शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

आइन्स्टीन ने कभी गांधी जी के लिए जो लिखा था, वो अब अटल जी के लिए भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा!

पीयूष द्विवेदी भारत

आने वाली पीढ़ियों को मुश्किल से यकीन होगा कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इंसान कभी इस धरती पर चला था” 

महात्मा गांधी के 75वें  जन्मदिन पर उनके बड़े प्रशंसक, महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने अपने सन्देश में यह उक्त बात लिखी थी जो कालांतर में गांधी के विराट व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए एक उपयुक्त सूत्र वाक्य बन गयी। लेकिन अब आइन्स्टीन का यह कथन गांधी के अलावा एक और विराट व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, वो हैंभारतीय राजनीति के अजातशत्रु अटल बिहारी वाजपेयी।

अटल जी के गुणों और विशेषताओं पर बात करना सूरज को दीया दिखाने की कोशिश करने जैसा है। सात्विकता से दीप्त तेजस्वी चेहरा, प्रभावी स्वराघातों से पुष्ट ओजस्वी वाणी, शब्दों का सम्मोहन-जाल और विचारों का अभूतपूर्व प्रवाहये अटल जी के व्यक्तित्व के वो पहलू हैं जिनके कारण उन्हें सुनने की उत्कंठा समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों को भी रहती थी। आक्रामक से आक्रामक बात को भी कहने के लिए वे शब्दों की ऐसी मोहिनी रचते थे कि विरोधी पर आक्रमण भी हो जाता और वैचारिक शालीनता भी बनी रहती। आज की राजनीति में यह वैचारिक शालीनता दुर्लभ हो चली है।

एक वोट से सरकार गिरने के बाद ‘...अध्यक्ष महोदय, मैं अपना इस्तीफा राष्ट्रपति जी को देने जा रहा हूँ जैसा तेजस्वी और ऐतिहासिक वक्तव्य देने के मूल में अटल बिहारी वाजपेयी की नैतिक निष्ठा की शक्ति ही विद्यमान थी। ये नैतिक निष्ठा उनका दूसरा सबसे प्रमुख गुण थी। तब संख्याबल के मामले में तो छल-छद्मों से विपक्ष ने बाजी मार ली, लेकिन अपने वक्तव्य के जरिये नैतिकता की जो मिसाल वाजपेयी जी ने पेश की, वो भारतीय राजनीति का एक स्वर्णिम अध्याय बन गयी। राजनीति में यह नैतिक निष्ठा भी अब कहाँ  दिखती है। क्या जोड़-तोड़ के इस दौर में अब एक वोट से किसी सरकार का गिरना संभव रह गया है?

गांधी जी की ही तरह अटल जी भी साफगोई में यकीन रखते थे। दुराव उन्हें नहीं भाता था। उनकी जिन्दगी एक ऐसी खुली किताब थी, जिसमें कुछ भी छुपा नहीं था। किसीको अच्छा लगे या बुरा, वे जो थे वैसे ही सबके सामने भी होते थे। यह बात उनके साक्षात्कारों को देखने पर साफ़-साफ़ महसूस की जा सकती है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहते हुए तब पत्रकार रहे राजीव शुक्ला से बातचीत में जब उनके सामने सवाल आया कि नरसिम्हा राव से उनकी दोस्ती पार्टी को पसंद नहीं है इसपर क्या कहेंगे ? तो उनका कहना थामैं पार्टी से पूछकर दोस्तियाँ नहीं करता और पार्टी को इससे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। 

जब बाबरी मस्जिद ध्वंस पर स्टैंड बदलने को लेकर एक प्रश्न आया तो बड़ी साफगोई से इस बात को स्वीकारते हुए उन्होंने कहामैंने जब देखा कि इस विषय में विरोधी अपने गिरेबान में झाँकने को तैयार नहीं हैं, तब मैंने थोड़ा सा स्टैंड जरूर बदला था। इसी तरह उनके अफेयर्स को लेकर जब सवाल पूछा जाता है तो एक तरह से इस बात को स्वीकृति देते हुए भी वो कहते हैं कि अफेयरों की चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं की जाती। क्या वर्तमान राजनीती में किसी नेता जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार हो, से ऐसी स्पष्टवादिता की उम्मीद की जा सकती है? आज बयान देकर पलटने वाली राजनीति में ये कहीं से भी संभव नहीं लगता।

ऐसी अनेक बातें हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व को वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक असंभव कल्पना सिद्ध करती हैं। इसीलिए कह रहे कि तब आइन्स्टीन के लिए इस धरा पर दूसरा गांधी होने की कल्पना जैसे संभव नहीं थी, उसी तरह भारतीय राजनीति के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए अब इसमें दूसरे अटल का होना भी संभव नहीं लगता।

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