शनिवार, 23 मई 2015

टकराव का जिम्मेदार कौन [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
राजधानी दिल्ली की नवनिर्वाचित आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच कार्यकारी मुख्य सचिव की नियुक्ति को लेकर उपजी असहमति ख़त्म होने की बजाय संवैधानिक अधिकारों के एक बड़े विवाद का रूप लेती जा रही है। दोनों पक्षों ने जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाक़ात की तो लगा कि अब यह विवाद समाप्त हो जाएगा, मगर फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा। हालिया हालातों पर नज़र डालें तो मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली के नौकरशाहों को कोई भी फाइल उपराज्यपाल से पहले सम्बंधित विभाग के मंत्रियों के पास भेजने को कहा तो वहीँ जवाब में उपराज्यपाल नजीब जंग साहब ने अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिख कर राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त अपने विशिष्ट संवैधानिक अधिकारों से उन्हें अवगत कराया साथ ही दिल्ली के अधिकारियों को दिल्ली सरकार द्वारा विगत एक सप्ताह के भीतर की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर पूर्व स्थिति को जारी रखने  का निर्देश भी दे दिया। दरअसल यह पूरा मामला तब शुरू हुआ कि जब अभी हाल ही में दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव दस दिन की छुट्टी पर चले गए, तो उनकी जगह उपराज्यपाल नजीब जंग ने कार्यवाहक मुख्य सचिव के रूप शकुन्तला गैमलीन को नियुक्त कर दिया। बस इसी बात को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री साहब भड़क गए, उनका कहना था कि इस नियुक्ति का अधिकार दिल्ली सरकार को है। इस नियुक्ति से मुख्यमंत्री महोदय का गुस्सा इतना बढ़ा कि उन्होंने शकुन्तला गैमलिन की नियुक्ति के आदेश को पारित करने वाले प्रधान सचिव अनिंदों मजूमदार (सेवा विभाग) को बड़े ही भद्दे ढंग से उनके पद से हटाकर उनकी जगह राजिंदर कुमार को नियुक्त कर दिया। मुख्यमंत्री की इस कारवाई को उपराज्यपाल ने असंवैधानिक बताया और यहीं से यह विवाद बड़ा रूप लेता गया। यहाँ सवाल यह उठता है कि उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में आखिर कौन सही है और कौन गलत ? सवाल यह भी कि कौन किसके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है ?
   गौर करें तो इस विवाद के लिए कमोबेश दोनों ही पक्ष जिम्मेदार हैं, मगर सर्वाधिक और पहले जिम्मेदार तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ही हैं। उपराज्यपाल ने भी अवश्य ही थोड़ी अनावश्यक हठधर्मिता दिखाई जो कि उनकी गलती है, मगर इस विवाद को पैदा करने और इतना बड़ा बनाने का सर्वाधिक श्रेय केजरीवाल को ही जाता है। कानूनी रूप से देखें तो भी केजरीवाल गलत और उपराज्यपाल सही दिखते हैं। चूंकि, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के नाते दिल्ली एक अपूर्ण राज्य है जिसकी अपनी विधानसभा भी है, मगर अन्य पूर्ण राज्यों की तरह इसके पास अधिकार नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते इससे सम्बंधित कई अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं। सन १९९१ में ६९ वे सविधान संशोधन के तहत दिल्ली में मंत्रिपरिषद और विधानसभा का प्रावधान किया गया, लेकिन भूमि, पुलिस एवं क़ानून व्यवस्था को राज्य सरकार के दायरे से बाहर रखा गया। और यह सही भी है क्योंकि देश की राजधानी का अधिकाधिक नेतृत्व देश की सरकार के हाथ में ही होना चाहिए। बावजूद इन नियमों  के केजरीवाल  ने यह आदेश दिया कि भूमि, पुलिस आदि मामलों से सम्बंधित फाइलें भी उपराज्यपाल से पहले राज्य सरकार के सम्बंधित विभाग के मंत्रियों के पास भेजी जाएं। उनका तर्क था कि भूमि, पुलिस आदि मामलों में उपराज्यपाल को निर्णय लेने से पहले मुख्यमंत्री से सलाह लेने का नियम है। बेशक ऐसा नियम है, मगर यह तब हो सकता है जब राष्ट्रपति इस सम्बन्ध में एक अधिसूचना जारी करें। पर यहाँ ऐसी किसी  अधिसूचना के बगैर ही केजरीवाल ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की फाइलों को भी पहले अपने मंत्रियों के पास भेजने का आदेश सुना दिया। मुख्य सचिव की नियुक्ति पर आएं तो यहाँ भी केजरीवाल बेकार में ही बवाल मचाए दिखते हैं। नियमों के अनुसार  मुख्य सचिव, पुलिस कमिश्नर, राज्य गृह सचिव और सचिव (भूमि  की नियुक्ति का अधिकार उपराज्यपाल के पास है। बाकी अन्य नियुक्तियां आमतौर पर राज्य कैबिनेट की सलाह के आधार पर की जाती हैं।  इन नियमों की पुष्टि केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा इस सम्बन्ध में जारी अधिसूचना में भी की गई है।  स्पष्ट है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने दायरों से बाहर जाकर निर्णय लिए और जब उन्हें रोका गया तो ये हंगामा मचा दिए। ऐसा तो कत्तई नहीं होगा कि उन्हें उपर्युक्त नियमों की समझ न हो, मगर फिर भी वे या तो अपने निरर्थक अहंकार की तुष्टि अथवा केंद्र सरकार को इस मामले में घसीट कर घटिया राजनीति करने के उद्देश्य से इस मामले को इतना बड़ा बनाए हैं। हालांकि केन्द्रीय गृह मंत्रालय की अधिसूचना को छोड़ दें तो इस मामले से केंद्र सरकार ने जिस तरह से एक निश्चित दूरी बना रखी है, उससे उसको  इसमें घसीटने की केजरीवाल की मंशा पर तो पानी फिरता  दिख ही रहा है, उलटे उनके इस रवैये से दिल्ली की जनता और नौकरशाहों में भी उनकी सरकार के प्रति अच्छा सन्देश जाता नहीं दिख रहा।

  चूंकि, दिल्ली की जनता ये समझ सकती है कि अबसे पहले भी दिल्ली में पूर्ण बहुमत की सरकारें रही हैं और उपराज्यपाल भी रहे हैं, पर अबतक ऐसा कोई विवाद नहीं हुआ। क्योंकि उन सरकारों ने अपने संवैधानिक दायरे में रहते हुए काम किया है, जबकि मौजूदा मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को शायद किसी दायरे में रहने की आदत ही नहीं है। उन्हें तो संभवतः ऐसा शासन चाहिए जिसमे उनके ऊपर कोई न हो और जो वे कहें वही पत्थर की लकीर की तरह चले। खबर है कि दिल्ली के लगभग दो दर्जन आईएएस अधिकारी दिल्ली सरकार के तानाशाही रवैये से परेशान होकर दिल्ली से बाहर तबादला चाहते हैं। उनका कहना है कि यह सरकार अपनी बात का शब्दशः पालन चाहती है, अब ऐसे माहौल में काम करना कठिन है। केजरीवाल सरकार के रुख को इन अधिकारियों की बातों से भी समझा जा सकता है। यह सही है कि दिल्ली ने केजरीवाल को ऐतिहासिक बहुमत दिया है, लेकिन इसलिए नहीं कि वे बेवजह की  लड़ाई ठाने और विवादों में उलझे रहें। यह बहुमत उन्हें उनके द्वारा किए गए वादों को पूरा करने के लिए मिला है, जिसमे वो अबतक कोई खास सफल नहीं दिख रहे हैं। उचित होगा कि केजरीवाल और उनकी सरकार अपनी ऊर्जा को ऐसे विवादों में खपाने की बजाय अपने वादों को पूरा करने में लगाएं। यह करना न केवल दिल्ली के लिए बल्कि उनकी सरकार के लिए भी ठीक रहेगा।

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