रविवार, 5 अगस्त 2018

उद्योगपतियों के प्रति निरर्थक पूर्वाग्रह [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

विगत दिनों अविश्वास प्रस्ताव के नामपर संसद में जो कुछ नाटक हुआ, वह देश ने देखा है। लेकिन, उसी दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर उद्योगपतियों के साथ खड़े होने का आरोप लगाया था, जिसका जवाब गत 29 जुलाई को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आयोजित निवेशक सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर दिया कि देश के निर्माण में अगर किसान, कारीगर, मजदूर, सरकारी कर्मी, बैंक फाइनेंसर आदि की भूमिका होती है, तो वैसी ही भूमिका देश के उद्योगपतियों की भी होती है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने गांधीजी का उदाहरण देते हुए कहा, "जब नीयत साफ़ हो और इरादे नेक हों तो किसी के भी साथ खड़े होने से दाग़ नहीं लगते। महात्मा गांधी जी का जीवन इतना पवित्र था कि उन्हें बिड़ला जी के परिवार के साथ जाकर रहने, बिड़ला जी के साथ खड़े होने में कभी संकोच नहीं हुआ।"

प्रधानमंत्री मोदी पर लम्बे समय से विपक्ष द्वारा उद्योगपतियों से निकटता का आरोप लगाया जाता रहा है। विपक्ष कहता रहा है कि मोदी ने अपने निर्णयों के जरिये उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाया हैं। ऐसे में, कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने अपनी उक्त बातों के जरिये विपक्ष के सभी आरोपों का माकूल  जवाब दिया  है। लेकिन, प्रधानमंत्री के जवाब का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है, बल्कि देश की तरक्की में उद्योगपतियों के योगदान की बात कहकर उन्होंने कहीं कहीं आम लोगों में उद्योगपति वर्ग के प्रति जो नकारात्मक पूर्वाग्रह व्याप्त है, उसपर भी चोट करने का प्रयास किया है।

उद्योगपतियों के प्रति पूर्वाग्रह
ये विडंबना ही है कि एक तरफ तो आम लोग सरकार से रोजगार के लिए उद्योग लगाने की अपेक्षा करते हैं और दूसरी तरफ  उद्योग जगत को लेकर अनेक प्रकार की नकारात्मक धारणाएं पाले रहते हैं। आपको यह दृष्टिकोण रखने वाले बहुतायत लोग मिल जाएंगे कि उद्योगपति गरीबों के शोषण से और उनके हक का पैसा लूटकर अमीर बनते हैं। लोगों के इस पूर्वाग्रही दृष्टिकोण के कारणों पर विचार करें तो आजादी के बाद सर्वाधिक समय तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेसी सरकारों द्वारा अपनाया गया समाजवादी नीतियों पर आधारित आर्थिक मॉडल इसका एक बड़ा कारण प्रतीत होता है।

इस मॉडल में गरीबों के लिए सब्सिडी आधारित जितनी ही अधिक रियायतें थीं, पूंजीपति वर्ग याकि उद्योगपतियों के लिए ये उतना ही मुश्किल समय था। लाइसेंस राज के उस युग में किसी उद्योगपति के लिए एक कारखाना स्थापित करना भी टेढ़ी खीर साबित होता था। ये दौर आजादी के बाद लगभग चार दशकों तक चला और कांग्रेस की आँखें तब खुलीं जब 1991 में देश दिवालिया होने की कगार पर पहुँच गया। लगभग पचास टन सोना विदेश में गिरवी रखकर तब देश की डांवाडोल आर्थिक दशा को संभाला गया था। इसके बाद पी. वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और उनके द्वारा तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर उदारीकरण, जिसका अर्थ लाइसेंस राज का खात्मा और उद्योगों को प्रोत्साहन देना था, की शुरूआत की गयी। लेकिन, समाजवादी आर्थिक मॉडल पर आधारित शुरूआती चार दशकों ने देश के आम जनमानस के बीच उद्योगपतियों के प्रति अनेक प्रकार के पूर्वाग्रह विकसित कर दिए थे, जिनका प्रभाव इस मॉडल के खात्मे के बाद भी बना रहा और अब भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। यही कारण है कि आम लोग आज भी उद्योगपतियों को प्रायः अच्छी नजर से देखते नहीं पाए जाते। हालांकि तथ्य यही है कि उदारीकरण के बाद से अबतक देश हर तरह से तरक्की के रास्ते पर आगे ही बढ़ा है, जिसमें उद्योगपतियों की बड़ी भूमिका है। लेकिन, अपने पूर्वाग्रहों में डूबे लोग इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं।

उद्योगपतियों के प्रति लोगों नकारात्मक धारणाओं के कारण ही विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी का उद्योग जगत से निकटवर्ती सम्बन्ध बताकर जनता में उनकी छवि को नुकसान पहुँचाने की कोशिश में लगा रहता है। परन्तु, अब जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने उद्योगपतियों के साथ खड़े होने को लेकर मजबूती से अपनी बात रखी है, उसके बाद संभव है कि विपक्ष इस तरह के बेमतलब आरोप लगाने से बाज आए।

व्यवस्था की खामी
निस्संदेह उद्योग जगत के प्रति आम लोगों की नकारात्मक धारणाओं का एक कारण यह भी है कि देश में जब-तब उद्योगपतियों से जुड़ा कोई कोई गड़बड़झाला सामने आता रहता है। फिर चाहें वो विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे देश का पैसा लूटकर विदेश भाग जाने वाले उद्योगपति हों या ग्राहकों का पैसा लेकर उन्हें मकान देने वाले आम्रपाली जैसे उद्योग घराने हों या निवेशकों का पैसा नहीं चुकाने वाले सुब्रतो राय का मामला हो अथवा ऐसे ही और भी कई मामले हों। ऐसे मामले जनता में उद्योगपतियों के प्रति व्याप्त नकारात्मक धारणाओं को बल देने वाले साबित होते हैं। लेकिन यहाँ यह भी देखना चाहिए कि इन मामलों में जो गड़बड़ी हुई उसके लिए उद्योगपतियों के अनैतिक आचरण के साथ-साथ तत्कालीन शासन और व्यवस्था की चूक भी जिम्मेदार है।

आज प्रधानमत्री मोदी के उद्योगपतियों के साथ खड़े होने को लेकर सवाल उठा रही कांग्रेस की ही सरकार थी, जब विजय माल्या को बिना किसी निगरानी के अंधाधुंध कर्ज दिया गया। नीरव मोदी की धोखाधड़ी भी कांग्रेस के समय से ही चल रही थी। वर्तमान सरकार की नाकामी यह रही कि निगरानी होने के कारण ये लोग इतनी लूट करने के बाद भी देश छोड़कर भाग गए। देखा जाए तो  मूल बात व्यवस्था में खामी की है, जिसके चलते इन उद्योगपतियों को फर्जीवाड़े का अवसर मिल सका। अगर व्यवस्था दुरुस्त होती तो अव्वल तो इन्हें इतना अधिक पैसा बिना किसी पुख्ता निगरानी के दिया ही नहीं जाता और उसके बाद ये देश छोड़कर भाग भी नहीं पाते।

संतोषजनक बात यह है कि मौजूदा सरकार के आने के बाद से व्यवस्था में अनेक प्रकार के बदलावों की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं जैसे कि अभी हाल ही में संसद में भगोड़ा विधेयक पारित हुआ है, जिसमें देश का पैसा लूटकर भागने वालों की संपत्ति जब्त करने जैसे प्रावधान हैं। इसके अलावा गत अप्रैल में आई ख़बर के मुताबिक, वर्तमान सरकार द्वारा 2016 में लाए गएइन्सोल्वेंसी और बैंक्रप्सी कोड क़ानून के जरिये बैंकों के एनपीए का एक बड़ा हिस्सा प्रणाली में वापस लाने में भी कामयाबी मिली है। स्पष्ट है कि मौजूदा सरकार द्वारा व्यवस्था में बदलाव लाया जा रहा है, जिससे उद्योगपतियों की अनुचित मनमानी पर अंकुश लगने पर उम्मीद की जा सकती है।        

लेकिन, इन चंद उद्योगपतियों के कारण पूरे उद्योग जगत को देश के विकास में उसके योगदानों को अनदेखा करते हुए सवालों के घेरे में खड़ा कर देना ठीक नहीं है। ऐसे तमाम उद्योग घराने हैं, जिनका देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।

विकास में भागीदार
प्रधानमंत्री मोदी के रिलायंस समूह के प्रमुख मुकेश अम्बानी के साथ संबंधों को लेकर विपक्ष सबसे ज्यादा उनपर हमलावर रहता है। लेकिन, ऐसा करते वक्त वो ये भूल जाता है कि रिलायंस की देश की तरक्की में कितनी बड़ी भूमिका है। अधिक गहराई में जाते हुए एक ताजा उदाहरण से इस बात को समझें तो पिछली और मौजूदा सरकारों द्वारा देश में शहरी-ग्रामीण प्रत्येक व्यक्ति तक इंटरनेट को पहुंचाने के लिए प्रयास किया जाता रहा है। वर्तमान सरकार ने तो इसके लिए डिजिटल इंडिया नाम से एक अभियान ही शुरू किया हुआ है। लेकिन इस दिशा में अगर किसीने सर्वाधिक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय काम किया है तो वो रिलायंस है, जिसने जिओ के माध्यम से देश के दूरदराज के इलाकों तक लोगों के हाथ में इंटरनेट पहुँचाने में कामयाबी हासिल की है। इससे मुकाबले के लिए अन्य मोबाइल नेटवर्क कम्पनियाँ भी अपने दाम घटाने में लगी हैं। जिओ की बदौलत आज देश के शहरी सहित तमाम ग्रामीण इलाकों में भी हर हाथ में इंटरनेट पहुँच चुका है। इसके साथ-साथ इसने देश में बड़ी मात्रा में रोजगार भी दिया है। कंपनी की घोषणा के मुताबिक, वो इस वित्त वर्ष में अस्सी हजार और कर्मचारियों की भर्ती करने वाली है। देश के निर्यात में रिलायंस का अकेले का योगदान लगभग 15 प्रतिशत है। 2017 के आंकड़े के मुताबिक लगभग दो लाख लोगों को रिलायंस ने रोजगार दे रखा है। क्या ये चीजें देश की तरक्की के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं?

रिलायंस के अलावा टाटा समूह ने तक़रीबन सात लाख लोगों को रोजगार दिया हुआ है। यह समूह दुनिया के तकरीबन डेढ़ सौ देशों को अपने उत्पाद सेवाओं का निर्यात करता है, जिसके आधार पर देश के निर्यात क्षेत्र में इसके योगदान का अनुमान लगाया जा सकता है। देश के खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर वाहनों और शिक्षा सेवाओं तक टाटा का वर्चस्व है। इसी तरह एन. आर. नारायण मूर्ती द्वारा स्थापित सूचना प्रोद्योगिकी के क्षेत्र की शीर्ष कंपनी इनफ़ोसिस ने 2017 के आंकड़े के मुताबिक लगभग 2 लाख लोगों को रोजगार दे रखा है। क्या ये चीजें देश के विकास में योगदान देने वाली नहीं हैं?

ये तो कुछ बड़े समूहों की बात हुई, इनके अतिरिक्त छोटे-छोटे तमाम उद्योग घराने भी देश में सक्रिय हैं जो अपने-अपने स्तर पर देश की तरक्की में योगदान ही दे रहे हैं। इन उद्योगपतियों की आलोचना करने वाले क्या बता पाएंगे कि यदि उद्यमी होते तो इनके जरिये जो तमाम उत्पाद सेवाएं देश आज प्राप्त कर रहा है, वो कहाँ से प्राप्त होतीं? जो रोजगार इन उद्योग घरानों द्वारा दिए गए हैं, वे कहाँ से आते?

यह नहीं कह रहे कि उपर्युक्त या अन्य उद्योगपति भी किसी सेवा-भाव से कार्य कर रहे हैं। निस्संदेह उनके कार्य का मूल मकसद मुनाफा कमाना ही है, लेकिन अपने मुनाफे के साथ ही वो विविध प्रकार से देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रही बात इनकी गड़बड़ियों की तो ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वो ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था बनाए कि इन उद्योगपतियों में से यदि कोई विजय माल्या या नीरव मोदी की राह चलना भी चाहे तो व्यवस्था के आगे विवश होकर रह जाए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें