गुरुवार, 12 मई 2016

पीएम की डिग्री पर बेजां हंगामा मचा रहे केजरीवाल [दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दबंग दुनिया 
खुद को आम आदमी और अपनी सरकार को आम आदमी की सरकार बताने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल इन दिनों आम आदमी के मुख्यमंत्री कम विवादों के नेता अधिक लग रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे उन्होंने विवादों में रहकर सस्ती  लोकप्रियता हासिल करने को अपनी राजनीतिक रणनीति ही बना लिया है। इसीलिए कभी राज्यपाल नजीब जंग से, कभी न्यायालय से, कभी केंद्र सरकार के मंत्रियों से तो कभी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बिना बात उलझ  जा रहे हैं। हालिया मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्रियों के सम्बन्ध में है। दरअसल मामला कुछ यूँ है कि विगत दिनों अरविन्द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मोदी की शैक्षणिक योग्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए केन्द्रीय सूचना आयुक्त को एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री की डिग्रियों को सार्वजनिक करने की मांग की थी, जिसके बाद केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्देश पर गुजरात विश्वविद्यालय ने प्रधानमंत्री की परास्नातक की डिग्री को सार्वजनिक कर दिया। लेकिन, इसके बाद आम आदमी पार्टी उस परास्नातक की डिग्री पर सवाल उठाते हुए उनके स्नातक की डिग्री की मांग करने लगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्नातक की डिग्री भी सार्वजनिक कर दी। लेकिन आम आदमी पार्टी तो जैसे ये कसम खाकर बैठी थी कि प्रधानमंत्री की डिग्री को हर हाल में फर्जी ही बताना हैं। अपनी इस बात को सही सिद्ध करने के लिए आप के बेचैनी का आलम यह रहा कि उसने पहले जन्म की तारीखों के जरिये भ्रम फैलाया और उसके बाद नया शिगूफा यह छेड़ा कि डीयू द्वारा जारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्नातक की डिग्री उनकी नहीं किसी और मोदी की है। हालांकि अपने इन सभी आरोपों के पक्ष में सिवाय चंद कुतर्कों के आप कोई पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी। लेकिन फिर भी, आप के इन खोखले से दिख रहे आरोपों में कांग्रेस आदि अन्य विपक्षी दलों ने भी स्वाभाविक रूप से अपना सुर मिलाया। वैसे अरविन्द केजरीवाल का तो यह दस्तूर बनता जा रहा है कि बिना किसी सबूत या तथ्य के किसीके भी खिलाफ कुछ भी कहकर चर्चा बटोर लो और अगर वो कोई मुकदमा वगैरह करता है तो फिर चोरी-छिपे उससे माफ़ी मांगकर जान छुड़ा लो। उदाहरण के तौर पर गौर करें तो केन्द्रीय सड़क, परिवहन और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी पर भी केजरीवाल ने गत वर्ष कुछ हवा-हवाई आरोप लगाए थे और जब गडकरी ने मानहानि का मुकदमा किया तो चुप-चाप उनसे माफ़ी मांगकर मामले को सलटा लिए। अरुण जेटली मामले में भी कुछ-कुछ यही हुआ। दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले केजरीवाल साहब दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर तमाम तरह के आरोप लगाते फिरते थे और उनके खिलाफ कई सौ पन्नों के सबूत होने का दावा भी करते थे, लेकिन जबसे वे सरकार में आए हैं तबसे वह आरोप और सैकड़ों पन्नों के सबूत जाने कहाँ खो गए हैं कि अब उनका जिक्र ही नहीं आता। यहाँ भी केजरीवाल बुरी तरह से अपनी भद्द पिटवा चुके हैं। लेकिन, अपनी इन फजीहतों से शायद उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा या यूँ कहें कि शायद अभी भी वे अपने पुराने सामजिक कार्यकर्ता वाले मोड से बाहर ही नहीं आ पाए हैं। उन्हें शायद अब भी यही लग रहा है कि वे विपक्ष में हैं और सिर्फ आरोप लगाना उनका काम है। पर उनकी इन विचित्र गतिविधियों से निष्कर्षतः यही सन्देश जाता दिख रहा है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए वे किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। 
बहरहाल, मौजूदा डिग्री विवाद में भी अब धीरे-धीरे उनकी फजीहत की गुंजाइश ही पैदा होती दिख रही है। क्योंकि बीते सोमवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और भाजपा नेता तथा केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रेस कांफ्रेंस कर प्रधानमंत्री  की स्नातक और परास्नातक दोनों ही शैक्षणिक डिग्रियों को सार्वजनिक करते हुए कहा है कि केजरीवाल ने बिना किसी सबूत के इतना बड़ा हंगामा कैसे खड़ा कर दिया; यदि इस सम्बन्ध में उनके पास सबूत हैं तो देश के सामने रखें अथवा माफ़ी मांगें। अब इस मामले में भी केजरीवाल ने अभी तक कोई पुख्ता सबूत तो पेश किया नहीं है, बस जुबानी तीर ही चलाए हैं। ऐसे में, प्रधानमंत्री की इन आधिकारिक और विश्वविद्यालय द्वारा सत्यापित डिग्रियों को फर्जी कहने के पक्ष में वे सबूत दे पाएंगे, ये तो मुश्किल ही है। परिणाम वही होगा कि वे अपने चिर-परिचित पलटी मारने वाले अंदाज के साथ इस मामले से भी धीरे से पीछे हट जाएंगे। 
केजरीवाल के समर्थन में यह तर्क बहुतायत दिया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की डिग्री के विषय में जानकारी माँगना कोई अपराध नहीं है। बेशक, प्रधानमंत्री के विषय में जानने का जनता को अधिकार है और इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन, हर चीज का एक तरीका होता है। प्रधानमंत्री के पद की अपनी एक गरिमा और प्रतिष्ठा होती है, जिसका सम्मान करना देश के प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक कर्तव्य है। तिसपर अरविन्द केजरीवाल का तो यह दायित्व और अधिक है क्योंकि, वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन, अरविन्द केजरीवाल ने तो प्रधानमंत्री को मानसिक रोगी कहने से लेकर अब फर्जी डिग्री वाला बताने तक केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर कुठाराघात करने का ही काम किया है। अगर उन्हें प्रधानमंत्री की डिग्री पर संदेह था तो वे पहले इस सम्बन्ध में जानकारी जुटाते, उसकी प्रमाणिकता की जांच करते और ठोस सबूतों के साथ देश के सामने अपना पक्ष रखते तो न केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा सुरक्षित रहती बल्कि उनकी बात को गंभीरता से भी लिया जाता। लेकिन उनकी तो सियासत का मूल मन्त्र बन चुका है कि जिसके बारे में जो दिमाग में आए बिना आगे-पीछे विचार किए बोल दो और जब खुद पर पड़े तो चुपके से माफ़ी मांग लो। उनकी खुद की हालत तो ये है कि दिल्ली जैसा छोटा-सा अपूर्ण राज्य जहां उनपर जिम्मेदारियों का भार अपेक्षाकृत  कम ही है, उनसे संभल नहीं रहा। दिल्ली के लोग बिजली, पानी जैसी समस्याओं से त्रस्त हैं और उनके मुख्यमंत्री महोदय  दूसरों पर तरह-तरह के आरोप लगाने में मशगूल हैं। 
हालांकि यह भी एक तथ्य है कि प्रधानमंत्री की शैक्षणिक डिग्रियों के सम्बन्ध में जन्म की तारीख, नाम तथा खुद प्रधानमंत्री के पूर्व वक्तव्य आदि के कारण  कुछ भ्रमयुक्त स्थिति जरूर पैदा हुई है, जिनपर स्थिति स्पष्ट की जानी चाहिए। चूंकि, प्रधानमंत्री मोदी ने अबसे काफी पूर्व में ये डिग्रियां हासिल की हैं तो ये भी हो सकता है कि तब जन्मतिथि थोड़ी आगे-पीछे लिखा गई हो। अब पहले के समय में आज की तरह सबकुछ कम्पूटरकृत तो था नहीं, इस नाते भूल की गुंजाईश से इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, इस सम्बन्ध में उचित होगा कि प्रधानमंत्री खुद वस्तुस्थिति देश के सामने रखें और अगर भूलवश कुछ त्रुटियाँ रही रह गई हैं तो विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें यथाशीघ्र सुधार जाय। 
वैसे भी, भारतीय लोकतंत्र की चुनाव प्रणाली में किसी भी प्रत्याशी के निर्वाचन से लेकर मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के पद तक जाने में डिग्री जैसी चीज का कोई विशेष महत्व नहीं होता है। जनता के चयन में प्रत्याशी की डिग्री की भूमिका अत्यल्प ही होती है। निर्वाचन के लिए डिग्री से महत्वपूर्ण कई और मानदंड होते हैं।  कुछ प्रमुख मानदंड यह हैं कि अमुक नेता जनता से कितना जुड़ा है, उसकी छवि और लोगों के बीच पैठ कैसी है आदि। बस ऐसे ही मानदंडों के आधार पर एक बेहद कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जनप्रतिनिधि निर्वाचित होकर संसद-विधानसभा में पहुँच जाता है, कभी वही मंत्री बनकर अत्यधिक शिक्षित आइएस-पीसीएस आदि अधिकारियों को आदेश-निर्देश देने का अधिकार भी पा जाता है। कहना गलत नहीं होगा कि यह भी भारतीय लोकतंत्र की एक विशिष्टता ही है, जिसके अपने सुपरिणाम और कुपरिणाम दोनों हैं।

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