- पीयूष द्विवेदी भारत
लगभग १२ साल बाद आखिरकार हिट एंड रन केस में अदालत का फैसला आ गया और
सलमान खान को दोषी मानते हुए मुंबई की सेशंस अदालत ने पांच साल की सजा
सुनाई । लेकिन कुछ ही घंटे में उन्हें हाई कोर्ट से अंतरिम जमानत मिल गई । दो दिन
बाद जब दूबारा हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई तो उसने अगली सुनवाई तक इस
सजा को निलंबित कर दिया । सलमान खान पर आरोप था कि २८ सितम्बर २००२ की रात में
उन्होंने शराब के नशे में बांद्रा में अमेरिकन एक्स्प्रेस बेकरी के बाहर
फुटपाथ पर सो रहे लोगों पर अपनी लैंड क्रूजर कार चढ़ा दी थी, जिसमे कि १ आदमी की
मौत हो गई और चार लोग घायल हुए । वैसे,
इस मामले में अभियोजन पक्ष की तरफ से बाईस गवाह पेश किए गए थे जबकि बचाव पक्ष सलमान
के ड्राईवर के रूप में सिर्फ एक गवाह को पेश किया । पर अभियोजन के इतने मजबूत केस
के बाद भी इस मामले में सेशंस कोर्ट फैसला आने में इतना अधिक समय लगा तो निस्संदेह
इसके लिए सलमान खान का रसूखदार होना एक बड़ा कारण है । पर इससे भी बड़ा कटु सत्य ये
है कि अगर सलमान अपने रसूख का दुरूपयोग कर इस मामले को टालते रहे तो इसके लिए कहीं
न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था की अनेक प्रक्रियात्मक खामियां ही जिम्म्मेदार हैं । इस मामले के एक पीड़ित व्यक्ति
जो उस वारदात में अपना एक पैर गँवा बैठे थे, का कहना है कि वे नहीं चाहते कि सलमान को सजा हो, क्योंकि अब इससे उन्हें कोई लाभ नहीं होने
वाला । समझा जा सकता है कि न्याय व्यवस्था की सुस्ती के कारण ही उस पीड़ित के मन
में न्याय की प्रति ये उदासीनता घर कर गई है ।
वैसे, न्याय व्यवस्था की इस
सुस्ती को खुद न्यायपालिका समेत सरकार आदि के द्वारा भी स्वीकार तो किया जाता है,
पर दुर्भाग्य कि इस सुस्ती को खत्म करने
के लिए सिवाय चंद कोरम पूरा करने के किसीके द्वारा कुछ ठोस कदम नहीं उठाए जाते । एक आंकड़े की माने तो अभी देश के उच्च और जिला
अदालतों में ढाई से तीन करोड़ मामले लंबित पड़े अपने अंजाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं और
अगर न्याय मिलने की यही गति रही तो आने वाले समय में इनमे और बढ़ोत्तरी की गुंजाइश
है । इतने अधिक मामले लंबित होने के लिए सबसे
बड़ा कारण यही है कि आज हमारी न्याय व्यवस्था जजों की किल्लत से जूझ रही है । सभी छोटी-बड़ी अदालतों में जजों की संख्या
आवश्यकता से काफी कम है । आज जहाँ देश के
उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के २५० से ऊपर पद खाली हैं, वहीँ निचली अदालतों में ये आंकड़ा ३७०० है । जिला अदालतों में भी जजों के लगभग १८००० पद
रिक्त हैं । समझा जा सकता है कि जिस न्याय
व्यवस्था में आवश्यकतानुसार जजों की मौजूदगी ही न हो, वहाँ जनता को तय समय में समुचित न्याय भला कैसे
मिल सकता है । समस्या सिर्फ इतनी हो तो
कहें भी, पर यहाँ तो समस्याओं की फेहरिस्त पड़ी है । जजों की कमी के अतिरिक्त न्यायालयों के कार्यों
का कम्प्यूटरीकरण भी बेहद धीमी गति से हो रहा है, जो कि एक बड़ा कारण है न्यायिक
सुस्ती के लिए । साथ ही, पुलिस की धीमी
जांच और चार्जशीट दायर करने में की जाने वाली देरी भी इस न्यायिक सुस्ती के लिए
काफी हद तक जिम्मेदार है । चार्जशीट दायर
होने के बाद भी कितने बार पुलिस की कमजोर और तथ्यहीन जांच के कारण न्यायालय द्वारा
उसे दूबारा चार्जशीट दायर करने के लिए कह दिया जाता है, जिस कारण न्यायिक
प्रक्रिया में समय की खासा बर्बादी होती है । किसी भी न्याय व्यवस्था के लिए इससे अधिक
दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि कितने मामलों में अदालत का फैसला आने में इतनी देरी
होती है कि मामले से सम्बंधित लोगों की मौत तक हो जाती है और अदालत का फैसला नही आ
पाता है । देश में न्यायिक सुस्ती की इस
स्थिति को रेखांकित करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए पी शाह ने कहा था कि अगर
ऐसा ही चलता रहा तो लंबित पड़े मामलों को निपटाने में ४५० साल लग जाएंगे । यह बात थोड़ी अटपटी भले लगे, पर यह भारतीय न्याय
व्यवस्था के यथार्थ के बेहद निकट है ।
हालांकि देश की इस न्यायिक
सुस्ती को दूर करने व लंबित पड़े मामलों के तीव्र निपटारे के लिए सरकार द्वारा कुछेक
प्रयास जरूर किए जा रहे हैं । केंद्र सरकार द्वारा न्यायिक तीव्रता व लंबित पड़े
मामलों के तेजी से निपटारे के लिए राज्य सरकारों को ५ हजार करोड़ का अनुदान दिया
गया है, जिसके जरिये राज्यों द्वारा विशेष प्रातः अदालत, सांध्य अदालत समेत फास्ट ट्रैक अदालतों से लेकर लोक अदालतें स्थापित
करने जैसी तमाम कवायदें की जाती रही हैं । वैसे, फास्ट ट्रैक अदालतों के फैसलों का प्रायः
ये कहकर आलोचना की जाती है कि ये फैसले जल्दबाजी में लिए गए और गुणवत्ता से हीन
होते हैं । अब जो भी हो, पर इतना तो साफ़
है कि फास्ट ट्रैक अदालतों ने हमारी न्याय व्यवस्था में तेजी ही लाई है । इसी क्रम में बात लोक अदालतों की करें तो न्यायिक
तीव्रता के मामले में तो ये फास्ट ट्रैक अदालतों से भी कई कदम आगे हैं । अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर लगी लोक
अदालतों ने न सिर्फ १.२५ करोड़ मामलों का निपटारा किया, बल्कि लंबित पड़ा ३००० करोड़
का मुआवजा भी बांटा । वैसे, लोक अदालतों
में वाहन दुर्घटना, मुआवजे से सम्बंधित, वैवाहिक, मजदूरी विवाद, जमीन
अधिग्रहण से सम्बंधित, किराये के लेन-देन, बैंकों से संबंधित आदि कुछ चयनित मामलों की ही सुनवाई हो सकती है । हालांकि लोक अदालतें न्याय की एक वैकल्पिक
व्यवस्था हैं और इनके जरिए होने वाले न्याय की तमाम खामियां होती हैं । यह अदालतें वादियों के बीच सहमति व सुलह से
मामले का फटाफट निपटारा करने के तरीके पर काम करती हैं । सीधे शब्दों में कहें तो इनका उद्देश्य पीड़ित
पक्ष को न्याय देने से अधिक समझौता कराके मामले को ख़त्म करना होता है और समझौते के लिए अक्सर न्याय को ताक पर रख दिया
जाता है । उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है
कि न्याय में तेजी के लिए लोक अदालत जैसी कवायदों से मामलों के निपटारे में कुछ तेजी
तो आ सकती है, पर ये लोगों को सच्चा और अच्छा न्याय नहीं मिल सकता । कहने का अर्थ है कि लोक अदालत को पूरी तरह से खारिज तो नहीं कर
सकते, लेकिन इसके भरोसे न्याय व्यवस्था में तेजी की सोचना गलत होगा ।
उपर्युक्त सभी बातों को
देखते हुए स्पष्ट है कि भारतीय न्याय तंत्र को ऐसा बनाने की जरूरत है कि वो तेज होने
के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण भी हो, जिससे कि अपराधी उसका भय मानें और अपराध करने से
पहले सौ बार सोचें । इसके लिए पहली जरूरत
ये है कि हमारी पुलिस अपनी ढुलमुल जांच प्रक्रिया को छोड़ें और मामलों की तेजी से
जांच करे । दूसरी बात कि न्यायालयों में
रिक्त पड़े जजों के पदों पर यथाशीघ्र नियुक्ति की जाए जिससे उनमे तेजी से काम हो
सके । ऐसा प्रयास हो कि हमारी सामान्य अदालतें
ही तेजी से काम कर लोगों को समुचित व ससमय न्याय दे सकें, ताकि फास्ट ट्रैक व लोक
अदालत जैसी न्याय की गुणवत्ता को कम करने वाली न्यायिक व्यवस्थाओं का कम से कम
उपयोग करना पड़े । अगर ऐसा होता है तभी हम
सही मायने में जनता के मन में भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति दृढ़ विश्वास उत्पन्न
कर पाएंगे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें