रविवार, 5 अगस्त 2018

राजनीतिक आग्रहों से ग्रस्त इतिहास बोध [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत

अगर आप भारत की परतंत्रता के इतिहास को भारतीय दृष्टि से आवश्यक तथ्यों, सटीक तर्कों और निष्कर्षपूर्ण   विश्लेषण के आलोक में समझना चाहते हैं, तो शशि थरूर की पुस्तकअन्धकार काल: भारत में ब्रिटिश साम्राज्य, जो उनकी अंग्रेजी पुस्तक ‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस: द ब्रिटिश एम्पायर इन इंडिया’ का हिंदी अनुवाद है, आपके लिए उपयुक्त चयन हो सकती है इस पुस्तक में थरूर ने उस दौर के इतिहास के लगभग सभी आवश्यक पक्षों को समेटने तथा यथासंभव क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है

आठ अध्यायों वाली इस पुस्तक में अंग्रेजों द्वारा भारत में की गयी लूटपाट; भारत के उद्धार के अंग्रेजी दावों; तत्कालीन दौर में भारत में नागरिकों, प्रेस आदि की स्वतंत्रता की स्थिति; बांटो और राज करो की कुख्यात ब्रिटिश नीति सहित अंत में ब्रिटिश शासन और उसके पश्चात् भारत की स्थिति का एक तुलनात्मक निष्कर्ष आदि विषयों को सम्मिलित कर उनके विविध पहलुओं पर सारगर्भित ढंग से विस्तृत चर्चा की गयी है। प्रत्येक अध्याय अपने आप में तथ्यों, जिसमें विविध प्रकार के आंकड़े और उद्धरण सम्मिलित हैं, का भण्डार है। तथ्यों की प्रस्तुति में अच्छी बात यह रही है कि उन्हें मूल कथ्य में उसके आवश्यक अवयव के रूप में इस प्रकार से पिरोया गया है कि कहीं-कहीं उनकी अधिकता भी ऊब नहीं पैदा करती बल्कि कई एक जगहों पर तो उनसे पुस्तक की रोचकता में विशेष रूप से वृद्धि ही होती नजर आती  है। उदाहरण के तौर पर उल्लेखनीय होगा कि पुस्तक में एक जगह कोहिनूर हीरे की चर्चा के क्रम में लेखक ने इसके महत्व को रेखांकित करने हेतु अफगान की महारानी के अठारहवीं सदी में कहे गए इस रोचक कथन का उल्लेख किया है, “एक शक्तिशाली पुरुष को यदि चार पत्थर फेंकने हों – एक उत्तर, एक दक्षिण, एक पूर्व एवं एक पश्चिम और एक पत्थर ऊपर हवा में फेंकना हो और उसके बीच के स्थान को सोने से भरना हो तो वह भी कोहिनूर की कीमत के समान नहीं होगा।” ऐसे रोचक उद्धरणों से ये पुस्तक भरी हुई है।

चूंकि शशि थरूर राजनीतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति हैं और जिस दल से आते हैं उसकी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इस कारण इस पुस्तक का मूल्यांकन इस बिंदु पर भी होना चाहिए कि थरूर इसे अपने या अपने दल के स्वतंत्रता आन्दोलन सम्बन्धी राजनीतिक आग्रहों से कितना मुक्त रख सके हैं। यहाँ मूल्यांकन की एक कसौटी यह हो सकती है कि इस प्रकार के वर्णनों में लेखक की दृष्टि कितनी निरपेक्ष रही है और उन्होंने कितनी तटस्थता से विषयवस्तु का वर्णन किया है। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय होगा कि पुस्तक का अधिकांश भाग ब्रिटिश हुकूमत के दमनकारी शासन, शोषण, लूट, अव्यवस्था को उजागर करने और उस शासन की समर्थक दलीलों का तार्किक खंडन करने को समर्पित रहा है। शेष भाग में कुछ स्थानों पर गांधी और गांधीवादी विचारों की चर्चा की गयी है, और लेखक ने बहुधा उनके प्रति समर्थन भी व्यक्त किया है जिसे प्रश्नांकित करने का कोई कारण नहीं है।

ये ठीक है कि कुछ जगहों पर लेखक नेहरू से कुछ अधिक ही प्रभावित प्रतीत होते हैं, परन्तु अनेक हिस्से ऐसे भी हैं जहां उन्होंने नेहरू की औचित्यपूर्ण आलोचना करने में भी कोई कोताही नहीं बरती है। जिन्ना की पृथक राज्य की मांग पर नेहरू की इस आदर्शवादी धारणा कि आजादी के बाद भारतीय मुसलमान पृथक राज्य की मांग छोड़ देंगे, पर तल्ख़ टिप्पणी करते हुए थरूर ने लिखा है, “....1946 के बसंत तक नेहरू का आदर्शवाद बहुत नासमझी भरा और खतरनाक लगने लगा था।” इस प्रकार और भी कई जगहों पर उन्होंने नेहरू व कांग्रेस पर प्रश्न उठाए हैं। लेकिन कुछ वर्णन ऐसे भी हैं जहां वे राजनीतिक आग्रहों से बंधे दिखाई देते हैं जैसे कि देश में अबतक चले आ रहे कई औपनिवेशिक कानूनों पर प्रश्न उठाते हुए वे कुछ वर्ष पुराने मौजूदा सत्ताधारी दल को तो आड़े हाथों लेते हैं, मगर स्वतंत्रता पश्चात् सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहे अपने दल पर कोई सवाल नहीं उठाते। खैर, यहाँ तक तो मोटे तौर पर मामला संतुलित रहा है।

परन्तु, कुछ बातें ऐसी हैं जो लेखक के इतिहास-बोध के राजनीतिक आग्रहों से प्रभावित होने के सम्बन्ध में निर्णायक सिद्ध होती हैं। यथा, पुस्तक में औपनिवेशिक शासन के प्रमुख विरोधी पक्ष के रूप में कांग्रेस के अलावा और किसीकी चर्चा न किया जाना तो खलता ही है, लेकिन प्रतिरोध के गांधीवादी उपकरणों की प्रशंसा के क्रम में लेखक का यह लिख जाना, “..छिट-पुट आतंकवाद और नरमपंथी संविधानवाद – दोनों विफल सिद्ध हुए थे...”, हतप्रभ ही कर देता है। यहाँ ‘छिट-पुट आतंकवाद’ जैसा वाक्यांश रचकर तत्कालीन दौर में ब्रिटिश हुकूमत के विरोध की एक वैकल्पिक विचारधारा को बेहद आपत्तिजनक ढंग से खारिज करने के अलावा और क्या किया गया है ? 1925 के बाद के वर्णन में संघ की उपस्थिति की कोई चर्चा न किया जाना भी खलता है। इसके अलावा जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के आह्वान पर बंगाल में हुए रक्तपात को रोकने में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की महती भूमिका की चर्चा न किया जाना भी लेखक के राजनीतिक आग्रहों से बंधे होने का ही संकेत देता है। ऐसे और भी कई छोटे-बड़े प्रसंग हैं।

यह सही है कि इस पुस्तक का मूल विषय स्वाधीनता आन्दोलन नहीं, ब्रिटिश शासन है; परन्तु इसमें जिस तरह से लेखक ने कांग्रेस की चर्चा के लिए अवसर निकाल लिया है, उसी प्रकार यदि वे चाहते तो कुछ पन्ने स्वतंत्रता आन्दोलन में सम्मिलित अन्य प्रमुख संगठनों व व्यक्तियों को भी दे सकते थे। मगर उनका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं दिखा है, इस कारण अंततः हम पाते हैं कि पूर्वार्द्ध के अधिकांश हिस्सों में लेखक की व्यापक व विस्तृत रही इतिहास-दृष्टि, उत्तरार्द्ध में जाने-अनजाने उनके राजनीतिक आग्रहों में बंधकर काफी संकुचित-सी हो गयी है। बावजूद इसके ब्रिटिश हुकूमत  के अन्धकारमय शासन को सम्यक प्रकार से जानने-समझने के लिहाज से इस पुस्तक के महत्वपूर्ण होने में कोई संदेह नहीं है।

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