मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

बुलेट ट्रेन से पहले वर्तमान रेल व्यवस्था सुधारें [पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

पंजाब केसरी 
आज से दो वर्ष पहले भारतीय रेल मंत्रालय और जापानी इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (जे आई सी ए) द्वारा भारत में मुंबई-अहमदाबाद रूट पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बुलेट ट्रेन चलाने के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं का  अध्ययन शुरू किया गया था जिसकी रिपोर्ट इस वर्ष जुलाई में भारत सरकार को सौंपी गई। रिपोर्ट में बुलेट ट्रेन में आने वाली लागत से लेकर अन्य तमाम चीजों का जिक्र करते हुए कहा गया था कि इस रूट पर जापान की शिकान्सेन (बुलेट ट्रेन ट्रैक) की तर्ज पर हाईस्पीड ट्रेन चलाई जा सकती है। इसके बाद ही अब जब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भारत आए तो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके द्वारा हाईस्पीड रेल (एचएसआर)  समझौते पर हस्ताक्षर कर इसके सम्बन्ध में विभिन्न ऐलान किए गए। सबसे महत्वपूर्ण ऐलान यह रहा कि जापान द्वारा भारत को बुलेट ट्रेन के लिए अपने कर्ज नियमों में ढील बरतते हुए ०.१ प्रतिशत की बेहद सस्ती दर पर ५० साल जैसी लम्बी अवधि के लिए लगभग ९८००० करोड़ रूपये का क़र्ज़ दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त इस परियोजना में लगने वाले उपकरण और तकनीक तथा इसके संचालन के लिए भारतीय कर्मियों को प्रशिक्षण आदि भी जापानी अभियंताओं द्वारा ही दिया जाएगा। इस परियोजना के पूरा होने के लिए करीब सात साल का समय निर्धारित किया गया है यानी २०२३ तक देश की पहली बुलेट ट्रेन के तैयार हो जाने का अनुमान है, जबकि २०२४ से इसका व्यावसायिक संचालन भी शुरू किया जा सकेगा। स्पष्ट है कि ये सब अभी बेहद दूर की बातें हैं, लिहाजा इनपर अधिक कुछ कहना जल्दबाजी होगी।  हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर आम लोगों में भी अलग-अलग राय है। कोई इसे समय की मांग बता रहा है तो किसीके हिसाब से यह सब अभी गैरजरूरी है। अब जो भी हो, पर एक प्रश्न तो खैर उठता ही है कि वर्तमान समय में जब भारतीय रेल अनेक चुनौतियों, खासकर वित्तीय चुनौतियों से गुजर रही है, बुलेट ट्रेन जैसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इतना भारी कर्ज लेना कहाँ तक उचित है ? यह सही है कि बुलेट ट्रेन के लिए प्राप्त कर्ज भारतीय रेल के वित्त से अलग होगा, लेकिन यदि बुलेट ट्रेन की बजाय इस तरह का निवेश भारत की वर्तमान रेल व्यवस्था जो फिलवक्त देश की बहुसंख्य आबादी की जीवन रेखा जैसी है, का जीर्णोद्धार करने में किया जाता तो क्या ज्यादा बेहतर नहीं रहता ? बुलेट ट्रेन चलाना कत्तई गलत नहीं, लेकिन जब देश की सामान्य रेल व्यवस्था अनेक चुनातियों और समस्याओं से घिरी हो तब ऐसे भारी-भरकम और महंगे प्रोजेक्ट पर लगना कहाँ की बुद्धिमानी है ? दूसरे शब्दों में कहें तो मजबूत घर हो तो सजावट भी ठीक लगती है, ये नहीं कि मकान तो जर्जर हो पर रंग-रोगन खूब कर दीजिए। परिणाम यह होगा कि आंधी का एक झोका ही सब तहस-नहस कर देगा। फिर आप न इधर के रह जाएंगे न उधर के। तात्पर्य यह है कि आज बुलेट ट्रेन से पहले देश की मौजूदा रेल व्यवस्था को वित्तीय से लेकर संचालन तक तमाम चुनातियों से बाहर लाने के लिए उसमे अधिकाधिक निवेश बढ़ाने और ध्यान देने की जरूरत है।
राष्ट्रीय सहारा 
  इसी सन्दर्भ में अगर देश की मौजूदा रेल व्यवस्था की समस्याओं को समझने का प्रयत्न करें तो उल्लेखनीय होगा कि मौजूदा केन्द्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अपने २०१५-१६ के रेल बजट भाषण के दौरान खुद रेलवे को तमाम समस्याओं से घिरा बताते हुए इसके लिए प्रमुख कारण लम्बे समय से हो रही निवेश की कमी को बताया था। समस्याओं में सबसे प्रमुख है, अक्सर होते रहने वाली रेल दुर्घटनाएं  जिसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार  हैं। एक आंकड़ें के अनुसार फिलहाल रेलवे का लगभग ८० फीसदी यातायात महज ४० फीसदी रेल नेटवर्क के भरोसे चल रहा है जिससे भीड़-भगदड़ और असुरक्षा जैसी समस्याओं से रेलवे को दो-चार होना पड़ता है। यह क्षमता से अधिक का बोझ बड़ा कारण है रेल दुर्घटनाओं के लिए। इसके अतिरिक्त अधिकांश रेल पटरियों की हालत भी जर्जर हो चुकी है जो कि अक्सर दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं। इन रेल पटरियों के जीर्णोद्धार तथा रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए अत्याधुनिक सिग्नल व्यवस्था आदि को लागू करने के लिए रेल मंत्री द्वारा बजट में तकरीबन १ लाख २७ हजार करोड़ रूपये के निवेश का प्रस्ताव किया गया था जिसके लिए रेलवे की निर्भरता अपने संसाधनों तथा निजी क्षेत्र पर है। रेल दुर्घटनाओं के अतिरिक्त साफ़-सफाई, गाड़ियों और स्टेशनों की संख्या बढ़ाने आदि के लिए भी धन की आवश्यकता है। बजट के आंकड़ों के अनुसार रेलवे की स्थिति तो घाटे में चल रही है और निजी क्षेत्र से रेलवे को कभी तय लक्ष्यों के अनुरूप सहयोग नहीं मिला है, लिहाजा उसकी तरफ से भी कोई विशेष उम्मीद नहीं की जा सकती। ये समस्याएं पैदा हुई हैं क्योंकि काफी लम्बे समय से रेल किराए में कोई वृद्धि नहीं की गई थी और सुविधाएं दी जाती रहीं थी। आंकड़े के मुताबिक़ २००१-०२ में रेलवे जब  यात्री गाड़ियों की संख्या ८८९७ थी तब उनपर होने वाला घाटा ४९५५ करोड़ था और आज जब गाड़ियां बढ़कर १२ हजार से ऊपर हो गई हैं तो उन पर रेलवे का घाटा भी २५ हजार करोड़ के आसपास पहुँच गया है। स्पष्ट है कि लम्बे समय से चले वित्तीय कुप्रबंधन ने रेलवे जैसे लाभकारी क्षेत्र का वित्तीय ढांचा तबाह करके रख दिया है। अब एकाध वर्षों से किरायों में वृद्धि आदि करके स्थिति नियंत्रित करने की कोशिश तो की जा रही है, लेकिन इन सब कवायदों का लाभ धीरे-धीरे ही मिलेगा। ऐसे में वर्तमान रेल व्यवस्था में जान फूंकने और उपर्युक्त समस्याओं से पार पाने के लिए रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अगले पांच साल की अपनी कार्ययोजना में ८ लाख ५६ हजार करोड़ के निवेश की जो योजना संसद में पेश की थी, उसके क्रियान्वयन के लिए रेलवे को धन के बाह्य स्रोतों पर ही काफी हद तक निर्भर रहना होगा जिनमे निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश प्रमुख हैं। स्पष्ट होता है कि रेलवे के लिए ये समय अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। अब जब देश की रेल व्यवस्था की यह हालत है तो क्या सरकार  को बुलेट ट्रेन की बजाय रेलवे की इन व्यवस्थाओं को सुधारने में विदेशी निवेश को प्राथमिकता देने की आवश्यकता नहीं है ? कितनी बड़ी विडंबना है कि अभी जो देश सामान्य रफ़्तार की ट्रेनों की दुर्घटनाओं को रोकने में सक्षम नहीं हैं, उसे बुलेट ट्रेन के सपने दिखाए जाने लगे हैं। बेशक प्रधानमंत्री की बुलेट  ट्रेन की महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है, लेकिन अभी यह असामयिक है। उचित होगा कि पहले मौजूदा रेल व्यवस्था दुरुस्त कर ली जाय, फिर बुलेट ट्रेन और ऐसी अन्य सभी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की दिशा में बढ़ा जाय तभी देश प्रगतिपथ पर संतुलित रूप से आगे बढ़ सकेगा।

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