बुधवार, 27 मई 2015

जल संरक्षण की जरूरत [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत
प्राणी मात्र के जीवन के लिए वायु के बाद अगर किसी चीज की सर्वाधिक आवश्यकता होती है तो वो है पानी। स्थिति ये है कि बिना पानी के मनुष्य से लेकर पशु-पक्षि, पेड़-पौधों तक किसी के भी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। लेकिन, आज जिस तरह से मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए निरंतर व अनवरत भू-जल का दोहन किया जा रहा है, उससे साल दर साल भू-जल का स्तर गिरता जा रहा है। पिछले एक दशक के भीतर भू-जल स्तर में आई गिरावट को अगर इस आंकड़े के जरिये समझने का प्रयास करें तो अब से दस वर्ष पहले तक जहाँ ३० मीटर की खुदाई पर पानी मिल जाता था, वहाँ अब पानी के लिए ६० से ७० मीटर तक की खुदाई करनी पड़ती है। साफ़ है कि बीते दस सालों में दुनिया का भू-जल स्तर बड़ी तेजी से घटा है और अब भी बदस्तूर घट रहा है, जो कि बड़ी चिंता का विषय है। अगर केवल भारत की बात करें तो भारतीय केंद्रीय जल आयोग द्वारा बीते वर्ष यानि २०१४ में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश बड़े जलाशयों का जलस्तर वर्ष २०१३ के मुकाबले घटता हुआ पाया गया था। आयोग के अनुसार देश के बारह राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, त्रिपुरा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट पाई गई थी। आयोग की तरफ से ये भी बताया  गया  कि २०१३ में इन राज्यों का जलस्तर जितना अंकित किया गया था, वो तब ही काफी कम था। लेकिन, २०१४ में  वो गिरकर तब से भी कम हो गया है। गौरतलब है कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्लूसी) देश के ८५ प्रमुख जलाशयों की देख-रेख व भंडारण क्षमता की निगरानी करता है। संभवतः इन स्थितियों के मद्देनज़र ही अभी  हाल में जारी जल क्षेत्र में प्रमुख परामर्शदाता  कंपनी ईए की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत २०२५ तक जल संकट वाला देश बन जाएगाअध्ययन में कहा गया है कि परिवार की आय बढ़ने और सेवा व उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। देश की सिंचाई का करीब ७० फीसदी और घरेलू जल खपत का ८०  फीसदी हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घट रहा है। हालांकि घटते जलस्तर को लेकर जब-तब देश में पर्यावरण विदों द्वारा चिंता जताई जाती रहती हैं, लेकिन जलस्तर को संतुलित रखने के लिए सरकारी स्तर पर कभी कोई ठोस प्रयास किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। अब सवाल ये उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरंतर रूप से गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है ?  अगर इस सवाल की तह  में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती  हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियंत्रित और अनवरत दोहन ही है। आज दुनिया  अपनी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए सर्वाधिक रूप से भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, अब एक तरफ तो भू-जल का ये अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों-पहाड़ों आदि की मात्रा में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है । परिणामतः धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस, यही वो प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। दुखद और चिंताजनक बात ये है कि कम हो रहे भू-जल की इस विकट समस्या से निपटने के लिए अब तक वैश्विक स्तर पर कोई भी ठोस पहल होती नहीं दिखी है। ये एक कटु सत्य है कि अगर दुनिया का भू-जल स्तर इसी तरह से गिरता रहा तो आने वाले समय में लोगों को पीने के लिए भी पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा।
राष्ट्रीय सहारा 
 
  हालांकि ऐसा कत्तई नहीं है कि कम हो रहे पानी की इस समस्या का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे बेहतर समाधान तो यही है कि बारिश के पानी का समुचित संरक्षण किया जाए और उसी पानी के जरिये अपनी अधिकाधिक जल जरूरतों की पूर्ति की जाए। बरसात के पानी के संरक्षण के लिए उसके संरक्षण माध्यमों को विकसित करने की जरूरत है, जो कि सरकार के साथ-साथ प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का भी दायित्व है। अभी स्थिति ये है कि समुचित संरक्षण माध्यमों के अभाव में वर्षा का बहुत ज्यादा जल, जो लोगों की तमाम जल जरूरतों को पूरा करने में काम आ सकता है, खराब और बर्बाद हो जाता है। अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए एक-दो टंकियां लग जाएँ व घर के आस-पास कुएँ आदि की व्यवस्था हो जाए, तो वर्षा जल का समुचित संरक्षण हो सकेगा, जिससे जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए भू-जल पर से लोगों की निर्भरता भी कम हो जाएगी। परिणामतः भू-जल का स्तरीय संतुलन कायम रह सकेगा। जल संरक्षण की यह व्यवस्थाएं हमारे पुरातन समाज में थीं जिनके प्रमाण उस समय के निर्माण के ध्वंसावशेषों में मिलते हैं, पर विडम्बना यह है कि आज के इस आधुनिक समय में हम उन व्यवस्थाओं को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं । बहरहाल, जल संरक्षण की इन व्यवस्थाओं के  अलावा अपने दैनिक कार्यों में सजगता और समझदारी से पानी का उपयोग कर के भी जल संरक्षण किया जा सकता है। जैसे, घर का नल खुला न छोड़ना, साफ़-सफाई आदि कार्यों के लिए खारे जल का उपयोग करना, नहाने के लिए उपकरणों की बजाय साधारण बाल्टी आदि का इस्तेमाल करना आदि तमाम ऐसे सरल उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन काफी पानी की बचत कर सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ ये है कि जल संरक्षण के लिए लोगों को सबसे पहले जल के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। जल को खेल-खिलवाड़ की अगंभीर दृष्टि से देखने की बजाय अपनी जरूरत की एक सीमित वस्तु के रूप में देखना होगा। हालांकि, ये चीजें तभी होंगी जब जल की समस्या के प्रति लोगों में आवश्यक जागरूकता आएगी और ये दायित्व दुनिया के उन तमाम देशों जहाँ भू-जल स्तर गिर रहा है, की सरकारों समेत सम्पूर्ण विश्व समुदाय का है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जल समस्या को लेकर दुनिया में बिलकुल भी जागरूकता अभियान नहीं चलाए जा रहे। बेशक, टीवी, रेडियो आदि माध्यमों से इस दिशा में कुछेक प्रयास जरूर हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता के अभाव में वे प्रयास कोई बहुत कारगर सिद्ध होते नहीं दिख रहे। लिहाजा, आज जरूरत ये है कि जल की समस्या को लेकर गंभीर होते हुए न सिर्फ राष्ट्र स्तर पर बल्कि विश्व स्तर पर भी एक ठोस योजना के तहत घटते भू-जल की समस्या की भयावहता व  जल संरक्षण आदि इसके समाधानों के बारे में बताते हुए एक जागरूकता अभियान चलाया जाए, जिससे जल समस्या की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हो और वे इस समस्या को समझते हुए सजग हो सकें। क्योंकि, ये एक ऐसी समस्या है जो किसी कायदे-क़ानून से नहीं, लोगों की जागरूकता से ही मिट सकती है। लोग जितना जल्दी जल संरक्षण के प्रति जागरुक होंगे, घटते भू-जल स्तर की समस्या से दुनिया को उतनी जल्दी ही राहत मिल सकेगी।


शनिवार, 23 मई 2015

टकराव का जिम्मेदार कौन [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
राजधानी दिल्ली की नवनिर्वाचित आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच कार्यकारी मुख्य सचिव की नियुक्ति को लेकर उपजी असहमति ख़त्म होने की बजाय संवैधानिक अधिकारों के एक बड़े विवाद का रूप लेती जा रही है। दोनों पक्षों ने जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाक़ात की तो लगा कि अब यह विवाद समाप्त हो जाएगा, मगर फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा। हालिया हालातों पर नज़र डालें तो मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली के नौकरशाहों को कोई भी फाइल उपराज्यपाल से पहले सम्बंधित विभाग के मंत्रियों के पास भेजने को कहा तो वहीँ जवाब में उपराज्यपाल नजीब जंग साहब ने अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिख कर राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त अपने विशिष्ट संवैधानिक अधिकारों से उन्हें अवगत कराया साथ ही दिल्ली के अधिकारियों को दिल्ली सरकार द्वारा विगत एक सप्ताह के भीतर की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर पूर्व स्थिति को जारी रखने  का निर्देश भी दे दिया। दरअसल यह पूरा मामला तब शुरू हुआ कि जब अभी हाल ही में दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव दस दिन की छुट्टी पर चले गए, तो उनकी जगह उपराज्यपाल नजीब जंग ने कार्यवाहक मुख्य सचिव के रूप शकुन्तला गैमलीन को नियुक्त कर दिया। बस इसी बात को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री साहब भड़क गए, उनका कहना था कि इस नियुक्ति का अधिकार दिल्ली सरकार को है। इस नियुक्ति से मुख्यमंत्री महोदय का गुस्सा इतना बढ़ा कि उन्होंने शकुन्तला गैमलिन की नियुक्ति के आदेश को पारित करने वाले प्रधान सचिव अनिंदों मजूमदार (सेवा विभाग) को बड़े ही भद्दे ढंग से उनके पद से हटाकर उनकी जगह राजिंदर कुमार को नियुक्त कर दिया। मुख्यमंत्री की इस कारवाई को उपराज्यपाल ने असंवैधानिक बताया और यहीं से यह विवाद बड़ा रूप लेता गया। यहाँ सवाल यह उठता है कि उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में आखिर कौन सही है और कौन गलत ? सवाल यह भी कि कौन किसके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है ?
   गौर करें तो इस विवाद के लिए कमोबेश दोनों ही पक्ष जिम्मेदार हैं, मगर सर्वाधिक और पहले जिम्मेदार तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ही हैं। उपराज्यपाल ने भी अवश्य ही थोड़ी अनावश्यक हठधर्मिता दिखाई जो कि उनकी गलती है, मगर इस विवाद को पैदा करने और इतना बड़ा बनाने का सर्वाधिक श्रेय केजरीवाल को ही जाता है। कानूनी रूप से देखें तो भी केजरीवाल गलत और उपराज्यपाल सही दिखते हैं। चूंकि, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के नाते दिल्ली एक अपूर्ण राज्य है जिसकी अपनी विधानसभा भी है, मगर अन्य पूर्ण राज्यों की तरह इसके पास अधिकार नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते इससे सम्बंधित कई अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं। सन १९९१ में ६९ वे सविधान संशोधन के तहत दिल्ली में मंत्रिपरिषद और विधानसभा का प्रावधान किया गया, लेकिन भूमि, पुलिस एवं क़ानून व्यवस्था को राज्य सरकार के दायरे से बाहर रखा गया। और यह सही भी है क्योंकि देश की राजधानी का अधिकाधिक नेतृत्व देश की सरकार के हाथ में ही होना चाहिए। बावजूद इन नियमों  के केजरीवाल  ने यह आदेश दिया कि भूमि, पुलिस आदि मामलों से सम्बंधित फाइलें भी उपराज्यपाल से पहले राज्य सरकार के सम्बंधित विभाग के मंत्रियों के पास भेजी जाएं। उनका तर्क था कि भूमि, पुलिस आदि मामलों में उपराज्यपाल को निर्णय लेने से पहले मुख्यमंत्री से सलाह लेने का नियम है। बेशक ऐसा नियम है, मगर यह तब हो सकता है जब राष्ट्रपति इस सम्बन्ध में एक अधिसूचना जारी करें। पर यहाँ ऐसी किसी  अधिसूचना के बगैर ही केजरीवाल ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की फाइलों को भी पहले अपने मंत्रियों के पास भेजने का आदेश सुना दिया। मुख्य सचिव की नियुक्ति पर आएं तो यहाँ भी केजरीवाल बेकार में ही बवाल मचाए दिखते हैं। नियमों के अनुसार  मुख्य सचिव, पुलिस कमिश्नर, राज्य गृह सचिव और सचिव (भूमि  की नियुक्ति का अधिकार उपराज्यपाल के पास है। बाकी अन्य नियुक्तियां आमतौर पर राज्य कैबिनेट की सलाह के आधार पर की जाती हैं।  इन नियमों की पुष्टि केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा इस सम्बन्ध में जारी अधिसूचना में भी की गई है।  स्पष्ट है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने दायरों से बाहर जाकर निर्णय लिए और जब उन्हें रोका गया तो ये हंगामा मचा दिए। ऐसा तो कत्तई नहीं होगा कि उन्हें उपर्युक्त नियमों की समझ न हो, मगर फिर भी वे या तो अपने निरर्थक अहंकार की तुष्टि अथवा केंद्र सरकार को इस मामले में घसीट कर घटिया राजनीति करने के उद्देश्य से इस मामले को इतना बड़ा बनाए हैं। हालांकि केन्द्रीय गृह मंत्रालय की अधिसूचना को छोड़ दें तो इस मामले से केंद्र सरकार ने जिस तरह से एक निश्चित दूरी बना रखी है, उससे उसको  इसमें घसीटने की केजरीवाल की मंशा पर तो पानी फिरता  दिख ही रहा है, उलटे उनके इस रवैये से दिल्ली की जनता और नौकरशाहों में भी उनकी सरकार के प्रति अच्छा सन्देश जाता नहीं दिख रहा।

  चूंकि, दिल्ली की जनता ये समझ सकती है कि अबसे पहले भी दिल्ली में पूर्ण बहुमत की सरकारें रही हैं और उपराज्यपाल भी रहे हैं, पर अबतक ऐसा कोई विवाद नहीं हुआ। क्योंकि उन सरकारों ने अपने संवैधानिक दायरे में रहते हुए काम किया है, जबकि मौजूदा मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को शायद किसी दायरे में रहने की आदत ही नहीं है। उन्हें तो संभवतः ऐसा शासन चाहिए जिसमे उनके ऊपर कोई न हो और जो वे कहें वही पत्थर की लकीर की तरह चले। खबर है कि दिल्ली के लगभग दो दर्जन आईएएस अधिकारी दिल्ली सरकार के तानाशाही रवैये से परेशान होकर दिल्ली से बाहर तबादला चाहते हैं। उनका कहना है कि यह सरकार अपनी बात का शब्दशः पालन चाहती है, अब ऐसे माहौल में काम करना कठिन है। केजरीवाल सरकार के रुख को इन अधिकारियों की बातों से भी समझा जा सकता है। यह सही है कि दिल्ली ने केजरीवाल को ऐतिहासिक बहुमत दिया है, लेकिन इसलिए नहीं कि वे बेवजह की  लड़ाई ठाने और विवादों में उलझे रहें। यह बहुमत उन्हें उनके द्वारा किए गए वादों को पूरा करने के लिए मिला है, जिसमे वो अबतक कोई खास सफल नहीं दिख रहे हैं। उचित होगा कि केजरीवाल और उनकी सरकार अपनी ऊर्जा को ऐसे विवादों में खपाने की बजाय अपने वादों को पूरा करने में लगाएं। यह करना न केवल दिल्ली के लिए बल्कि उनकी सरकार के लिए भी ठीक रहेगा।

शुक्रवार, 15 मई 2015

आलू किसानों का दर्द कौन सुने [नवभारत टाइम्स में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नवभारत टाइम्स 
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि एक तरफ जहाँ देश के विभिन्न राज्यों में असमय बारिश और ओलावृष्टि से बर्बाद हुई फसल के कारण किसान बेहाल और आत्महत्या करने को विवश हैं, वही दूसरी तरफ आलू किसान आलू की बम्पर उपज होने बावजूद खून के आंसू रो रहे हैं। यूँ तो यह बात बहुत विचित्र लगेगी कि बम्पर पैदावार होने के बाद भी आलू किसान परेशान है, पर मौजूदा सच्चाई यही है। दरअसल विगत वर्ष आलू की आसमान छूती कीमतों को देखते हुए मुनाफा कमाने के उद्देश्य से आलू किसानों ने इसबार आलू की खेती का रकबा २५ फीसदी तक बढ़ा दिया था, दूसरी तरफ मौसम भी कुछ हद तक आलू की फसल के अनुकूल रहा। परिणाम यह हुआ कि देश के प्रमुख आलू उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि में आलू की भारी पैदावार हुई, आलू की उपज में १५ से २० फीसदी की वृद्धि हुई जिससे बाजार में इसकी कीमतें गिर गईं। आलू किसानों ने तो मुनाफे की उम्मीद में आलू की खेती बढ़ाई थी, मगर अब कीमतों का आलम ये है कि उन्हें उनकी लागत भी नहीं मिल पा रही। कूड़े-करकट के भाव में आलू बेचना अब उनकी मजबूरी बन गई है। गौरतलब है कि विगत वर्ष अक्तूबर में  जो आलू २४२५ रूपये क्विंटल मिला करता था, आज २०० से ५०० रूपये क्विंटल तक के भाव में सिमट गया है। कोल्ड स्टोरेज की कमी होने व इस सुविधा के बेहद महंगे होने के कारण किसानों के पास यह विकल्प भी नहीं है कि वे आलू को कोल्ड स्टोरेज में रख कीमतें बढ़ने का इंतज़ार करें। अब एक तरफ तो वे उपज की कम कीमतों से परेशान हों और दूसरी तरफ दाम बढ़ने की आशा में कोल्ड स्टोरेज में उपज को रखकर भी पैसा फंसाएं। इसलिए कम ही किसान कोल्ड स्टोरेज में उपज को रखने की तरफ बढ़ते हैं, बाकी तो औने-पौने दाम में बेच देते हैं अथवा उनकी फसल पड़े-पड़े सड़ जाती है। गौर करें तो कोल्ड स्टोरेज की कमी की यह समस्या देश के किसी एक क्षेत्र की नहीं है, बल्कि पूरे देश में ही इसकी कमी है।
 एक आंकड़े की मानें तो देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटी की कमी के कारण प्रत्येक वर्ष १३३०० करोड़ रूपये की फल व सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। अमेरिकी संस्था इमर्सन के फूड वेस्टेज एंड कोल्ड स्टोरेज रिपोर्ट में अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि अभी देश में ६३००  कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज हैं। इनकी इंस्टॉल्ड कैपेसिटी ३.०११ करोड़ टन है। अध्ययन से पता चला है कि ये कोल्ड स्टोरेज इंडिया की  कुल जरूरत का आधा हिस्सा ही पूरा कर पा रहे हैं। देश में सभी खाद्य उत्पादों के लिए कोल्ड स्टोरेज कैपेसिटी ६.१ करोड़ टन से ज्यादा होनी  चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए २०१५-१६  तक ५५०००  करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत होगी,  तभी फलों और सब्जियों की बढ़ती पैदावार को देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटीज का सहारा  मिल पाएगा। इन आंकड़ों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटी की हालत बहुत ख़राब है। और मौजूदा वक़्त में इस ख़राब हालत का बहुत बुरा असर आलू किसानों पर पड़ता दिख रहा है। किसान कह रहे हैं कि सरकार आलू का एक उचित दाम निर्धारित करे, पर दुर्भाग्य कि उनकी सुध सरकार को भी नहीं है। वरन उनकी आज जो यह दशा हो रही है इसके लिए काफी हद तक सरकार की आलू की निर्यात नीति भी  जिम्मेदार है, मगर जाने क्यों सरकार उधर ध्यान ही नहीं दे रही।  
  दरअसल पिछले साल मई में नई-नई सत्ता में आई मोदी सरकार द्वारा महंगाई पर लगाम लगाने के उद्देश्य से  सब्जियों आदि की कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए कुछ कदम उठाए गए थे। तत्कालीन दौर में आलू की बढ़ती कीमतों को थामने के लिए सरकार ने जून महीने में आलू निर्यात को कम से कम करने की मंशा से इसका न्यूनतम निर्यात मूल्य ४५० डॉलर प्रति टन कर दिया था। यह नीति तब तो काफी कारगर  सिद्ध हुई और आलू निर्यात में भारी कमी आई, मगर तबसे अबतक लगभग १०-११ महीनों के समय में स्थिति काफी हद तक बदल गई है। अब देश में पहले की तरह आलू की कमी नहीं है, मगर सरकार की वो आलू निर्यात नीति अब भी जस की तस है। तब वह नीति लागू करने के बाद सरकार द्वारा बीच में कभी उसकी समीक्षा नहीं की गई। अगर ऐसा किया जाता तो वस्तुस्थिति सरकार के सामने आ जाती और यह नीति कब की बदल दी गई होती, लेकिन सरकार तो शायद इधर से आँख-कान बंद ही किए हुए है। किसानों की दशा सुधारने की भाषणबाजी में ही उसे शायद अपनी सफलता नज़र आती है। अब सरकार की उक्त  निर्यात नीति के कारण आज देश में आलू की बम्पर उपलब्धता होने के  बावजूद भी उसका निर्यात लगभग ठप पड़ा हुआ है। आलू की गिरती कीमतों का यह सबसे बड़ा कारण है। विद्रूप तो यह है कि किसानों के लिए तो आलू की कीमते गिर रही हैं, जबकि खुदरा बाजार में आलू के भाव कत्तई कम नहीं हैं। कारण कि किसानों का आलू पूरी तरह से बाजार में पहुँच ही नहीं रहा। अर्थात एक तरफ किसान आलू की कम कीमत से हलकान हैं तो वहीँ दूसरी तरफ आम लोग बाजार में आलू की ऊंची कीमतों से परेशान हैं। और यह सब कहीं  न कहीं सरकार की गलत नीति के कारण ही हो रहा है जिसकी या तो सरकार को कोई सुध नहीं है अथवा वह सुध लेना ही नहीं चाहती।

  जरूरत यह है कि सरकार अपनी विगत वर्ष की आलू निर्यात नीति की एकबार समीक्षा करे और वर्तमान स्थिति को देखते हुए उसमे आवश्यक परिवर्तन लाए। वह नीति बदलते ही आलू किसानों के आलू की खरीद स्वतः ही होने लगेगी। अभी देश में आलू की पर्याप्त उपलब्धता है तो उचित होगा कि अपनी आवश्यकता भर का आलू रखकर बाकी को निर्यात के लिए छोड़ दिया जाय। देश में जरूरत भर का आलू रखने के लिए आवश्यक है कि देश में कोल्ड स्टोरेज फैसिलिटी की संख्या को भी बढ़ाने की दिशा में भी सरकार कदम उठाए। कुल मिलाकर रास्ते और तरीके बहुत हैं, अगर आवश्यकता है तो बस मजबूत इच्छाशक्ति की। सरकार मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए उपर्युक्त समाधानों समेत और भी तमाम समाधानों  पर आगे बढ़ सकती है, जिससे कि देश में किसानों की समस्याओं में कमी आए। अन्यथा सिर्फ किसानों के दुःख और पीड़ा पर लम्बे-लम्बे भाषण देने से न तो किसान का भला होने वाला है और न ही सरकार को ही कुछ मिलने वाला है।  

शनिवार, 9 मई 2015

सबको मिले जल्द न्याय [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

लगभग १२ साल बाद आखिरकार हिट एंड रन केस में अदालत का फैसला आ  गया और  सलमान खान को दोषी मानते हुए मुंबई की सेशंस अदालत ने पांच साल की सजा सुनाई । लेकिन कुछ ही घंटे में उन्हें हाई कोर्ट से अंतरिम जमानत मिल गई । दो दिन बाद जब दूबारा हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई तो उसने अगली सुनवाई तक इस सजा को निलंबित कर दिया । सलमान खान पर आरोप था कि २८ सितम्बर २००२ की रात में उन्होंने शराब के नशे में बांद्रा में अमेरिकन एक्स्प्रेस बेकरी के बाहर फुटपाथ पर सो रहे लोगों पर अपनी लैंड क्रूजर कार चढ़ा दी थी, जिसमे कि १ आदमी की मौत हो गई और चार लोग घायल हुए । वैसे, इस मामले में अभियोजन पक्ष की तरफ से बाईस गवाह पेश किए गए थे जबकि बचाव पक्ष सलमान के ड्राईवर के रूप में सिर्फ एक गवाह को पेश किया । पर अभियोजन के इतने मजबूत केस के बाद भी इस मामले में सेशंस कोर्ट फैसला आने में इतना अधिक समय लगा तो निस्संदेह इसके लिए सलमान खान का रसूखदार होना एक बड़ा कारण है । पर इससे भी बड़ा कटु सत्य ये है कि अगर सलमान अपने रसूख का दुरूपयोग कर इस मामले को टालते रहे तो इसके लिए कहीं न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था की अनेक प्रक्रियात्मक खामियां ही  जिम्म्मेदार हैं । इस मामले के एक पीड़ित व्यक्ति जो उस वारदात में अपना एक पैर गँवा बैठे थे, का कहना है कि वे  नहीं चाहते कि सलमान को  सजा हो, क्योंकि अब इससे उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला । समझा जा सकता है कि न्याय व्यवस्था की सुस्ती के कारण ही उस पीड़ित के मन में न्याय की प्रति ये उदासीनता घर कर गई है ।
  वैसे, न्याय व्यवस्था की इस सुस्ती को खुद न्यायपालिका समेत सरकार आदि के द्वारा भी स्वीकार तो किया जाता है, पर दुर्भाग्य  कि इस सुस्ती को खत्म करने के लिए सिवाय चंद कोरम पूरा करने के किसीके द्वारा कुछ ठोस कदम नहीं उठाए जाते ।  एक आंकड़े की माने तो अभी देश के उच्च और जिला अदालतों में ढाई से तीन करोड़ मामले लंबित पड़े अपने अंजाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं और अगर न्याय मिलने की यही गति रही तो आने वाले समय में इनमे और बढ़ोत्तरी की गुंजाइश है ।  इतने अधिक मामले लंबित होने के लिए सबसे बड़ा कारण यही है कि आज हमारी न्याय व्यवस्था जजों की किल्लत से जूझ रही है ।  सभी छोटी-बड़ी अदालतों में जजों की संख्या आवश्यकता से काफी कम है ।  आज जहाँ देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के २५० से ऊपर पद खाली हैं, वहीँ निचली अदालतों में ये आंकड़ा ३७०० है ।   जिला अदालतों में भी जजों के लगभग १८००० पद रिक्त हैं ।  समझा जा सकता है कि जिस न्याय व्यवस्था में आवश्यकतानुसार जजों की मौजूदगी ही न हो, वहाँ जनता को तय समय में समुचित न्याय भला कैसे मिल सकता है ।  समस्या सिर्फ इतनी हो तो कहें भी, पर यहाँ तो समस्याओं की फेहरिस्त पड़ी है ।  जजों की कमी के अतिरिक्त न्यायालयों के कार्यों का कम्प्यूटरीकरण भी बेहद धीमी गति से हो रहा है, जो कि एक बड़ा कारण है न्यायिक सुस्ती के लिए ।  साथ ही, पुलिस की धीमी जांच और चार्जशीट दायर करने में की जाने वाली देरी भी इस न्यायिक सुस्ती के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है ।  चार्जशीट दायर होने के बाद भी कितने बार पुलिस की कमजोर और तथ्यहीन जांच के कारण न्यायालय द्वारा उसे दूबारा चार्जशीट दायर करने के लिए कह दिया जाता है, जिस कारण न्यायिक प्रक्रिया में समय की खासा बर्बादी होती है ।  किसी भी न्याय व्यवस्था के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि कितने मामलों में अदालत का फैसला आने में इतनी देरी होती है कि मामले से सम्बंधित लोगों की मौत तक हो जाती है और अदालत का फैसला नही आ पाता है ।  देश में न्यायिक सुस्ती की इस स्थिति को रेखांकित करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय  के पूर्व न्यायाधीश ए पी शाह ने कहा था कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो लंबित पड़े मामलों को निपटाने में ४५० साल लग जाएंगे ।  यह बात थोड़ी अटपटी भले लगे, पर यह भारतीय न्याय व्यवस्था के यथार्थ के बेहद निकट है ।  
  हालांकि देश की इस न्यायिक सुस्ती को दूर करने व लंबित पड़े मामलों के तीव्र निपटारे के लिए सरकार द्वारा कुछेक प्रयास जरूर किए जा रहे हैं । केंद्र सरकार द्वारा न्यायिक तीव्रता व लंबित पड़े मामलों के तेजी से निपटारे के लिए राज्य सरकारों को ५ हजार करोड़ का अनुदान दिया गया है, जिसके जरिये राज्यों द्वारा विशेष प्रातः अदालत, सांध्य अदालत समेत  फास्ट ट्रैक अदालतों से लेकर लोक अदालतें स्थापित करने जैसी तमाम कवायदें की जाती रही हैं ।  वैसे, फास्ट ट्रैक अदालतों के फैसलों का प्रायः ये कहकर आलोचना की जाती है कि ये फैसले जल्दबाजी में लिए गए और गुणवत्ता से हीन होते हैं ।  अब जो भी हो, पर इतना तो साफ़ है कि फास्ट ट्रैक अदालतों ने हमारी न्याय व्यवस्था में तेजी ही लाई है  । इसी क्रम में बात लोक अदालतों की करें तो न्यायिक तीव्रता के मामले में तो ये फास्ट ट्रैक अदालतों से भी कई कदम आगे हैं ।  अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर लगी लोक अदालतों ने न सिर्फ १.२५ करोड़ मामलों का निपटारा किया, बल्कि लंबित पड़ा ३००० करोड़ का मुआवजा भी बांटा ।  वैसे, लोक अदालतों में वाहन दुर्घटना, मुआवजे से सम्बंधित, वैवाहिक, मजदूरी विवाद, जमीन अधिग्रहण से सम्बंधित, किराये के लेन-देन, बैंकों से संबंधित आदि कुछ चयनित मामलों की ही सुनवाई हो सकती है । हालांकि लोक अदालतें न्याय की एक वैकल्पिक व्यवस्था हैं और इनके जरिए होने वाले न्याय की तमाम खामियां होती हैं ।  यह अदालतें वादियों के बीच सहमति व सुलह से मामले का फटाफट निपटारा करने के तरीके पर काम करती हैं ।  सीधे शब्दों में कहें तो इनका उद्देश्य पीड़ित पक्ष को न्याय देने से अधिक समझौता कराके मामले को ख़त्म करना होता है और  समझौते के लिए अक्सर न्याय को ताक पर रख दिया जाता है ।  उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि न्याय में तेजी के लिए लोक अदालत जैसी कवायदों से मामलों के निपटारे में कुछ तेजी तो आ सकती है, पर ये लोगों को सच्चा और अच्छा न्याय नहीं मिल सकता  । कहने का अर्थ है कि  लोक अदालत को पूरी तरह से खारिज तो नहीं कर सकते, लेकिन इसके भरोसे न्याय व्यवस्था में तेजी की सोचना गलत होगा ।
  उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारतीय न्याय तंत्र को ऐसा बनाने की जरूरत है कि वो तेज होने के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण भी हो, जिससे कि अपराधी उसका भय मानें और अपराध करने से पहले सौ बार सोचें ।  इसके लिए पहली जरूरत ये है कि हमारी पुलिस अपनी ढुलमुल जांच प्रक्रिया को छोड़ें और मामलों की तेजी से जांच करे ।  दूसरी बात कि न्यायालयों में रिक्त पड़े जजों के पदों पर यथाशीघ्र नियुक्ति की जाए जिससे उनमे तेजी से काम हो सके ।  ऐसा प्रयास हो कि हमारी सामान्य अदालतें ही तेजी से काम कर लोगों को समुचित व ससमय न्याय दे सकें, ताकि फास्ट ट्रैक व लोक अदालत जैसी न्याय की गुणवत्ता को कम करने वाली न्यायिक व्यवस्थाओं का कम से कम उपयोग करना पड़े ।  अगर ऐसा होता है तभी हम सही मायने में जनता के मन में भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति दृढ़ विश्वास उत्पन्न कर पाएंगे ।

सोमवार, 4 मई 2015

बूटी और बवाल [नई दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 
नई दुनिया
शाम को ऑफिस से थके-हारे आकर टीवी ऑन कर न्यूज लगाए नहीं कि बूटी कथा सामने थी। सब चैनल बूटी पुराण बांचने में लगे थे। पहले तो हमारी समझ में ही नहीं आया कि बूटी रामायण और जंगल के संत-महात्माओं के दिमाग से निकलकर सीधे टीवी पर कैसे पहुँच गई ? इतनी तेज प्रोन्नति कैसे जी ? हमने तो सुना था कि लक्ष्मण जी की जान पर बन आई तो तत्कालीन बूटी स्पेशलिस्ट डा सुषेण वैद ने ‘संजीवन’ नामक बूटी के गोदाम का पता देकर बूटी जल्दी से जल्दी लाने को कहा। हनुमान जी   गए, मगर गोदाम में बूटी को ढूंढ न सके, तो पूरा गोदाम ही ले आए थे। बस हमारा तो बूटी ज्ञान यही था। पर अब बूटी को टीवी पर देख कुछ समझे नहीं आ रहा था कि ये कैसे हुआ ? थोड़ा और देखे तो समझ आया कि अब बूटी, जंगलों, पहाड़ों में रहने वाली बूटी नहीं रही..संसद में पहुँच गई है। एक  जनसेवक महोदय के लिए आज यह गरीबी, भूकम्प, भ्रष्टाचार आदि सभी समस्याओं को पछाड़ देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। यूँ तो वह जनसेवक कभी संसद में चूं भी नहीं करते, उनके अंगडाई से उनकी कुर्सी ही चूं-चा करती रहती है। मगर जब समस्या बूटी की हो तो बोलना क्या हिलना भी पड़ता है जी! इसीलिए तो जनसेवक महोदय बूटी को बाजार से उठाकर सीधे संसद भवन लेते गए। सिर्फ ले ही नहीं गए, इसके तमाम भयानक प्रभावों पर संसद में भरपूर व्याख्यान भी दिए। व्याख्यान के दौरान इसकी परवाह बिलकुल नहीं किए कि उनके इस व्याख्यान से बूटी को प्रचार मिल रहा है। अजी जिससे देश को हानि हो, उसका सिर्फ इसलिए विरोध नहीं करना कि उसे प्रचार मिलेगा, ये भी कोई बात हुई! शुद्ध कायरता है ये तो। खबर थोड़ी और बढ़ी तो पता चला कि ये बूटी भी डा सुषेण की बूटी से कोई कम नहीं है। बस अंतर इतना है कि वो उम्र बढ़ा देती थी, ये जनसँख्या बढ़ाने वाली है। पता चला कि इसके जन्मदाता एक आधुनिक बाबा हैं जो उक्त बूटी विरोधी जनसेवक महोदय से जरा भी कम जनसेवक नहीं हैं। बस संसद/विधानसभा भर नहीं जाते...वर्ना तो जो काम वहां जाने वाले जनसेवक वाले करते हैं, वो ये भी करते ही रहते हैं - मतलब कि जनता की सेवा। बस बात इतनी है कि संसद/विधानसभा जाने वालो के माथे पर जनसेवक  का आधिकारिक ठप्पा लगा हुआ है, जबकि बाबा को बार-बार कहके लोगों को अपना जनसेवक होना याद दिलाना पड़ता है। अजी अब जो हो! पर अब तो अच्छी ठन गई थी बाबा और जनसेवक के बीच। जनसेवक महोदय का कहना था कि बूटी के नाम में देश की आधी आबादी की उपेक्षा की गई है। अब जब नाम में ही गडबडझाला है तो प्रभाव तो ऐसे ही बुरा होगा। इससे सामाजिक असंतुलन आएगा। हाँ, नाम बदल जाय तो काम बन सकता है। दूसरी तरफ बाबा ‘फ़क़ीर के बहाने वजीर’ का कलाम देते हुए कहते  कि यह बूटी तो देश मानव संशाधन के लिए है और नाम में क्या रखा है भला ? गनीमत रही कि बाबा ने ये नहीं कहा कि कौशल विकास के बाद यह बूटी ही देश की तक़दीर बदल सकती है। खैर! टीवी पर यह कथा रुकी जब न्युज चैनल पर एक ‘छोटे से  प्रोमोशनल ब्रेक’ के लिए रुका गया....मगर बाबा और जनसेवक महोदय की यह लड़ाई तो चलती रही। अब देश को आधुनिक बाबा की इस बूटी का लाभ मिले न मिले...मगर दोनों इन जनसेवकों की लुप्त-सुषुप्त हो रही छवि को इसके बवाल से लोकप्रियता की बूटी जरूर मिल रही है।