रविवार, 27 दिसंबर 2015

प्राथमिक शिक्षा की बदहाली [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
किसी भी राष्ट्र का सतत प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस राष्ट्र के नागरिक कितने सुशिक्षित हैं । सुशिक्षित नागरिक तैयार करने के लिए आवश्यक होता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था के नीव होती है । लिहाजा गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा के बगैर किसी भी राष्ट्र के लिए सुशिक्षित और चरित्रवान नागरिक तैयार करना किसी भी लिहाज से व्यावहारिक नही है इस बात को अगर भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं इसमे भी कोई दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद आज देश के लगभग एक तिहाई बच्चे स्कूली अनुभवों से वंचित हैं अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि सरकार द्वारा तमाम प्रयास किए जाने के बाद भी भारत की प्राथमिक शिक्षा की ये दुर्दशा हो रही है ? इस सवाल का जवाब सिर्फ यही है कि केंद्र व राज्य सरकारों की अधिकाधिक योजनाओं की ही तरह शिक्षा संबंधी योजनाएं भी बस कागज़ तक सिमटकर रह गई हैं, यथार्थ के धरातल पर उनका कोई विशेष अस्तित्व नही है क्योंकि, सरकार योजनाएं बनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है और उसे इससे कोई मतलब नही रह जाता कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन कैसे हो रहा है ? इसलिए सरकार की बेहतरीन योजनाएं भी सम्बंधित अधिकारियों व मंत्रियों के बीच धन उगाही का एक माध्यम मात्र बनकर रह जाती हैं और जनता तक उनका लाभ नही पहुँच पाता यहाँ भी यही स्थिति है नजीर के तौर पर देखें तो विगत संप्रग  सरकार द्वारा अधिकाधिक बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए सन २००९ में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक क़ानून लागू किया गया, जिसके तहत ६ से १४ साल तक के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है साथ ही, निजी स्कूलों को भी अपने यहाँ ६ से १४ साल तक के कमजोर और गरीब तबकों के २५ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया पर आज इस क़ानून के लागू होने के लगभग ६ साल बाद अगर हम इसके क्रियान्वयन पर एक नजर डाले तो देखते  हैं कि इसके नियमों का कोई समुचित क्रियान्वयन अब तक  कहीं नही हुआ है विगत वर्ष इस क़ानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब माँगा गया था । दायर याचिका में कहा गया था  कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों और १२ लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण ‘शिक्षा के अधिकार’ क़ानून का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है । साफ़ है कि ये क़ानून भी जहाँ यथार्थ के धरातल से दूर सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है, वहीं सरकारें इस तरफ से आँख-कान बंद किए प्राथमिक शिक्षा पर अपनी कागज़ी उपलब्धियों से  गद्गद है उन्हें कहाँ परवाह कि राष्ट्र के सुखद और मजबूत भविष्य की द्योतक हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था गर्त में जा रही है आलम ये है कि आज देश के अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थान ढांचागत व बुनियादी सुविधाओं से लेकर शैक्षिक गुणवत्ता के स्तर पर तक हर तरह से विफल नज़र आते हैं । परिणामतः अभिभावक  बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में भेज रहे हैं और इस कारण उन्हें कहीं न कहीं  निजी शिक्षण संस्थानों की मनमानी का शिकार भी होना पड़ रहा है । अगर सरकारी शिक्षण संस्थानों की बुनियादी सुविधाओं व शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार आए  तो संदेह नहीं कि अभिभावकों की पहली पसंद अब भी वही होंगे ।
  इसी सन्दर्भ में अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं । ये रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त  है । विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं – श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं । हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता कहने का मतलब ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है ये समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता  है, उसे किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़ा आदि सीखने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सीखाने  वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है कहना गलत नही होगा कि ये पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना चूंकि, बच्चों के इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी  किताबें अभिभावकों को स्कूल से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे निजी शिक्षण संस्थानों और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा उचित होता कि सरकार इस संबंध में स्वतः संज्ञान लेती तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती  साथ ही, बच्चों के लिए एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाता जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी होता अगर ये किया जाता है, तो ही हम सही मायने में अपने देश के नौनिहालों का भविष्य सुरक्षित कर पाएंगे और भारत को एक सुन्दर बौद्धिक भविष्य दे पाएंगे लिहाजा, विश्वविद्यालयों और आईआईटी आदि की संख्या बढ़ाने से पहले सरकार को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ये बातें भारत की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी हैं और अगर यहीं खामी रही तो आप लाख विश्वविद्यालय स्थापित कर लें, उनका कोई विशेष अर्थ नही होगा !

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

पुलिस सुधारों की दरकार [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
अभी हाल  ही  में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कच्छ के धोरदो में पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में भाग लेकर उन्हें संबोधित किया गया। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जहाँ एक तरफ पुलिस के लिए उच्च मूल्यों और कार्य-शैलियों की जरूरत बताई तो वहीँ दूसरी तरफ निरंतर बदल रही प्रोद्योगिकी के प्रति जागरूक होकर उसका उपयोग करने की सलाह भी दी। यादाश्त पर ज़रा जोर डालें तो ऐसा ही कुछ विगत वर्ष नवम्बर में भी प्रधानमंत्री द्वारा अपने असम दौरे के दौरान पुलिसकर्मियों के प्रति अपने एक संबोधन  में कहा गया था। उसवक्त प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा समाज में पुलिस की बेहतर छवि कायम करने के लिए पुलिसकर्मियों को अपने चरित्र और प्रवृत्ति में बदलाव लाने की नसीहत दी गई थी तथा स्मार्ट पुलिसिंग पर जोर दिया गया था। तब ऐसा लगा था कि प्रधानमंत्री पुलिस सुधार की दिशा में कुछ ठोस कदम भी उठाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि अब लगभग साल भर बाद एकबार फिर प्रधानमंत्री ने अपनी उन पिछली बातों से ही मिलती-जुलती बातें कही हैं। अब सवाल ये है कि क्या सिर्फ पुलिस को लम्बी-लम्बी नसीहतें और उपदेश देते रहने से ही उसमे बदलाव आ जाएगा ? और क्या सिर्फ पुलिसकर्मियों के इस आत्मपरिष्कार से पुलिस स्मार्ट हो जाएगी ? इन सवालों का जवाब यक़ीनन नकारात्मक ही है। गौर करें तो प्रधानमंत्री जिन बातों को पुलिसकर्मियों के प्रति अपने वक्तव्यों में कहे हैं, उनमे कई एक ऐसी हैं जो देश में लम्बे समय से अटके पुलिस सुधारों का हिस्सा हैं। जैसे प्रधानमंत्री ने पुलिस को समाज से जुड़ने के लिए कहा और यह चीज पुलिस सुधारों में पुलिस के सामजिक संबंधों के रूप में मौजूद है। अतः कहने का आशय ये है कि प्रधानमंत्री को अपने इन वक्तव्यों को यदि वाकई में पुलिस के चरित्र में उतारना है और उसे श्रेष्ठ बनाना है तो ऐतिहासिक रूप से अटके पुलिस सुधारों को लागू करने की दिशा में कदम उठाएं।
  इसी संदर्भ में अगर यह समझने का प्रयास करें कि पुलिस सुधार है क्या और इससे क्या तात्पर्य है ? दरअसल, देश की पुलिस आज भी अधिकांश  रूप से अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बने पुलिस अधिनियम के हिसाब से काम कर रही है। अंग्रेजों ने यह पुलिस अधिनियम सन १८६१ में १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के उपज और दमन के बाद मूलतः इस मंशा के तहत बनाया था कि भविष्य में ऐसा कोई आन्दोलन फिर से न हो सके। मतलब यह है कि इस अधिनियम के निर्माण का मूल उद्देश्य दमन था। अब विद्रूप यह है कि सन १९४७ में आजाद और १९५० में गणतंत्र राष्ट्र हो जाने के बावजूद भारत में अब भी अंग्रेजों के उसी अधिनियम के अनुसार अधिकत्तर  पुलिसिंग हो रही है। इसीके मद्देनज़र देश में एक समय से कुछ लोगों द्वारा पुलिस सुधार की मांग व इस दिशा में पहल की जाती  रही है, लेकिन बावजूद तमाम प्रयासों के अब भी देश में पुलिस सुधार काफी दूर की कौड़ी ही नज़र आता  है। इसी क्रम में पुलिस सुधार की कोशिशों के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इसकी शुरुआत सन १९७७ में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा १९७९ में पुलिस सुधारों  से सम्बंधित सुझावों की रिपोर्टें पेश करने से हुई। इस आयोग ने पुलिस सुधार के सुझावों की आठ रिपोर्टें पेश कीं जिनमे पुलिस कल्याण व प्रशिक्षण समेत सामाजिक संबंधों के मामले में भी तमाम सिफारिशें की गईं। पर १९८१ में सरकार बदली और इसके साथ ही इस आयोग  को भंग कर इसकी रिपोर्टों को भी खारिज कर दिया गया। इसीके साथ पुलिस सुधार का मामला लम्बे समय के लिए ठण्डे बस्ते में चला गया। सन १९९६ में पुलिस महानिदेशक के पद  से सेवानिवृत्त हुए प्रकाश सिंह और एन के सिंह समेत कुछ अन्य लोगों द्वारा  इस मामले को पुनः उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका डालते हुए मांग की गई कि देश में एक नए पुलिस अधिनियम की जरूरत है और इस दिशा में राष्ट्रीय पुलिस आयोग के सुझाव काफी कारगर सिद्ध हो सकते हैं। इस जनहित याचिका के बाद पुलिस सुधार पर सुझाव के लिए तमाम समितियां गठित की गईं। रिबर समिति, पद्मनाभैया समिति आदि का गठन हुआ और इन्होने अपने सुझाव भी दिए। अंततः यह कहा गया कि देश में अंग्रेजों के ज़माने के पुलिस अधिनियम को निरस्त कर उसकी जगह इन समितियों के सुझावों के अनुरूप एक पुलिस अधिनियम बनाकर लागू किया जाय। इन सब घटनाक्रमों के बाद सन २००६ में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि देश की सभी राज्य सरकारें इन पुलिस सुधारों को अपने यहाँ लागू करें। न्यायालय ने सात सूत्रीय पुलिस सुधार का प्रारूप भी पेश किया और कहा कि जबतक राज्य सरकारें अपना नया पुलिस अधिनियम नहीं बना लेतीं तबतक वे इसी प्रारूप को लागू करें। ऐसा करने के लिए न्यायालय द्वारा  राज्य सरकारों को साल २००६ के अंत तक का समय दिया गया। लेकिन राज्य सरकारों की तो मंशा ही नहीं थी कि इन पुलिस सुधारों को लागू किया जाय, इसलिए कितनों ने तो न्यायालय से तारीख बढ़वा लीं, तो कितनों ने अध्यादेश लाकर अपने राज्य के लिए कहने भर का नया पुलिस अधिनियम बना लिया। आगे जब इन राज्यों में न्यायालय के आदेश की समीक्षा हुई तो तस्वीर यह सामने आई कि किसी भी राज्य ने न्यायालय द्वारा प्रतिसूचित पुलिस सुधारों के प्रारूप को अपने यहाँ ठीक से लागू नहीं किया है। यहाँ सवाल यह उठता है कि आखिर राज्य सरकारें न्यायालय द्वारा सुझाए पुलिस सुधारों से बचने की कवायद क्यों करती रही हैं ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए सबसे पहले हमें न्यायालय द्वारा सुझाए पुलिस सुधारों पर एक नज़र डालनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों के लिए पुलिस सुधार के छः दिशानिर्देश दिए जिनमे पुलिस के काम-काज पर नज़र रखने और उसे बाहरी दबाव से मुक्त रखने के लिए ‘राज्य सुरक्षा आयोग’ का गठन; पुलिस को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने के लिए ‘पुलिस संस्थापन बोर्ड’ का गठन तथा पुलिस की शिकायत के लिए ‘शिकायत प्राधिकरण’ का गठन प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के चयन तथा पुलिस के दायित्व में जांच व शांति व्यवस्था को अलग-अलग करने आदि के सुझाव भी न्यायालय द्वारा दिए गए थे। विचार करें तो स्पष्ट होता है कि न्यायालय द्वारा सुझाए इन पुलिस सुधारों के बाद पुलिस की कमान हमारे सियासी हुक्मरानों के हाथों से छूट खुद पुलिस के ही शीर्षस्थ लोगों के हाथों में आ जाती। बस इसी कारण अधिकाधिक राज्य सरकारें न्यायालय के पुलिस सुधार प्रारूप को यथावत  अपने यहाँ लागू करने में टाल-मटोल  करती रही हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि अंग्रेजी ज़माने की औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था के तहत संचालित पुलिस की छवि जनता में काफी ख़राब हुई है। हालांकि  पुलिस व्यवस्था राज्य सूची में आने वाला विषय है, इसलिए इसमें केंद्र सरकार कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं कर सकती। लेकिन, जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पहले असम और अब कच्छ में पुलिस को तरह-तरह की नसीहतें दी गयी हैं उसे देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि वे पुलिस को स्मार्ट और बेहतर बनाने के लिए जमीनी स्तर पर भी गंभीरता का परिचय देंगे और राज्य सरकारों को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करेंगे कि वे अपने यहाँ न्यायालय द्वारा निर्देशित पुलिस सुधारों को समकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप बनाकर लागू करें। इन सुधारों के लागू होने के बाद पुलिस में जवानों की कमी को दूर करने तथा पुलिस को अत्याधुनिक साजो-सामान से लैस करने आदि की दिशा में भी पहल की जा सकती है। मगर मूल बात यही है कि बिना इन पुलिस सुधारों के पुलिसिंग का बेहतर होना सिर्फ एक सपने की तरह ही है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

बुलेट ट्रेन से पहले वर्तमान रेल व्यवस्था सुधारें [पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
आज से दो वर्ष पहले भारतीय रेल मंत्रालय और जापानी इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (जे आई सी ए) द्वारा भारत में मुंबई-अहमदाबाद रूट पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बुलेट ट्रेन चलाने के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं का  अध्ययन शुरू किया गया था जिसकी रिपोर्ट इस वर्ष जुलाई में भारत सरकार को सौंपी गई। रिपोर्ट में बुलेट ट्रेन में आने वाली लागत से लेकर अन्य तमाम चीजों का जिक्र करते हुए कहा गया था कि इस रूट पर जापान की शिकान्सेन (बुलेट ट्रेन ट्रैक) की तर्ज पर हाईस्पीड ट्रेन चलाई जा सकती है। इसके बाद ही अब जब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भारत आए तो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके द्वारा हाईस्पीड रेल (एचएसआर)  समझौते पर हस्ताक्षर कर इसके सम्बन्ध में विभिन्न ऐलान किए गए। सबसे महत्वपूर्ण ऐलान यह रहा कि जापान द्वारा भारत को बुलेट ट्रेन के लिए अपने कर्ज नियमों में ढील बरतते हुए ०.१ प्रतिशत की बेहद सस्ती दर पर ५० साल जैसी लम्बी अवधि के लिए लगभग ९८००० करोड़ रूपये का क़र्ज़ दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त इस परियोजना में लगने वाले उपकरण और तकनीक तथा इसके संचालन के लिए भारतीय कर्मियों को प्रशिक्षण आदि भी जापानी अभियंताओं द्वारा ही दिया जाएगा। इस परियोजना के पूरा होने के लिए करीब सात साल का समय निर्धारित किया गया है यानी २०२३ तक देश की पहली बुलेट ट्रेन के तैयार हो जाने का अनुमान है, जबकि २०२४ से इसका व्यावसायिक संचालन भी शुरू किया जा सकेगा। स्पष्ट है कि ये सब अभी बेहद दूर की बातें हैं, लिहाजा इनपर अधिक कुछ कहना जल्दबाजी होगी।  हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर आम लोगों में भी अलग-अलग राय है। कोई इसे समय की मांग बता रहा है तो किसीके हिसाब से यह सब अभी गैरजरूरी है। अब जो भी हो, पर एक प्रश्न तो खैर उठता ही है कि वर्तमान समय में जब भारतीय रेल अनेक चुनौतियों, खासकर वित्तीय चुनौतियों से गुजर रही है, बुलेट ट्रेन जैसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इतना भारी कर्ज लेना कहाँ तक उचित है ? यह सही है कि बुलेट ट्रेन के लिए प्राप्त कर्ज भारतीय रेल के वित्त से अलग होगा, लेकिन यदि बुलेट ट्रेन की बजाय इस तरह का निवेश भारत की वर्तमान रेल व्यवस्था जो फिलवक्त देश की बहुसंख्य आबादी की जीवन रेखा जैसी है, का जीर्णोद्धार करने में किया जाता तो क्या ज्यादा बेहतर नहीं रहता ? बुलेट ट्रेन चलाना कत्तई गलत नहीं, लेकिन जब देश की सामान्य रेल व्यवस्था अनेक चुनातियों और समस्याओं से घिरी हो तब ऐसे भारी-भरकम और महंगे प्रोजेक्ट पर लगना कहाँ की बुद्धिमानी है ? दूसरे शब्दों में कहें तो मजबूत घर हो तो सजावट भी ठीक लगती है, ये नहीं कि मकान तो जर्जर हो पर रंग-रोगन खूब कर दीजिए। परिणाम यह होगा कि आंधी का एक झोका ही सब तहस-नहस कर देगा। फिर आप न इधर के रह जाएंगे न उधर के। तात्पर्य यह है कि आज बुलेट ट्रेन से पहले देश की मौजूदा रेल व्यवस्था को वित्तीय से लेकर संचालन तक तमाम चुनातियों से बाहर लाने के लिए उसमे अधिकाधिक निवेश बढ़ाने और ध्यान देने की जरूरत है।
राष्ट्रीय सहारा 
  इसी सन्दर्भ में अगर देश की मौजूदा रेल व्यवस्था की समस्याओं को समझने का प्रयत्न करें तो उल्लेखनीय होगा कि मौजूदा केन्द्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अपने २०१५-१६ के रेल बजट भाषण के दौरान खुद रेलवे को तमाम समस्याओं से घिरा बताते हुए इसके लिए प्रमुख कारण लम्बे समय से हो रही निवेश की कमी को बताया था। समस्याओं में सबसे प्रमुख है, अक्सर होते रहने वाली रेल दुर्घटनाएं  जिसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार  हैं। एक आंकड़ें के अनुसार फिलहाल रेलवे का लगभग ८० फीसदी यातायात महज ४० फीसदी रेल नेटवर्क के भरोसे चल रहा है जिससे भीड़-भगदड़ और असुरक्षा जैसी समस्याओं से रेलवे को दो-चार होना पड़ता है। यह क्षमता से अधिक का बोझ बड़ा कारण है रेल दुर्घटनाओं के लिए। इसके अतिरिक्त अधिकांश रेल पटरियों की हालत भी जर्जर हो चुकी है जो कि अक्सर दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं। इन रेल पटरियों के जीर्णोद्धार तथा रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए अत्याधुनिक सिग्नल व्यवस्था आदि को लागू करने के लिए रेल मंत्री द्वारा बजट में तकरीबन १ लाख २७ हजार करोड़ रूपये के निवेश का प्रस्ताव किया गया था जिसके लिए रेलवे की निर्भरता अपने संसाधनों तथा निजी क्षेत्र पर है। रेल दुर्घटनाओं के अतिरिक्त साफ़-सफाई, गाड़ियों और स्टेशनों की संख्या बढ़ाने आदि के लिए भी धन की आवश्यकता है। बजट के आंकड़ों के अनुसार रेलवे की स्थिति तो घाटे में चल रही है और निजी क्षेत्र से रेलवे को कभी तय लक्ष्यों के अनुरूप सहयोग नहीं मिला है, लिहाजा उसकी तरफ से भी कोई विशेष उम्मीद नहीं की जा सकती। ये समस्याएं पैदा हुई हैं क्योंकि काफी लम्बे समय से रेल किराए में कोई वृद्धि नहीं की गई थी और सुविधाएं दी जाती रहीं थी। आंकड़े के मुताबिक़ २००१-०२ में रेलवे जब  यात्री गाड़ियों की संख्या ८८९७ थी तब उनपर होने वाला घाटा ४९५५ करोड़ था और आज जब गाड़ियां बढ़कर १२ हजार से ऊपर हो गई हैं तो उन पर रेलवे का घाटा भी २५ हजार करोड़ के आसपास पहुँच गया है। स्पष्ट है कि लम्बे समय से चले वित्तीय कुप्रबंधन ने रेलवे जैसे लाभकारी क्षेत्र का वित्तीय ढांचा तबाह करके रख दिया है। अब एकाध वर्षों से किरायों में वृद्धि आदि करके स्थिति नियंत्रित करने की कोशिश तो की जा रही है, लेकिन इन सब कवायदों का लाभ धीरे-धीरे ही मिलेगा। ऐसे में वर्तमान रेल व्यवस्था में जान फूंकने और उपर्युक्त समस्याओं से पार पाने के लिए रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अगले पांच साल की अपनी कार्ययोजना में ८ लाख ५६ हजार करोड़ के निवेश की जो योजना संसद में पेश की थी, उसके क्रियान्वयन के लिए रेलवे को धन के बाह्य स्रोतों पर ही काफी हद तक निर्भर रहना होगा जिनमे निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश प्रमुख हैं। स्पष्ट होता है कि रेलवे के लिए ये समय अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। अब जब देश की रेल व्यवस्था की यह हालत है तो क्या सरकार  को बुलेट ट्रेन की बजाय रेलवे की इन व्यवस्थाओं को सुधारने में विदेशी निवेश को प्राथमिकता देने की आवश्यकता नहीं है ? कितनी बड़ी विडंबना है कि अभी जो देश सामान्य रफ़्तार की ट्रेनों की दुर्घटनाओं को रोकने में सक्षम नहीं हैं, उसे बुलेट ट्रेन के सपने दिखाए जाने लगे हैं। बेशक प्रधानमंत्री की बुलेट  ट्रेन की महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है, लेकिन अभी यह असामयिक है। उचित होगा कि पहले मौजूदा रेल व्यवस्था दुरुस्त कर ली जाय, फिर बुलेट ट्रेन और ऐसी अन्य सभी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की दिशा में बढ़ा जाय तभी देश प्रगतिपथ पर संतुलित रूप से आगे बढ़ सकेगा।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

पाकिस्तान पर नीतिहीन मोदी सरकार [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 


दैनिक जागरण 
इसमें संदेह नहीं कि विगत वर्ष मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से संप्रग शासन के दौरान काफी हद तक सुषुप्त अवस्था में रही भारतीय विदेश नीति में न केवल एक एक नवीन ऊर्जा का संचार हुआ है, वरन इस दौरान उसने एक के बाद एक कई ऊँचाइयाँ भी हासिल की हैं। अमेरिकी राष्टपति ओबामा के गणतंत्र दिवस पर भारत आगमन से लेकर यमन व म्यांमार में भारतीय सेना द्वारा संचालित सैन्य अभियानों तक तमाम ऐसी बातें हैं जो वर्तमान भारतीय विदेश नीति की सफलता को दिखाते हैं। लेकिन बावजूद इन सब सफलताओं के पाकिस्तान अब भी भारतीय विदेश नीति के लिए यक्ष-प्रश्न ही बना हुआ है। ऐसा नहीं दिखता कि अपने शासन के एक वर्ष से अधिक समय के बाद भी मोदी सरकार पाकिस्तान को लेकर कोई ठोस व स्थायी नीति निर्धारित कर सकी हो। वरन पाकिस्तान के सम्बन्ध में सरकार की गतिविधियाँ तो यही संकेत दे रही हैं कि ये सरकार भी पिछली सरकार की तरह ही पाकिस्तान को लेकर नीतिहीनता या नीतिभ्रमता का शिकार है। पिछली सरकार की तरह ही अब भी पाकिस्तान के प्रति भारत की वही पुरानी घिसी-पिटी और लगातार विफल सिद्ध हो चुकी रूठने-मनाने की नीति चल रही है। जबसे ये सरकार सत्ता में आई है तबसे यही रूठना-मनाना हो रहा है। गौरतलब है कि कुछ समय तक रूठे रहने के बाद अब फिर भारतीय विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान पहुँच गई हैं। बेशक कहा जा रहा हो कि ये दौरा हार्ट ऑफ़ एशिया कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए है, लेकिन इसका सिर्फ इतना ही अर्थ नहीं। उल्लेखनीय होगा कि इस दौरान पाक पीएम नवाज़ शरीफ से भी उनकी मुलाकात होगी। साथ ही, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट बहाली के सम्बन्ध में भी विचार होने लगा है।
  सुषमा की इस पाकिस्तान यात्रा की भूमिका कहीं न कहीं प्रधानमंत्री मोदी के पेरिस दौरे पर हुई नवाज़ शरीफ से उनकी अनाधिकारिक मुलाकात के दौरान ही बन गई थी। इससे पहले पाकिस्तान से बातचीत आदि पर मोदी सरकार ने तब विराम लगाया जब भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा कश्मीरी अलगाववादियों को दिल्ली में मिलने के लिए बुलाया गया। इसके बाद से ठप्प पड़े भारत-पाक संबंधों पर अभी पिछले महीने ही मोदी सरकार की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि जब तक पाकिस्तान मुंबई हमले के दोषी लखवी पर कार्रवाई नहीं करता तबतक उससे कोई बातचीत नहीं होगी। लेकिन इस बयान के एक महीना बीतते-बीतते ही भारतीय प्रधानमंत्री मोदी रूस के उफ़ा में खुद पहल करके पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से न केवल मिल लिए, वरन भविष्य में भारत-पाक के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत भी तय कर आए। अब जब प्रधानमंत्री मोदी उफ़ा में पाकिस्तान से ये सम्बन्ध बहाली कर रहे थे, उसी वक़्त दूसरी तरफ सीमा पर पाकिस्तान द्वारा किए गए सीजफायर के उल्लंघन में भारतीय जवान ने अपनी जान गँवा दी। तिसपर मोदी और नवाज की मुलाकात में पाकिस्तान द्वारा लखवी की आवाज के नमूने भारत को सौंपने के वादे से भी अब पाकिस्तान मुकर गया। अब भी सुषमा स्वराज पाकिस्तान दौरे पर गई हैं और दूसरी तरफ आई एस आई के मुखबिर भारत में पकड़े गए हैं। सीजफायर उल्लंघन की घटनाएं भी चल ही रही हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर कौन सी मजबूरी आन पड़ी है कि पाकिस्तान की इन सब हरकतों के बावजूद सुषमा स्वराज को पाकिस्तान के हार्ट ऑफ़ एशिया कांफ्रेंस में जाना पड़ा ? पाकिस्तान के प्रति अपने ऐसे अस्थिर रुख के के जरिये आखिर हम दुनिया या पाकिस्तान को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
राज एक्सप्रेस 
  बहरहाल, उपर्युक्त समस्त घटनाक्रमों को देखने पर स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार के पास भी पूर्ववर्ती संप्रग सरकार की तरह ही कोई भी ठोस नीति नहीं है। पाक को लेकर किसी ठोस नीति का न होना एक प्रमुख कारण रहा है कि पाकिस्तान भारत की बातों को कभी संजीदा नहीं लेता है। दरअसल उसे लगता है कि भारत केवल शब्दों में नाराजगी जता सकता है, और कुछ नहीं कर सकता। गौर करें तो भारत-पाक के बीच जब-जब भी सम्बन्ध बहाली के लिए बातचीत आदि शुरू हुई है उसमे अधिकाधिक बार पहल भारत की तरफ से ही की गई है। भारत-पाक प्रधानमंत्रियों की उफ़ा में हुई पिछली मुलाकात को देखें तो इसकी पहल भी भारत की तरफ से ही की गई। यह सही है कि भारत की तरफ से सम्बन्ध बहाली की ये पहलें शांति और सौहार्द कायम रखने के लिए होती हैं। लेकिन भारत की ऐसी पहलें इतने लम्बे समय से विफल होती आ रही हैं कि अब ये सिर्फ अपनी किरकिरी कराने वाली लगती है। दूसरी बात कि भारत ने पाकिस्तान को लम्बे समय से अपने प्रमुख सहयोगी राष्ट्र (एम् एफ एन)  का दर्जा दे रखा है जबकि पाकिस्तान ने भारत को अबतक ऐसा कोई दर्जा नहीं दिया है। वरन भारत की इन पहलों का पाकिस्तान यह अर्थ निकाल लिया है कि भारत को उसकी जरूरत है इसीलिए बार-बार दुत्कार खाकर भी उससे दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाता रहता है। कहीं न कहीं इसी कारण वो भारत को बेहद हलके में लेता है और भारत की बातों को कत्तई गंभीरता से नहीं लेता। उदाहरणार्थ २६/११ के दोषियों पर भारत के लाख कहने पर भी आजतक पाकिस्तान द्वारा कार्रवाई नहीं की गई है।हमारे नेताओं की तरफ से प्रायः ये तर्क दिया जाता है कि भारत एक जिम्मेदार राष्ट्र हैइसलिए वो पाकिस्तान की तरह हर बात पर बन्दूक उठाए नही चल सकता। अब नेताओं को ये कौन समझाए कि निश्चित ही भारत एक जिम्मेदार राष्ट्र है और इसी नाते उसकी ये जिम्मेदारी भी बनती है कि वो अपनी संप्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखे।

   उचित तो यही होगा कि भारत अब दोस्ती की पहल करने और पाकिस्तान को अधिक महत्व देने जैसी चीजों को पूरी तरह से तिलांजलि दे। वक़्त की जरूरत यह है कि सरकार पाकिस्तान को लेकर कोई एक ठोस नीति बनाए। वो नीति चाहें जो भी हो, पर उसमे भारत के राष्ट्रीय हित प्रमुख होने चाहिए।  साथ ही, पाकिस्तान के प्रति कठोर रुख अपनाए तथा वैश्विक स्तर पर उसके आतंकवाद पर दोहरे रवैये को अपनी कूटनीति का आधार बनाए। और एमएफएन जैसे पाकिस्तान को महत्व देने वाली चीजों को भी तुरंत ख़त्म किया जाना चाहिए। और जहाँ तक खेल-कूद व अन्य सांस्कृतिक चीजों की बात है तो उनके सम्बन्ध में भी कोई एक नीति तय करने की आवश्यकता है। ये  नहीं कि कभी क्रिकेट खेलने लगे तो कभी विराम लगा दिए।  इन सब नीतियों के बाद कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि भारत पाकिस्तान को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितना कम से कम महत्व देगा, पाकिस्तान की अक्ल उतनी ही जल्दी ठिकाने आएगी।

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

विकलांगों के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आज विकलांग दिवस है। इस अवसर पर यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है कि आज विकलांगों की हमारे समाज में क्या स्थिति है तथा  उनके प्रति समाज की क्या मानसिकता है ? दरअसल न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में एक समय तक विकलांगता को सिर्फ चिकित्सा सम्बन्धी समस्या ही समझा जाता था, लेकिन समय के साथ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंस आदि विकलांग व्यक्तियों द्वारा जिस तरह से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के नए सोपान गढ़े गए, उन्होंने समाज की मानसिकता को बदलने का काम किया। समाज ने समझा कि विकलांगता सिर्फ व्यक्ति की कुछ शक्तियों को सीमित कर सकती है, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को अवरुद्ध नहीं कर सकती। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि विकलांगजनों को उचित संबल, समान अवसर और समुचित सहयोग प्रदान किया जाय। कहने का अर्थ है कि विकलांग व्यक्तियों की सफलताओं ने समाज के दिमाग से विकलांगता को सिर्फ चिकित्सकीय समस्या समझने की मानसिकता को ख़त्म कर विकलांगता के विकासात्मक मॉडल की दिशा में सोचने पर विवश कर दिया और इसीके परिणामस्वरूप अब विकलांगता के इस मॉडल का समूची दुनिया द्वारा अनुसरण किया जाने लगा है। विकलांगता के इस विकासात्मक मॉडल के फलस्वरूप ही विकलांग व्यक्तियों की बहुआयामी शिक्षा से लेकर सामजिक भागेदारी आदि को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर में विभिन्न प्रकार की नीतियां और कायदे-क़ानून बनाए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी सन २००७ में हुए अपने विकलांगता अधिकार सम्मेलन में विकलांग व्यक्तियों को भिन्न क्षमताओं या असमर्थताओं वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित करते हुए उनके हितों के संरक्षण के लिए विभिन्न कायदे-क़ानून निर्धारित किए गए हैं। भारत की बात करें तो सन २०११ की जनगणना के अनुसार यहाँ २ करोड़ से अधिक विकलांग हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र के उक्त विकलांगता अधिकार सम्मेलन में विकलांगों के अधिकारों की रक्षा आदि के सम्बन्ध में निर्धारित कानूनों का समर्थन करने वाले देशों में शामिल है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र विकलांगता अधिकार सम्मेलन के कानूनों के समर्थन से काफी पूर्व सन १९९५ में ही भारत द्वारा विकलांगजनों के अधिकारों की रक्षा, अवसर की समानता और समाज में पूर्ण भागेदारी को सुनिश्चित करने  के लिए सामजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत क़ानून (विकलांग व्यक्ति अधिनियम, १९९५) बना दिया गया था। इसके अतिरिक्त सन २००६ की विकलांग व्यक्तियों से सम्बंधित देश की राष्ट्रीय नीति में  यह मत भी प्रकट किया गया कि विकलांग व्यक्ति भी देश के लिए अत्यंत मूल्यवान मानव संसाधन हैं। गौर करना होगा कि यह सिर्फ एक मत नहीं है, वरन विकलांग व्यक्तियों को वाकई में मूल्यवान मानव संसाधन बनाने के लिए उनके उद्यम कौशल को उन्नत करने के उद्देश्य से देश की पूर्व सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार की योजनाएंकार्यक्रम चलाए गए हैं और वर्तमान सरकार द्वारा भी चलाए  जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम स्किल इण्डिया में भी विकलांगजनों की शेष क्षमताओं के अनुरूप कौशल विकास के सम्बन्ध में विभिन्न प्रावधान किए गए हैं। पर विडंबनात्मक स्थिति ये है कि विकलांगों को कौशालयुक्त कर रोजगारयोग्य बनाने के सरकार के इन तमाम प्रयासों के बावजूद देश की बड़ी अधिकांश विकलांग आबादी आज भी रोजगारहीन होकर जीने को विवश है। एक आंकड़े पर गौर करें तो देश की कुल विकलांग आबादी में से लगभग १।३४ करोड़ लोग १५ से ५९ वर्ष की आयु अर्थात नियोजनीय आयु वर्ग के हैं, लेकिन इनमे से तकरीबन ९९ लाख लोग अब भी बेरोजगार या सीमान्त कार्मिक हैं। इस स्थिति के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि सरकार द्वारा संचालित उपर्युक्त समस्त योजनाओं-कार्यक्रमों की पहुँच शहरों तक है जबकि २०११ की जनगणना के अनुसार यदि आंकलन करें तो देश की अधिकांश विकलांग आबादी के गांवों में होने की संभावना है। एक अन्य समस्या सरकार के कौशल प्रशिक्षणों में गुणवत्ता के अभाव की है। साथ ही तमाम जगह तो ये प्रशिक्षण सिर्फ कागजों में ही देकर इतिश्री कर दी जाती है। कहने का अर्थ है कि सरकार द्वारा विकलांगों को सामजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए विभिन्न योजनाएं व कार्यक्रम चलाएं तो जा रहे हैं, पर उनके क्रियान्वयन अभी कई समस्याएं हैं जिनसे पार पाने की ज़रूरत है। सुखद यह है कि सरकार की नई कौशल विकास एवं उद्यमिता नीति में इन समस्याओं को समझते हुए इनके समाधान के लिए तमाम प्रावधान किए गए हैं।

  वैसे, विकलांगों के प्रति समस्त दायित्व केवल सरकार के ही नहीं हैं, वरन हमारे समाज को भी उनके प्रति अपनी मानसिकता को तनिक और संवेदनशील, सहयोगी और सजग करने की आवश्यकता है। यह सही है कि समाज में अधिकांश लोग  विकलांगों के प्रति सहयोगी और सहानुभूतिपूर्ण भाव रखते हैं, किन्तु तमाम लोग इन सहयोगों में न केवल दया का भाव मिला देते हैं बल्कि उसका प्रदर्शन भी कर देते हैं जिससे विकलांगों के मन में हीन ग्रंथि के विकास का संकट उत्पन्न होने लगता है। और बहुत से असंवेदनशील लोग तो अब भी विकलांगों का मजाक बनाने और उन्हें हतोत्साहित करने से नहीं चूकते। समाज को अपनी इन मानसिकताओं में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि विकलांगजनों की कुछ क्षमताएँ सीमित भले हों, पर अगर उन्हें समाज और सरकार दोनों से संबल और सहयोग मिले तो वे न केवल जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता अर्जित कर सकते हैं बल्कि अपने देश और समाज की प्रगति बड़े भागीदार भी बन सकते हैं।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

तीसरे विश्व युद्ध की आहट [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण और दबंग दुनिया में प्रकाशित]


  • पीयूष द्विवेदी भारत 
दैनिक जागरण 
विगत दिनों तुर्की द्वारा एक रूसी विमान को कथित तौर पर अपने हवाई क्षेत्र में घुसने के कारण मार गिराया गया जिस पर रूस की तरफ से भारी नाराजगी व्यक्त करते हुए तुर्की को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दी गई। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन का यह बयान आया कि तुर्की की यह हरकत पीठ छूरा घोंपने जैसी यानी धोखेबाजी भरी है। लेकिन रूस के इतने कठोर रुख के बावजूद तुर्की की तरफ से कोई माफ़ी या खेद नहीं व्यक्त किया गया वरन तुर्की ने इस घटना के लिए रूसी विमान को ही दोषी ठहराया। तुर्की के प्रधानमंत्री ने कहा है कि जो हमारी सीमा में घुसपैठ करेगा उसे मारने का हमें पूरा हा है। तुर्की और मास्कों के बीच सैन्य टकराव का खतरा बढ़ता जा रहा है। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार, रूस के राष्ट्रपति व्लदिमीर पुतिन ने सीरिया में रूसी वायु ठिकानों पर अत्याधुनिक वायु रक्षा मिसाइल प्रणालियों को तैनात करने के आदेश दे दिए हैं।

प्रश्न यह है कि आखिर तुर्की जैसा रूस की तुलना में अपेक्षाकृत बेहद कमजोर देश आखिर इतनी हिम्मत कहाँ से पा गया कि उसने पहले रूसी विमान को मार गिराया और फिर माफ़ी मांगने की बजाय बेहद स्वाभिमानी रुख भी अख्तियार किए हुए है। इस प्रश्न पर विचार करें तो समझ आता है कि   तुर्की के इस दुस्साहसी आचरण का स्रोत कहीं न कहीं नाटो है, अन्यथा तुर्की अकेले के दम पर रूस के विरुद्ध इतनी हिम्मत कत्तई नहीं दिखा सकता  था। ज्ञात हो कि तुर्की नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रिटी आर्गेनाइजेशन) का एक सदस्य देश है। नाटो के विषय में उल्लेखनीय होगा कि नाटो मुख्यतः योरोप और उत्तरी अमेरिका के अट्ठाईस देशों का एक सैन्य गठबंधन है और इसकी बड़ी विशेषता यह है कि नाटो के किसी भी सदस्य देश के खिलाफ अगर कोई जंग छेड़ता है तो वो नाटो के विरुद्ध जंग मानी जाती है। अब तुर्की नाटो का एक सदस्य देश है जबकि रूस नहीं; अतः अगर रूस तुर्की के विरुद्ध खड़ा होता है तो उसके समक्ष अकेले तुर्की नहीं बल्कि नाटो की सेना होगी। इस बात का संकेत इससे भी मिलता है कि रूस द्वारा तुर्की को चेतावनी देने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तुर्की के बचाव में उतरते हुए कहा कि तुर्की को अपनी सीमा की सुरक्षा का अधिकार है और रूस उसके मामलों में हस्तक्षेप से बचकर आतंक के विरुद्ध संघर्ष में अपना ध्यान केन्द्रित करे।
दबंग दुनिया 
स्पष्ट है कि तुर्की के साथ पूरी नाटो सेना है और अमेरिका जो रूस का धुर विरोधी है, तो उसके साथ पूरी तरह से खुलकर है। हालांकि रूस का पाला भी कमजोर रहने वाला नहीं है। पूरी आशा है कि नाटो से बाहर के जापान, जर्मनी, चीन आदि शक्तिशाली देश  रूस के पाले में रह सकते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि अगर रूस और तुर्की का टकराव थमता नहीं है तो आगे चलकर उपर्युक्त प्रकार से दुनिया के दो विरोधी खेमों में बंटने का संकट पैदा हो सकता है। इस स्थिति को देखते हुए तीसरे विश्व युद्ध की दुराशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। यहाँ विश्व युद्ध की संभावना व्यक्त करने का मुख्य कारण यह है कि प्रथम विश्व युद्ध हुआ, उसके  भड़कने के लिए किसी बड़े कारण की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय दुनिया के देशों में एकदूसरे के लिए तरह-तरह से आक्रोश, इर्ष्या और अपने विस्तार का भाव भरा था जो कि किसी न किसी छोटी-सी तात्कालिक घटना के कारण भड़का  और फिर विश्वयुद्ध की शक्ल ले लिया। इसके लिए तत्कालीन कारण आस्ट्रिया के राजकुमार और उनकी पत्नी की हत्या रही जिसके बाद आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध जंग का ऐलान कर दिया। तत्पश्चात दुनिया के अन्य देश भी इन दो देशों की तरफ से खेमे में बंट गए और दो देशों के बीच की एक समस्या विश्व युद्ध की त्रासदी ले आई। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि आज के समय में दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के रूप में एक नियंत्रण संस्था है जिससे विश्वयुद्ध जैसी स्थिति का पैदा होना अब काफी कठिन है। कुल मिलाकर अच्छा होगा कि रूस और तुर्की इस सम्बन्ध में मिल-बठकर बातचीत के जरिये इस मसाले को सुलझाएं। तुर्की को इस सम्बन्ध में पहल करनी चाहिए और दुनिया के अमेरिका जैसे देशों को अपने रूस विरोध के स्वार्थ को त्याग कर इस सम्बन्ध में तुर्की को और भड़काने की बजाय रूस से शांतिपूर्ण ढंग से मामला सुलझाने के लिए प्रयास करना चाहिए। क्योंकि इस मामले का अधिक आगे बढ़ना आतंक के विरुद्ध वैश्विक युद्ध को तो कमजोर करेगा ही, वैश्विक शांति के लिए संकटकारी भी  होगा। 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

पंचायती राज के प्रति असजग ग्रामीण [पंजाब केसरी, जनसत्ता, नेशनल दुनिया और अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
कई राज्यों में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ राज्यों में हो चुके हैं तो कुछ में अभी जारी हैं। पंचायत चुनाव के इस मौसम में अगर देश के गांवों में जाकर वहां के हाल को समझने की कोशिश की जाय तो हर चौंक-चौराहे इन चुनावों की ही चर्चा है। सीट के सामान्य या आरक्षित रहने के विषय में कौतूहल है तथा प्रत्येक स्थिति के लिए न केवल संभावित प्रत्याशियों वरन ग्रामीण मतदाताओं के पास भी अपनी एक योजना है कि किसके पाले में रहना है और किसे जीताना है। लेकिन विडम्बना ये है कि ये योजनाबद्धता स्थानीय मुद्दों या ग्रामीण समस्याओं के आधार पर कत्तई नहीं है, इसका आधार जाति और लोगों के अपने-अपने व्यक्तिगत हित हैं। हर किसी का गणित है कि किस प्रत्याशी को जिताने पर उसे क्या और कितना लाभ मिल सकता है। अगर किसी पंचायत में एक ही जाति के दो-तीन लोग चुनाव में उतर गए तो वहां व्यक्तिगत हितों के आधार पर मतदाताओं के कई खेमे बन जाते हैं जैसे फलां प्रत्याशी से फलां व्यक्ति के सम्बन्ध अच्छे हैं तो परिवार समेत उसका वोट उसी प्रत्याशी  को जाएगा। अब वो कैसा है, किस छवि का है और उसका क्या एजेंडा है ? ये सब बातें गौण हैं। इसके अतिरिक्त धनबल इन चुनावों में भी सर्वोपरि है। पहले सामान्य तरीके से प्रचार करके प्रत्याशी मतदाता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता था, पर अब पंचायत चुनावों को भी लोकसभा और विधानसभाओं की चुनाव शैली की हवा लग गई है। पंचायत चुनावों पर काफी पैसा बहाया जाने लगा है। पहले ऐसा नहीं था। आमतौर पर लोग उसी प्रत्याशी को विजयी बनाते थे जो गाँव के लिए कुछ कर सकने लायक होता था, लेकिन अब स्थिति एकदम बदल चुकी है। धनबल का आलम यह है कि जो व्यक्ति अरसे से गाँव में रहा तक न हो और जिसे गाँव की समस्याओं-पीड़ाओं का कोई अता-पता भी नहीं हो, वो भी यदि पैसा खर्च करे तो बड़े आराम से चुनाव से चार दिन पहले गाँव में आकर भी एक सशक्त प्रत्याशी बन सकता है। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि पंचायत चुनाव भी समस्याओं से इतर जातिगत समीकरणों और धनबल के चक्रव्यूह में उलझा हुआ है। एक समस्या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व की भी है। मसलन, महिला प्रतिनिधित्व के उद्देश्य से जहां प्रधान की सीट महिला आरक्षित हैं, वहां महिला उम्मीदवारी महज प्रतीकात्मकता बन कर रह गई है। पत्नी के नाम से पर्चा दाखिला हुआ लेकिन चुनाव से लेकर जीतने के बाद काम-काज तक सब पति को ही देखना है। और दुखद तो ये है कि इस स्थिति को ग्रामीण लोग बड़े ही सहज भाव से स्वीकार भी किए हुए हैं। ऐसे मामलों में अक्सर वही लोग अपनी पत्नियों को उम्मीदवार बनाकर चुनाव जिताने में सफल होते हैं, जिनका गाँव में दबदबा है और जो खुद पैसे खर्च करने की क्षमता रखते हैं। अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि अपनी पत्नियों को चुनाव जीता कर ये लोग खुद पंचायतों के कामकाज संचालित करते हैं। विचार करें तो इसका मुख्य कारण यही है कि आज आज़ादी के साढ़े छः दशक से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति जागरूकता का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण लोग आज भी इसकी आवश्यकता और महत्व दोनों से अनभिज्ञ हैं।
जनसत्ता 
  इसी संदर्भ में अगर पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हुए इसे समझने का प्रयास करें तो भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। भले से विभिन्न कालों में इसके नाम अलग रहे हों। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक रूप से यह व्यवस्था महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था, आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।“ गांधी की इसी अवधारणा को फलीभूत करने के उद्देश्य से आजादी के पश्चात् संविधान में पंचायती राज की व्यवस्था करते हुए अनुच्छेद-४० में राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने यहाँ पंचायती राज का गठन करें। गांधीजी की इच्छा की पूर्ति के  नैतिक दबाव के कारण तत्कालीन सरकार द्वारा पंचायती राज की दिशा में गंभीरता दिखाते  हुए सन २ अक्तूबर, १९५२ को सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसके तहत सरकारी कर्मियों के साथ सामान्य लोगों को भी गाँव की प्रगति में भागीदार बनाने की व्यवस्था की गई। लेकिन इस व्यवस्था में लोग सिर्फ अपनी बात कह सकते थे, उसके लागू होने या करवाने के सम्बन्ध में उनके पास कोई विशेष अधिकार नहीं था, लिहाजा यह व्यवस्था शीघ्र ही असफल सिद्ध हो गई। कुछ यही हश्र १९५३ में आरम्भ राष्ट्रीय प्रसार सेवा का भी हुआ। इन नीतियों के विफल होने के पश्चात् पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सुझाव देने हेतु सन १९५७ में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने ग्राम समूहों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचित पंचायतों, खण्ड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों तथा ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया। इसके बाद अशोक मेहता समिति, डॉ राव समिति, डॉ एल एम् सिंधवी समिति, थूंगन समिति आदि समितियों का आवश्यकता महसूस होने पर समय दर समय क्रमशः गठन किया गया और इनके द्वारा दिए गए सुझावों पर कमोबेश अमल भी हुआ। आगे इस सम्बन्ध में संविधान में संशोधन भी किए गए जिनमे कि १९९३ में लागू हुआ ७३ वां संविधान संशोधन बेहद महत्वपूर्ण रहा। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई। त्रिस्तरीय पंचायती राज जिसमे सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्थिति में खंड स्तरीय क्षेत्र पंचायत और सबसे ऊपर जिला पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया। हालांकि जिन राज्यों की आबादी २० लाख से कम है, वहां ये मॉडल द्विस्तरीय हो जाता है।
नेशनल दुनिया 
इसके अतिरिक्त संविधान की ग्यारहवी अनुसूची में पंचायतों के लिए अधिकार और कार्य क्षेत्र भी सुनिश्चित किए गए हैं। इन कार्य क्षेत्रों में कृषि विस्तार, पेय जल, सड़क-पुलिया व संचार के अन्य माध्यमों का विकास, शिक्षा, तकनिकी शिक्षा, समाज कल्याण, गरीबी निवारण कार्यक्रमों का निर्माण व संचालन, लोक वितरण प्रणाली, नवीन  ऊर्जा स्रोतों का विकास, सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का निर्वाह आदि कुछ प्रमुख कार्य क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर ऐसे २९ कार्य क्षेत्र हैं जिन्हें पंचायतों के लिए चिन्हित किया गया है। इन कार्यक्षेत्रों के अनुसार ही पंचायतों को अधिकार भी प्राप्त हैं। सरकार की तरफ से  आर्थिक मद भी प्राप्त होता है। लेकिन समस्या वही है, ग्रामीण लोगों में जागरूकता का अभाव।  परिणामतः सरकार की तरफ से आया धन पंचायत के लिए चिन्हित कार्यों में लगने की बजाय ग्राम प्रधान और उसके निकटवर्ती लोगों के बीच बंदरबाट करके समाप्त कर दिया जाता है। मनरेगा जैसी योजनाओं का भ्रष्टाचार इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। अशिक्षित लोग यह सब उतना नहीं समझ पाते लेकिन तमाम लोग समझते भी हैं, मगर आवाज कोई नहीं उठाता। इन्हीं दिक्कतों के मद्देनज़र भारत सरकार द्वारा पंचायतों के डिजिटलकरण की बात की जा रही है और कुछेक कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है।
अमर उजाला 

  डिजिटलीकरण जब होगा तब होगा, फिलहाल आवश्यकता ये है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने की तरफ ध्यान दिया जाय। जागरूकता आने पर लोग पंचायत के कार्यों को समझेंगे तथा प्रधान पर उनके लिए दबाव बना सकेंगे और उसके आनाकानी करने पर ऊपर तक अपील भी कर सकेंगे। मत की ताकत समझ जाने पर वे जाति और व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर मतदान करने की तरफ भी अग्रसर होंगे। इसके अतिरिक्त पंचायती चुनाव प्रणाली में सुधार की भी दरकार है। खासकर चुनाव खर्च की एक सीमा तय की जाय और उसका कड़ाई से अनुपालन करवाया जाय। इससे सही उम्मीदवार के चयन की संभावना बढ़ेगी साथ ही जातीय समीकरणों से पंचायत चुनाव जीतने की रणनीति को भेदने के उपाय भी ज़रूरी है इन चोजों पर अगर ध्यान दिया जाय तो ही हम निकट या दूर भविष्य में सत्ता को विकेंद्रीकृत करके आमजन तक पहुंचा सकते हैं जो कि गांधी का अधूरा सपना है।