बुधवार, 18 मई 2016

बोतलबंद पानी पर लगे पूर्ण प्रतिबन्ध [जनसत्ता, सामना, हरिभूमि और दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

सामना 
देश में बोतलबंद पानी के नफा-नुकसान को लेकर बहस तो जब-तब होती ही रहती है, लेकिन अबकी केंद्र सरकार द्वारा सरकारी कार्यक्रमों में बोतलबंद पानी का उपयोग नहीं करने का निर्णय लेने से यह विषय फिर एकबार प्रासंगिक हो गया है। सरकार का कहना है कि बोतलबंद पानी से बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरा निकलता है, जो कि पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इसके मद्देनज़र सरकार ने अपने मंत्रालयों, विभागों और सभी सार्वजनिक उपक्रमों में बोतलबंद पानी का उपयोग बंद करने का निर्णय लिया है। केन्द्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय द्वारा इस सम्बन्ध में पहल की गई है। साथ ही, केंद्र सरकार राज्य सरकारों से भी अपने यहाँ बोतलबंद पानी का उपयोग बंद करने का अनुरोध करने की बात कह रही है। केंद्र सरकार का मानना है कि उसके ऐसा करने से आम लोगों के बीच एक सन्देश जाएगा जिससे वे भी बोतलबंद पानी का उपयोग करने से परहेज करेंगे। समझना आसान है कि यहाँ मामला मुख्यतः उदाहरण प्रस्तुत करने का है। 
इसमे कोई संदेह नहीं कि सरकारी स्तर पर बोतलबंद पानी के उपयोग से परहेज करने का केंद्र सरकार का निर्णय एक अच्छी पहल है लेकिन, ऐसा करके वो यदि यह सोचती है कि आम लोग भी बोतलबंद पानी का उपयोग करना कम या बंद देंगे तो निश्चित ही ये उसकी बहुत बड़ी गलतफहमी है। ये वो दौर नहीं है जब नेताओं के आह्वान पर जनता उनका अनुसरण कर लेती थी। अब न तो वैसे नेता रहे हैं और न ही जनता। दूसरी बात यह भी है कि सरकार का कार्य उपदेश देकर और आदर्श प्रस्तुत कर देश-समाज का सुधार करना नहीं होता है, बल्कि उपयुक्त सुधार के लिए कायदे-क़ानून बनाकर उनका अनुपालन सुनिश्चित करवाना होता है। ऐसे में केंद्र सरकार यदि बोतलबंद पानी को हानिकारक मानती है और उसके उपयोग की रोकथाम के प्रति वास्तव में गंभीर है, तो उसे इसके उपयोग को सिर्फ सरकारी कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर  क़ानून लाकर प्रतिवंधित करना चाहिए।
दैनिक जागरण 
दरअसल बोतलबंद पानी हर तरह से सिर्फ हानिकारक है। यह प्लास्टिक कचरे के रूप में न केवल पर्यावरण को हानि पहुंचाता है, बल्कि कई एक परीक्षणों के अनुसार इस पानी के सेवन से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक शोध के मुताबिक़ भारत में मौजूद बोतलबंद पानी के अधिकांश ब्रांड स्वास्थ्य की दृष्टि से पूर्णतः सुरक्षित नहीं हैं। शोध में  कहा गया है कि देश के अधिकांश ब्रांडों के बोतलबंद पानी में उन खतरनाक कीटनाशकों की मिलावट पाई गई है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं और जिन्हें भारत सरकार द्वारा पहले से ही प्रतिबंधित किया जा चुका है। एक आंकड़े के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली के बोतलबंद पानी के ब्राण्ड्स में कीटनाशकों की निर्धारित मात्रा ०.०५ से ३६.४ फीसदी अधिक कीटनाशक पाए गए हैं तो आर्थिक राजधानी मुंबई में यह मात्रा तय सीमा से ७.२ फीसदी अधिक रही है। इसके अलावा नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल का अध्ययन है कि बोतलबंद पानी और साधारण पानी लगभग समान है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी के बोतलों को बनाने के दौरान एक खास किस्म के रसायन पैथलेट्स का प्रयोग  किया जाता है जो बोतलों को मुलायम बनाता है। यही रसायन सौंदर्य प्रसाधनों, इत्र, खिलौनों आदि के निर्माण में भी प्रयुक्त होता है। सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान होते ही यह रसायन पानी में घुलने लगता है और हमारे शरीर में जाकर अनेक प्रकार के दुष्प्रभाव डालता है।  ऐसे रसायनों से बनी बोतल में बंद पानी जितना पुराना होता जाता है उसमें रसायन की मात्रा बढ़ने से उसका उपयोग करने वाले को जी मचलना, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है।  ऐसे में, बोतलबंद पानी की कंपनियों द्वारा भले ही यह दावा किया जाता रहा हो कि उनका पानी स्वास्थ्य के लिए हर तरह से सुरक्षित है लेकिन, उपर्युक्त तथ्यों को देखने के बाद समझना आसान है कि वास्तविकता उनके दावे के एकदम विपरीत है। 
हरिभूमि 
गौर करें तो भारत में बोतलबंद पानी के कारोबार की शुरुआत १९९० के आखिर में हुई। तब बिसलेरी ने देश में पहली बार बोतलबंद पानी को बाजार में उतारा था। इसके साथ ही अंधाधुंध विज्ञापन चलाकर यह साबित करने की कोशिश की गई कि बोतलबंद पानी पूरी तरह से सुरक्षित है। दरअसल बोतलबंद पानी का कारोबार सस्ता और बेहद कम जोखिमवाला होता है, जिस कारण इसमे मोटा मुनाफा कमाने की भरपूर संभावना होती है, इसलिए इससे सम्बद्ध कम्पनियाँ हर हाल में इस कारोबार को बढ़ाना चाहती हैं। इसी कारण वे इसकी गुणवत्ता के सम्बन्ध में बढ़ा-चढ़ाकर दावे करती रहती हैं। अपने-अपने ब्रांड के प्रचार पर अच्छा-ख़ासा निवेश करती रहती हैं और उन्हें इसका लाभ भी मिलता  है, जिसका उदाहरण देश में बोतलबंद पानी के कारोबार की २२ फीसदी जैसी उच्चस्तरीय   वृद्धि दर है। आज देश में बोतलबंद पानी का कारोबार काफी तेजी से अपने पैर पसार रहा है। सन २०१३ में  इसका कारोबार लगभग ६० अरब रूपये का रहा और अनुमान व्यक्त किया जा रहा है कि २०१८ तक यह डेढ़ ख़रब से अधिक हो सकता है। आश्चर्य है कि हम मुफ्त पानी की बात तो करते हैं और सरकारों द्वारा इसका वादा किए जाने को मान भी लेते हैं, लेकिन बोतलबंद पानी के लिए पंद्रह से बीस रुपए चुकाते समय एक क्षण के लिए भी सोचते तक नहीं। क्या कभी किसी ने भारत में बोतलबंद पानी की मनमानी कीमत के विरोध में जन आंदोलन का समाचार सुना है? शायद नहीं। स्पष्ट है कि अन्य वस्तुओं के मूल्यों में मामूली वृद्धि तो हमें बेशक आंदोलित करती है, परंतु बोतलबंद पानी के अनियंत्रित दाम से हमें कोई शिकायत नहीं। समझना आसान है कि लोग बोतलबंद पानी की गुणवत्ता के भ्रमजाल में एकदम उलझे हुए से हैं, जिसका भरपूर लाभ इनसे सम्बंधित कंपनियों को मिल रहा है।   ऐसे में, वे कम्पनियाँ कभी नहीं चाहेंगी कि उनके इस कारोबार पर कोई लगाम लगे। लेकिन, पर्यावरण और जनता के स्वास्थ्य के लिए सरकार को तो इस सम्बन्ध में ठोस कदम उठाने ही चाहिए।  
जनसत्ता 
यह तो स्पष्ट है कि बोतलबंद पानी प्लास्टिक कचरे के रूप में पर्यावरण और पेय के रूप में व्यक्ति के स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है। ऐसे में, एक बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि सरकार अगर बोतलबंद पानी पर प्रतिबन्ध लगा देती है तो क्या उसके स्थान पर उपयोग करने के लिए सरकार के पास कोई बेहतर और हर तरह से सुरक्षित विकल्प है ? बिलकुल है और इससे कहीं बेहतर विकल्प है। ऐसा विकल्प जो न केवल हर तरह से सुरक्षित है बल्कि कई मायनों में लाभकारी भी है। सरकार पानी के पात्र के रूप में प्लास्टिक बोतल की जगह मिटटी के बर्तनों को उपयोग में लाने पर विचार कर सकती है। ये बर्तन मिटटी के होने के कारण न केवल पर्यावरण की दृष्टि से एकदम सुरक्षित हैं बल्कि इनको अपनाने से देश को आर्थिक दृष्टि से भी लाभ होगा। मिटटी के बर्तन प्लास्टिक की तरह नाशहीन नहीं होते, वे तो नष्ट होने पर मिटटी के मिटटी में मिल जाएंगे यानी इनसे कोई कचरा नहीं होगा और पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा। 
दरअसल मिटटी के बर्तन बनाना भारत का प्राचीन कुटीर उद्योग रहा है, जो अब मांग न के बराबर होने के कारण आज काफी हद तक शिथिल पड़ चुका है। अब यदि सरकार मिटटी के बर्तनों में पैक्ड पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था लागू कर दे तो उससे बोतलबंद पानी का एक देशी और सुरक्षित विकल्प तो मिल ही जाएगा, देश के मिटटी बर्तन के कुटीर उद्योग में नवीन प्राणशक्ति का संचार भी हो सकेगा। साथ ही, इससे सम्बंधित लोगों को रोजगार भी मिलेगा। निश्चित ही सुराही, छोटे आकार के मटके आदि मिटटी के बर्तनों में पानी उपलब्ध कराना बोतलबंद पानी से कई गुना बेहतर विकल्प होगा। कम्पनियाँ और ब्रांड जो हैं वही रहें, बस किया यह जाय कि वे बोतल की जगह मटके और सुराही में पैक्ड पानी को प्रयुक्त करें। सरकार को यह करना होगा कि मिटटी बर्तन के कुटीर उद्योग को आर्थिक व तकनिकी सहयोग देकर पुनर्स्थापित करे और फिर प्लास्टिक बोतल की जगह विकल्प के रूप में रखकर उसके लिए एक बड़ा बाजार उपलब्ध करवा दे। कहने की जरूरत नहीं कि यह करना हर तरह से देश और समाज के हित में होगा।  
अब जहाँ तक बात पानी की गुणवत्ता की है तो इस सम्बन्ध में सरकार को अवश्य सजग रहना होगा। उचित होगा कि इस सम्बन्ध में एक निगरानी तंत्र ही स्थापित कर दिया जाय जो पैक्ड पानी के सुरक्षा मानकों की निगरानी करता रहे। अगर गंभीरता के साथ और मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सरकार इस सम्बन्ध में आगे बढे तो यह सब करना कुछ कठिन नहीं है। सरकार के पास शक्ति और साधन दोनों हैं, अतः उचित होगा कि सरकार सिर्फ सरकारी स्तर पर बोतलबंद पानी का उपयोग रोककर अपने दायित्वों की इतिश्री न समझे और उपर्युक्त कदम उठाते हुए इस समस्या का समूल समाधान करे।

गुरुवार, 12 मई 2016

पीएम की डिग्री पर बेजां हंगामा मचा रहे केजरीवाल [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
खुद को आम आदमी और अपनी सरकार को आम आदमी की सरकार बताने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल इन दिनों आम आदमी के मुख्यमंत्री कम विवादों के नेता अधिक लग रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे उन्होंने विवादों में रहकर सस्ती  लोकप्रियता हासिल करने को अपनी राजनीतिक रणनीति ही बना लिया है। इसीलिए कभी राज्यपाल नजीब जंग से, कभी न्यायालय से, कभी केंद्र सरकार के मंत्रियों से तो कभी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बिना बात उलझ  जा रहे हैं। हालिया मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्रियों के सम्बन्ध में है। दरअसल मामला कुछ यूँ है कि विगत दिनों अरविन्द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मोदी की शैक्षणिक योग्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए केन्द्रीय सूचना आयुक्त को एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री की डिग्रियों को सार्वजनिक करने की मांग की थी, जिसके बाद केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्देश पर गुजरात विश्वविद्यालय ने प्रधानमंत्री की परास्नातक की डिग्री को सार्वजनिक कर दिया। लेकिन, इसके बाद आम आदमी पार्टी उस परास्नातक की डिग्री पर सवाल उठाते हुए उनके स्नातक की डिग्री की मांग करने लगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्नातक की डिग्री भी सार्वजनिक कर दी। लेकिन आम आदमी पार्टी तो जैसे ये कसम खाकर बैठी थी कि प्रधानमंत्री की डिग्री को हर हाल में फर्जी ही बताना हैं। अपनी इस बात को सही सिद्ध करने के लिए आप के बेचैनी का आलम यह रहा कि उसने पहले जन्म की तारीखों के जरिये भ्रम फैलाया और उसके बाद नया शिगूफा यह छेड़ा कि डीयू द्वारा जारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्नातक की डिग्री उनकी नहीं किसी और मोदी की है। हालांकि अपने इन सभी आरोपों के पक्ष में सिवाय चंद कुतर्कों के आप कोई पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी। लेकिन फिर भी, आप के इन खोखले से दिख रहे आरोपों में कांग्रेस आदि अन्य विपक्षी दलों ने भी स्वाभाविक रूप से अपना सुर मिलाया। वैसे अरविन्द केजरीवाल का तो यह दस्तूर बनता जा रहा है कि बिना किसी सबूत या तथ्य के किसीके भी खिलाफ कुछ भी कहकर चर्चा बटोर लो और अगर वो कोई मुकदमा वगैरह करता है तो फिर चोरी-छिपे उससे माफ़ी मांगकर जान छुड़ा लो। उदाहरण के तौर पर गौर करें तो केन्द्रीय सड़क, परिवहन और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी पर भी केजरीवाल ने गत वर्ष कुछ हवा-हवाई आरोप लगाए थे और जब गडकरी ने मानहानि का मुकदमा किया तो चुप-चाप उनसे माफ़ी मांगकर मामले को सलटा लिए। अरुण जेटली मामले में भी कुछ-कुछ यही हुआ। दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले केजरीवाल साहब दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर तमाम तरह के आरोप लगाते फिरते थे और उनके खिलाफ कई सौ पन्नों के सबूत होने का दावा भी करते थे, लेकिन जबसे वे सरकार में आए हैं तबसे वह आरोप और सैकड़ों पन्नों के सबूत जाने कहाँ खो गए हैं कि अब उनका जिक्र ही नहीं आता। यहाँ भी केजरीवाल बुरी तरह से अपनी भद्द पिटवा चुके हैं। लेकिन, अपनी इन फजीहतों से शायद उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा या यूँ कहें कि शायद अभी भी वे अपने पुराने सामजिक कार्यकर्ता वाले मोड से बाहर ही नहीं आ पाए हैं। उन्हें शायद अब भी यही लग रहा है कि वे विपक्ष में हैं और सिर्फ आरोप लगाना उनका काम है। पर उनकी इन विचित्र गतिविधियों से निष्कर्षतः यही सन्देश जाता दिख रहा है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए वे किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। 
बहरहाल, मौजूदा डिग्री विवाद में भी अब धीरे-धीरे उनकी फजीहत की गुंजाइश ही पैदा होती दिख रही है। क्योंकि बीते सोमवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और भाजपा नेता तथा केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रेस कांफ्रेंस कर प्रधानमंत्री  की स्नातक और परास्नातक दोनों ही शैक्षणिक डिग्रियों को सार्वजनिक करते हुए कहा है कि केजरीवाल ने बिना किसी सबूत के इतना बड़ा हंगामा कैसे खड़ा कर दिया; यदि इस सम्बन्ध में उनके पास सबूत हैं तो देश के सामने रखें अथवा माफ़ी मांगें। अब इस मामले में भी केजरीवाल ने अभी तक कोई पुख्ता सबूत तो पेश किया नहीं है, बस जुबानी तीर ही चलाए हैं। ऐसे में, प्रधानमंत्री की इन आधिकारिक और विश्वविद्यालय द्वारा सत्यापित डिग्रियों को फर्जी कहने के पक्ष में वे सबूत दे पाएंगे, ये तो मुश्किल ही है। परिणाम वही होगा कि वे अपने चिर-परिचित पलटी मारने वाले अंदाज के साथ इस मामले से भी धीरे से पीछे हट जाएंगे। 
केजरीवाल के समर्थन में यह तर्क बहुतायत दिया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की डिग्री के विषय में जानकारी माँगना कोई अपराध नहीं है। बेशक, प्रधानमंत्री के विषय में जानने का जनता को अधिकार है और इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन, हर चीज का एक तरीका होता है। प्रधानमंत्री के पद की अपनी एक गरिमा और प्रतिष्ठा होती है, जिसका सम्मान करना देश के प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक कर्तव्य है। तिसपर अरविन्द केजरीवाल का तो यह दायित्व और अधिक है क्योंकि, वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन, अरविन्द केजरीवाल ने तो प्रधानमंत्री को मानसिक रोगी कहने से लेकर अब फर्जी डिग्री वाला बताने तक केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर कुठाराघात करने का ही काम किया है। अगर उन्हें प्रधानमंत्री की डिग्री पर संदेह था तो वे पहले इस सम्बन्ध में जानकारी जुटाते, उसकी प्रमाणिकता की जांच करते और ठोस सबूतों के साथ देश के सामने अपना पक्ष रखते तो न केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा सुरक्षित रहती बल्कि उनकी बात को गंभीरता से भी लिया जाता। लेकिन उनकी तो सियासत का मूल मन्त्र बन चुका है कि जिसके बारे में जो दिमाग में आए बिना आगे-पीछे विचार किए बोल दो और जब खुद पर पड़े तो चुपके से माफ़ी मांग लो। उनकी खुद की हालत तो ये है कि दिल्ली जैसा छोटा-सा अपूर्ण राज्य जहां उनपर जिम्मेदारियों का भार अपेक्षाकृत  कम ही है, उनसे संभल नहीं रहा। दिल्ली के लोग बिजली, पानी जैसी समस्याओं से त्रस्त हैं और उनके मुख्यमंत्री महोदय  दूसरों पर तरह-तरह के आरोप लगाने में मशगूल हैं। 
हालांकि यह भी एक तथ्य है कि प्रधानमंत्री की शैक्षणिक डिग्रियों के सम्बन्ध में जन्म की तारीख, नाम तथा खुद प्रधानमंत्री के पूर्व वक्तव्य आदि के कारण  कुछ भ्रमयुक्त स्थिति जरूर पैदा हुई है, जिनपर स्थिति स्पष्ट की जानी चाहिए। चूंकि, प्रधानमंत्री मोदी ने अबसे काफी पूर्व में ये डिग्रियां हासिल की हैं तो ये भी हो सकता है कि तब जन्मतिथि थोड़ी आगे-पीछे लिखा गई हो। अब पहले के समय में आज की तरह सबकुछ कम्पूटरकृत तो था नहीं, इस नाते भूल की गुंजाईश से इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, इस सम्बन्ध में उचित होगा कि प्रधानमंत्री खुद वस्तुस्थिति देश के सामने रखें और अगर भूलवश कुछ त्रुटियाँ रही रह गई हैं तो विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें यथाशीघ्र सुधार जाय। 
वैसे भी, भारतीय लोकतंत्र की चुनाव प्रणाली में किसी भी प्रत्याशी के निर्वाचन से लेकर मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के पद तक जाने में डिग्री जैसी चीज का कोई विशेष महत्व नहीं होता है। जनता के चयन में प्रत्याशी की डिग्री की भूमिका अत्यल्प ही होती है। निर्वाचन के लिए डिग्री से महत्वपूर्ण कई और मानदंड होते हैं।  कुछ प्रमुख मानदंड यह हैं कि अमुक नेता जनता से कितना जुड़ा है, उसकी छवि और लोगों के बीच पैठ कैसी है आदि। बस ऐसे ही मानदंडों के आधार पर एक बेहद कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जनप्रतिनिधि निर्वाचित होकर संसद-विधानसभा में पहुँच जाता है, कभी वही मंत्री बनकर अत्यधिक शिक्षित आइएस-पीसीएस आदि अधिकारियों को आदेश-निर्देश देने का अधिकार भी पा जाता है। कहना गलत नहीं होगा कि यह भी भारतीय लोकतंत्र की एक विशिष्टता ही है, जिसके अपने सुपरिणाम और कुपरिणाम दोनों हैं।

भुखमरी के अभिशाप से मुक्ति कब [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो प्रमुखतः रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है । इनमे भी रोटी अर्थात भोजन सर्वोपरि है । भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है । अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो अभी विगत वर्ष ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित भारत में हैं । अभी देश में लगभग १९.४ करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं । इसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहाँ भी हमसे कम मात्रा में भुखमरी की स्थिति है । ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में इस वर्ष भारत को श्रीलंका व नेपाल से नीचे ५५ वे स्थान पर रखा गया है। अभी ये हालत तब है जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है। गौर करें तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ही २०१३ की सूची  में भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों में भारत को ६३ वा स्थान दिया गया था। तब भारत श्रीलंका, नेपाल के अतिरिक्त पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे था। लेकिन वर्ष २०१४ की रिपोर्ट में भारत ने अपनी हालत में सुधार किया और पाकिस्तान व बांग्लादेश को पीछे छोड़ते हुए ६३ वे स्थान से ५५ वे पर पहुँचा।  लेकिन बावजूद इस सुधर के अभी तमाम सवाल हैं जो भुखमरी को लेकर भारत की सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं।  जी एच आई की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहाँ भुखमरी की समस्या गंभीर रूप से है जिससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है। 
   उल्लेखनीय होगा कि नेपाल और श्रीलंका भारत से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की श्रेणी में आते हैं,  ऐसे में ये सवाल  गंभीर हो उठता है कि जो श्रीलंका, नेपाल हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम  के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है ?  इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका व नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलु पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि  भारत की  आबादी  श्रीलंका, नेपाल से जितनी अधिक है,  भारत के पास क्षमता व संसाधन भी उतने ही अधिक हैं।  अतः यह नहीं कह सकते कि अधिक आबादी के कारण भारत भुखमरी पर नियंत्रण करने के मामले में श्रीलंका आदि से पीछे रह रहा है। इसका असल कारण तो यही है कि हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी भी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए। यहाँ सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया, कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया । 
   महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है ? यहाँ मामला ये है कि  हमारे यहाँ प्रायः हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है, पर उस अनाज अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है । संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग २० फिसद अनाज, भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा  समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है। खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है। संयुक्त राष्ट्र के ही  मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष १.३ अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है । कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग ८५ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं । क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं आ सकता ? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा ।
  उल्लेखनीय होगा कि पिछली संप्रग-२ सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित ‘खाद्य सुरक्षा क़ानून’ बड़े जोर-शोर से लाया गया था। संप्रग नेताओं का  कहना था कि ये क़ानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा। गौर करें तो इसके तहत कमजोर व गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी। लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम व प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुँच सके। अर्थात कि मूल समस्या यहाँ भी नज़रन्दाज ही की गई। बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है, अब केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार है, लेकिन खाद्य सुरक्षा क़ानून अब भी है।  और मौजूदा सरकार इस कानून को चलाने की इच्छा भी जता चुकी है। ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली आदि की व्यवस्था पर ध्यान देगी।  जरूरत यही  है कि एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों व दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकें । साथ ही, अनाज की रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बर्बाद होने से बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जा सके । इसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर भी नियंत्रण की  जरूरत है । ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का ईलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए ।