सोमवार, 4 मई 2015

बूटी और बवाल [नई दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 
नई दुनिया
शाम को ऑफिस से थके-हारे आकर टीवी ऑन कर न्यूज लगाए नहीं कि बूटी कथा सामने थी। सब चैनल बूटी पुराण बांचने में लगे थे। पहले तो हमारी समझ में ही नहीं आया कि बूटी रामायण और जंगल के संत-महात्माओं के दिमाग से निकलकर सीधे टीवी पर कैसे पहुँच गई ? इतनी तेज प्रोन्नति कैसे जी ? हमने तो सुना था कि लक्ष्मण जी की जान पर बन आई तो तत्कालीन बूटी स्पेशलिस्ट डा सुषेण वैद ने ‘संजीवन’ नामक बूटी के गोदाम का पता देकर बूटी जल्दी से जल्दी लाने को कहा। हनुमान जी   गए, मगर गोदाम में बूटी को ढूंढ न सके, तो पूरा गोदाम ही ले आए थे। बस हमारा तो बूटी ज्ञान यही था। पर अब बूटी को टीवी पर देख कुछ समझे नहीं आ रहा था कि ये कैसे हुआ ? थोड़ा और देखे तो समझ आया कि अब बूटी, जंगलों, पहाड़ों में रहने वाली बूटी नहीं रही..संसद में पहुँच गई है। एक  जनसेवक महोदय के लिए आज यह गरीबी, भूकम्प, भ्रष्टाचार आदि सभी समस्याओं को पछाड़ देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। यूँ तो वह जनसेवक कभी संसद में चूं भी नहीं करते, उनके अंगडाई से उनकी कुर्सी ही चूं-चा करती रहती है। मगर जब समस्या बूटी की हो तो बोलना क्या हिलना भी पड़ता है जी! इसीलिए तो जनसेवक महोदय बूटी को बाजार से उठाकर सीधे संसद भवन लेते गए। सिर्फ ले ही नहीं गए, इसके तमाम भयानक प्रभावों पर संसद में भरपूर व्याख्यान भी दिए। व्याख्यान के दौरान इसकी परवाह बिलकुल नहीं किए कि उनके इस व्याख्यान से बूटी को प्रचार मिल रहा है। अजी जिससे देश को हानि हो, उसका सिर्फ इसलिए विरोध नहीं करना कि उसे प्रचार मिलेगा, ये भी कोई बात हुई! शुद्ध कायरता है ये तो। खबर थोड़ी और बढ़ी तो पता चला कि ये बूटी भी डा सुषेण की बूटी से कोई कम नहीं है। बस अंतर इतना है कि वो उम्र बढ़ा देती थी, ये जनसँख्या बढ़ाने वाली है। पता चला कि इसके जन्मदाता एक आधुनिक बाबा हैं जो उक्त बूटी विरोधी जनसेवक महोदय से जरा भी कम जनसेवक नहीं हैं। बस संसद/विधानसभा भर नहीं जाते...वर्ना तो जो काम वहां जाने वाले जनसेवक वाले करते हैं, वो ये भी करते ही रहते हैं - मतलब कि जनता की सेवा। बस बात इतनी है कि संसद/विधानसभा जाने वालो के माथे पर जनसेवक  का आधिकारिक ठप्पा लगा हुआ है, जबकि बाबा को बार-बार कहके लोगों को अपना जनसेवक होना याद दिलाना पड़ता है। अजी अब जो हो! पर अब तो अच्छी ठन गई थी बाबा और जनसेवक के बीच। जनसेवक महोदय का कहना था कि बूटी के नाम में देश की आधी आबादी की उपेक्षा की गई है। अब जब नाम में ही गडबडझाला है तो प्रभाव तो ऐसे ही बुरा होगा। इससे सामाजिक असंतुलन आएगा। हाँ, नाम बदल जाय तो काम बन सकता है। दूसरी तरफ बाबा ‘फ़क़ीर के बहाने वजीर’ का कलाम देते हुए कहते  कि यह बूटी तो देश मानव संशाधन के लिए है और नाम में क्या रखा है भला ? गनीमत रही कि बाबा ने ये नहीं कहा कि कौशल विकास के बाद यह बूटी ही देश की तक़दीर बदल सकती है। खैर! टीवी पर यह कथा रुकी जब न्युज चैनल पर एक ‘छोटे से  प्रोमोशनल ब्रेक’ के लिए रुका गया....मगर बाबा और जनसेवक महोदय की यह लड़ाई तो चलती रही। अब देश को आधुनिक बाबा की इस बूटी का लाभ मिले न मिले...मगर दोनों इन जनसेवकों की लुप्त-सुषुप्त हो रही छवि को इसके बवाल से लोकप्रियता की बूटी जरूर मिल रही है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें