हो, इस तरह के तमाम साक्ष्य हमारी विस्तृत, पुरातन और समृद्ध सभ्यता की कथा कहते हैं। ऐसे ही रामायण और महाभारत  से जुड़े विश्व भर में प्राप्त सभी साक्ष्यों को संकलित कर इन महाकाव्यों का मिथक से ऐतिहासिक निरूपण करने वाले इतिहास ग्रंथों के लेखन की दिशा में कार्य किया जा सकता है। निस्संदेह यह कार्य आसान नहीं है, और इसके लिए जैसा कि अमित शाह ने कहा हमें हमारीमेहनत करने की दिशा को केन्द्रितकरने की जरूरत है।

गृहमंत्री के इस वक्तव्य के पश्चात् यह उम्मीद कर सकते हैं कि देश के बौद्धिक वर्ग में इसका असर होगा और वे इतिहास की बात आने पर अंग्रेजों और वामपंथियों को कोसने की बजाय नया इतिहास लिखने में ऊर्जा खर्च करना शुरू करेंगे।