शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

हिंदी धारावाहिकों का गिरता स्तर [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

दूरदर्शन के एक चैनल वाले दौर से आज के इस अनेक चैनलों वाले दौर तक टीवी की विकासयात्रा समय के पैमाने पर जितनी लम्बी नहीं रही, उससे अधिक बदलावों से भरी रही है। आज टीवी भारतीय परिवारों का एक अभिन्न अंग बन चुका है। टीवी की इस महत्व-वृद्धि के पीछे हिंदी धारावाहिकों की प्रमुख भूमिका रही है। आम आदमी के दैनिक संघर्ष और पारिवारिक संबंधों की खींचतान पर आधारित बुनियाद, हम लोग, वागले की दुनिया, मुंगेरीलाल लाल के सपने जैसे धारावाहिक हों या रहस्य, रोमांच, भय, चमत्कार से भरे चंद्रकांता, आलिफ लैला, शक्तिमान, शाका लाका बूम बूम जैसे कार्यक्रम हों अथवा पौराणिक कथाओं पर आधारित रामायण, महाभारत, श्रीकृष्ण जैसे धारावाहिक हों, इन्होने टीवी की लोकप्रियता के शुरूआती दौर में भारतीय लोगों के दिल में केवल ख़ास जगह बनाई, बल्कि भारतीय परिवारों में टीवी का महत्व भी बढ़ाया।
निस्संदेह समय के साथ हिंदी धारावाहिकों के स्वरूप में भी बदलाव आए हैं, परन्तु ये बदलाव ज्यादातर प्रस्तुति सम्बन्धी ही हैं। तकनीकी विकास के कारण आज के धारावाहिक प्रस्तुति सम्बन्धी चीजों जैसे साज-सज्जा, गीत-संगीत, एक्शन, इफेक्ट्स के मामले में तो पहले के धारावाहिकों से काफी आगे बढ़ चुके हैं, लेकिन विडंबनात्मक रूप से सामग्री के मामले में इनमें कोई विशेष प्रगति नहीं दिखाई देती बल्कि इनका स्तर लगातार गिरता ही जा रहा है। आज हिंदी सिनेमा में कुछ-कुछ अंतराल पर नए तरह के विषयों पर आधारित कोई कोई अच्छी फिल्म जाती है, लेकिन टीवी पर नए तरह का कोई धारावाहिक विरला ही कभी नजर आता है।
पारंपरिक ढर्रे का अनुकरण
तेज संगीत, धीमे चलते दृश्य, नायक की उग्रता, नायिका की मोहक अदाएंये बातें एक समय के बाद से हिंदी धारावाहिकों की पारंपरिक पहचान बन गयी हैं। आज टीवी पर प्रसारित ज्यादातर धारावाहिकों में ये चीजें आपको मिल जाएंगी। विषय के मामले में भी प्रेम-सम्बन्ध, शादी-विवाह, साज़िशबाजी, तर्कहीन रहस्यात्मकता, भूत-प्रेत जैसे वर्षों पुराने विषय ही वर्तमान धारावाहिकों द्वारा ढोए जा रहे हैं
मौजूदा धारावाहिकों के स्वरूप पर नजर डालें तो इनमें नायक-नायिका का एक जोड़ा होता है, जिसमें केवल अच्छाईयों होती हैं और परिवार में ही छिपे उसके दुश्मनों की तादाद बहुत बड़ी होती है। दुश्मनों की चालबाजी और नायक-नायिका का उसमें फँसना-निकलना, धारावाहिक की मूल कथा इतनी ही होती है। इन धारावाहिकों के पात्रों का भी पारंपरिक रूप से एक निर्धारित स्वरूप है। ये पात्र प्रायः  घर में भी हमेशा बढ़िया-बढ़िया कपड़ों और जूतों में तैयार होकर रहते हैं। रोजी-रोटी के लिए इनके व्यापार, नौकरी आदि करने की चर्चा तो धारावाहिक में सुनाई देती है, लेकिन वो काम करते के बराबर ही दिखाई देते हैं। इन पात्रों का मुख्य काम घर बैठे साजिश रचना, भारी-भरकम संवाद बोलना, रोमांस करना और नाचना-गाना होता है। ऐसे यथार्थ से कटे धारावाहिकों और इनके बनावटी पात्रों से देश के बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय टीवी दर्शक शायद ही कोई जुड़ाव महसूस कर पाते हों, लेकिन बावजूद इसके देखते जरूर हैं।    
नए विषय टिकते नहीं
कई बार कुछ धारावाहिक अलग तरह का विषय लेकर शुरू तो होते हैं, लेकिन टीआरपी के लोभ में या कथानक पर ढंग से काम होने के कारण अधिक समय तक उसपर टिके नहीं रह पाते और जल्दी ही मूल विषय से भटक जाते हैं।
अभी गत वर्ष ही स्टार प्लस पर मोटे लोगों के प्रति समाज की संकीर्ण सोच और उनमें पैदा होने वाले हीनताबोध की समस्या को केंद्र में रखकर एक धारावाहिक शुरू हुआ था। यह एक नया विषय था और इसपर ठीक ढंग से काम होता तो एक अलग तरह का अच्छा धारावाहिक बन सकता था, लेकिन कुछ भागों के बाद ही ये अपने मूल विषय से भटककर हिंदी धारावाहिकों के पारंपरिक ढर्रे पर चल पड़ा। स्टार प्लस पर ही वर्ष 2013 के आखिर में सौतेली माँ और बेटी के रिश्ते पर आधारित एक धारावाहिक शुरू हुआ था, जो अपने शुरूआती कुछ महीनों तक तो मूल विषय पर केन्द्रित रहते हुए ठीकठाक बढ़ रहा था, लेकिन जरा सा पुराना होते ही शायद कहानी को लम्बा खींचने के लोभ में इसमें भूत-प्रेत से लेकर खून-खराबा और रहस्यात्मकता तक तमाम मसाले डाल दिए गए, जिनके बीच इसका मूल विषय कहीं गुम हो गया।

पिछले दिनों कलर्स चैनल पर बोलते हुए हकलाने वाली एक लड़की की चुनौतियों पर आधारित एक धारावाहिक शुरू हुआ था, लेकिन थोड़े ही समय बाद इसमें भी हिंदी धारावाहिकों के पारंपरिक तत्व गए और ये भी अपने मुख्य विषय से भटक गया। ऐसे ही जी टीवी पर 2009 में आया एक बेहद लोकप्रिय धारावाहिक भी उल्लेखनीय होगा जिसमें बेटियों के बेचे जाने की समस्या को उठाने का दावा किया गया था, लेकिन कुछ शुरूआती भागों के बाद इसने भी हिंदी धारावाहिकों रटी रटाई राह को पकड़ लिया। इनके अलावा और भी कई धारावाहिक हैं जिनकी शुरुआत तो कुछ नए से विषय के साथ हुई लेकिन वे उस विषय का अधिक समय तक निर्वाह नहीं कर पाए। 
अन्धविश्वास की कथाओं का दौर
भूत-प्रेत-आत्मा आदि की कहानियों पर आधारित धारावाहिक पहले भी आते रहे हैं, लेकिन अब तकनीक के दम पर ऐसे धारावाहिकों को और प्रभावी रूप देकर दिखाया जाने लगा है। उल्लेखनीय होगा कि जिस भारत में आज भी महिलाओं को डायन होने के शक में मार दिए जाने की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं, वहाँ डायन के चरित्र को महिमामंडित करते हुए इन दिनों एक धारावाहिक खूब चर्चा बटोर रहा है। इसमें भोजपुरी सिनेमा की एक मशहूर अभिनेत्री को लेकर बेहद आकर्षक और कामुक हाव-भाव वाली डायन रची गयी है। इस धारावाहिक में रोमांस, रहस्य, एक्शन और पारिवारिक संबंधों की खींचतान जैसे एक लोकप्रिय हिंदी धारावाहिक के सब मसाले मौजूद हैं। इसका प्रसारण एक राष्ट्रीय चैनल पर हो रहा है और केवल रात में एकबार इसे दिखाया जा रहा बल्कि दिन में कई बार इसका पुनर्प्रसारण भी हो रहा है।
एक अन्य चैनल पर इच्छाधारी नागिनों की एक बेहद तर्कहीन कहानी दिखाई जा रही जो कि लोकप्रियता के मामले में शीर्ष पर बनी हुई है। इस धारावाहिक की नागिनें एकदम आधुनिक हैं, जो केवल पश्चिमी परिधान पहनती हैं, शराब पीती हैं, अंग्रेजी बोलती हैं बल्कि आधुनिक गैजेटों का इस्तेमाल करने में भी सिद्धहस्त हैं। ऐसे ही अन्धविश्वासी काल्पनिक कथाओं पर आधारित और भी कई धारावाहिक इस समय टीवी पर प्रसारित हो रहे हैं।
यह ठीक है कि टीवी पर इस तरह के धारावाहिक पहले भी आते थे, लेकिन तब इनके प्रसारण का समय प्रायः देर रात में होता था। उदाहरण के तौर पर दूरदर्शन पर आने वाले भुतिया धारावाहिक आपबीती का समय रात में दस बजे था। इसका कारण यह था कि ऐसे धारावाहिकों को बच्चों से दूर रखा जाए क्योंकि इनसे बच्चों के भयभीत होने और उनके मन में विकृत विचारों से लेकर अंधविश्वासों तक के पैदा होने का खतरा होता है। परन्तु, अब अधिकाधिक दर्शक बटोरने के लोभ में इस प्रकार के धारावाहिकों को भी शाम में जल्दी ही दिखाया जाने लगा है। गजब ही है कि इन धारावाहिकों के निर्माता और प्रसारणकर्ता इनकावास्तविकता से कोई सम्बन्ध होनेकी एक कुछ सेकण्ड की सूचना चलाकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं रह जाता कि इनका समाज पर कैसा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
तथ्यों से खिलवाड़
पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित धारावाहिकों का चलन भी पुराना है। दूरदर्शन युग में रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा आदि पौराणिक कथाओं पर आधारित बहुत से धारावाहिक आते थे। इन धारावाहिकों और इनके पात्रों ने तब लोगों के मन में एक विशेष जगह बनाने में सफलता हासिल की थी। अपने घर में टीवी होने पर रामायण और महाभारत देखने तो लोग दूर-दूर तक दूसरों के यहाँ चले जाते थे। आज भी इस तरह के धारावाहिक रहे हैं, लेकिन उनमे पहले जैसी बात जरा भी नहीं है, तिसपर दर्शकों में कौतूहल जगाने के लिए मूल कथा के तथ्यों से मनमाना खिलवाड़ भी किया जा रहा है।
उदाहरण के तौर पर इन दिनों टीवी पर रहे कृष्ण कथा पर आधारित एक धारावाहिक के विषय में यदि ये कहें तो गलत नहीं होगा कि इसमें कृष्ण की पूरी कहानी ही बदल दी गयी है। इसमें बाल कृष्ण ही गोवर्धन उठा ले रहे, सुदामा से मित्रता कर रहे, राधा के साथ रास रचा रहे तथा वो सब लीलाएं करने में लगे हैं जो कृष्ण ने बड़े होने पर अलग-अलग ढंग से की थी। इसके अलावा अनेक प्रकार की काल्पनिक कथाएँ और चरित्र भी इसमें भर दिए गए हैं। इसे देखते ही मूल कथा से परिचित लोग बरबस ही कह उठते हैं कि अरे ये कैसे हो गया, ये तो कहानी में है ही नहीं।
कुछ समय पूर्व यूँ ही शिव की कथाओं पर आधारित एक धारावाहिक आता था, जिसमें केवल शिव से सम्बंधित अनेक काल्पनिक कथाएँ दिखाई गयीं बल्कि उनके चरित्र की भी अनुचित प्रस्तुति की गयी। संतोषी माता की महिमा पर आधारित एक धारावाहिक में तो सारी हद पार करते हुए देवियों को एकदूसरे के खिलाफ साजिशें रचते हुए दिखा दिया गया। नारद जी जैसे महान पौराणिक चरित्र को केंद्र में रखकर एक कपोलकल्पित हास्य धारावाहिक भी पिछले दिनों प्रसारित हुआ था। इतने सब के बाद भी विचित्र यह है कि आए दिन फिल्मों की छोटी-छोटी बातों पर भावनाएं आहत होने का शोर मचाने वालों की भावनाएं पौराणिक कथाओ और चरित्रों का कुचित्रण करने वाले इन धारावाहिकों से कभी आहत नहीं होतीं।
सख्त निगरानी की दरकार
टीवी की सामग्री के प्रमाणन और नियमन को लेकर अभी देश में कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। भारतीय प्रसारण प्रतिष्ठान (आईबीएफ) के कुछ दिशानिर्देशों के आधार पर धारावाहिकों के प्रमाणन का अधिकार इनके प्रसारणकर्ता चैनलों को मिला हुआ है। आईबीएफ के अंतर्गत प्रसारण सामग्री शिकायत परिषद् (बीसीसीसी) नामक एक संस्था है जो दर्शकों की शिकायतों के आधार पर कार्यवाही करती है। लेकिन स्वतः संज्ञान लेकर कोई कार्यवाही करने की व्यवस्था होने कारण  धारावाहिक निर्माताओं की मनमानियों को रोकने में ये बहुत प्रभावी नहीं दिखती।
जिस ढंग से फिल्मों के प्रमाणन के लिए सेंसर बोर्ड जैसी संस्था है, उसी तरह टीवी धारावाहिकों के प्रमाणन के लिए एक तंत्र स्थापित किए जाने की जरूरत है। हम यह कहकर इस दायित्व से नहीं बच सकते कि टीवी पर प्रस्तुत सामग्रियों की संख्या बहुत अधिक होती है, इस कारण उनका प्रमाणन नियमन आसान नहीं है। टीवी वो माध्यम है, जिसपर प्रसारित कोई भी सामग्री घर-घर तक पहुँचती है, जिसका प्रभाव बच्चों-बड़ों सब पर पड़ता है। ऐसे में इस माध्यम पर प्रसारित सामग्री स्वच्छ, स्वस्थ और सकारात्मक हो, यह सुनिश्चित करने के लिए यथाशीघ्र कुछ ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।