बुधवार, 23 दिसंबर 2015

पुलिस सुधारों की दरकार [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
अभी हाल  ही  में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कच्छ के धोरदो में पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में भाग लेकर उन्हें संबोधित किया गया। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जहाँ एक तरफ पुलिस के लिए उच्च मूल्यों और कार्य-शैलियों की जरूरत बताई तो वहीँ दूसरी तरफ निरंतर बदल रही प्रोद्योगिकी के प्रति जागरूक होकर उसका उपयोग करने की सलाह भी दी। यादाश्त पर ज़रा जोर डालें तो ऐसा ही कुछ विगत वर्ष नवम्बर में भी प्रधानमंत्री द्वारा अपने असम दौरे के दौरान पुलिसकर्मियों के प्रति अपने एक संबोधन  में कहा गया था। उसवक्त प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा समाज में पुलिस की बेहतर छवि कायम करने के लिए पुलिसकर्मियों को अपने चरित्र और प्रवृत्ति में बदलाव लाने की नसीहत दी गई थी तथा स्मार्ट पुलिसिंग पर जोर दिया गया था। तब ऐसा लगा था कि प्रधानमंत्री पुलिस सुधार की दिशा में कुछ ठोस कदम भी उठाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि अब लगभग साल भर बाद एकबार फिर प्रधानमंत्री ने अपनी उन पिछली बातों से ही मिलती-जुलती बातें कही हैं। अब सवाल ये है कि क्या सिर्फ पुलिस को लम्बी-लम्बी नसीहतें और उपदेश देते रहने से ही उसमे बदलाव आ जाएगा ? और क्या सिर्फ पुलिसकर्मियों के इस आत्मपरिष्कार से पुलिस स्मार्ट हो जाएगी ? इन सवालों का जवाब यक़ीनन नकारात्मक ही है। गौर करें तो प्रधानमंत्री जिन बातों को पुलिसकर्मियों के प्रति अपने वक्तव्यों में कहे हैं, उनमे कई एक ऐसी हैं जो देश में लम्बे समय से अटके पुलिस सुधारों का हिस्सा हैं। जैसे प्रधानमंत्री ने पुलिस को समाज से जुड़ने के लिए कहा और यह चीज पुलिस सुधारों में पुलिस के सामजिक संबंधों के रूप में मौजूद है। अतः कहने का आशय ये है कि प्रधानमंत्री को अपने इन वक्तव्यों को यदि वाकई में पुलिस के चरित्र में उतारना है और उसे श्रेष्ठ बनाना है तो ऐतिहासिक रूप से अटके पुलिस सुधारों को लागू करने की दिशा में कदम उठाएं।
  इसी संदर्भ में अगर यह समझने का प्रयास करें कि पुलिस सुधार है क्या और इससे क्या तात्पर्य है ? दरअसल, देश की पुलिस आज भी अधिकांश  रूप से अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बने पुलिस अधिनियम के हिसाब से काम कर रही है। अंग्रेजों ने यह पुलिस अधिनियम सन १८६१ में १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के उपज और दमन के बाद मूलतः इस मंशा के तहत बनाया था कि भविष्य में ऐसा कोई आन्दोलन फिर से न हो सके। मतलब यह है कि इस अधिनियम के निर्माण का मूल उद्देश्य दमन था। अब विद्रूप यह है कि सन १९४७ में आजाद और १९५० में गणतंत्र राष्ट्र हो जाने के बावजूद भारत में अब भी अंग्रेजों के उसी अधिनियम के अनुसार अधिकत्तर  पुलिसिंग हो रही है। इसीके मद्देनज़र देश में एक समय से कुछ लोगों द्वारा पुलिस सुधार की मांग व इस दिशा में पहल की जाती  रही है, लेकिन बावजूद तमाम प्रयासों के अब भी देश में पुलिस सुधार काफी दूर की कौड़ी ही नज़र आता  है। इसी क्रम में पुलिस सुधार की कोशिशों के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इसकी शुरुआत सन १९७७ में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा १९७९ में पुलिस सुधारों  से सम्बंधित सुझावों की रिपोर्टें पेश करने से हुई। इस आयोग ने पुलिस सुधार के सुझावों की आठ रिपोर्टें पेश कीं जिनमे पुलिस कल्याण व प्रशिक्षण समेत सामाजिक संबंधों के मामले में भी तमाम सिफारिशें की गईं। पर १९८१ में सरकार बदली और इसके साथ ही इस आयोग  को भंग कर इसकी रिपोर्टों को भी खारिज कर दिया गया। इसीके साथ पुलिस सुधार का मामला लम्बे समय के लिए ठण्डे बस्ते में चला गया। सन १९९६ में पुलिस महानिदेशक के पद  से सेवानिवृत्त हुए प्रकाश सिंह और एन के सिंह समेत कुछ अन्य लोगों द्वारा  इस मामले को पुनः उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका डालते हुए मांग की गई कि देश में एक नए पुलिस अधिनियम की जरूरत है और इस दिशा में राष्ट्रीय पुलिस आयोग के सुझाव काफी कारगर सिद्ध हो सकते हैं। इस जनहित याचिका के बाद पुलिस सुधार पर सुझाव के लिए तमाम समितियां गठित की गईं। रिबर समिति, पद्मनाभैया समिति आदि का गठन हुआ और इन्होने अपने सुझाव भी दिए। अंततः यह कहा गया कि देश में अंग्रेजों के ज़माने के पुलिस अधिनियम को निरस्त कर उसकी जगह इन समितियों के सुझावों के अनुरूप एक पुलिस अधिनियम बनाकर लागू किया जाय। इन सब घटनाक्रमों के बाद सन २००६ में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि देश की सभी राज्य सरकारें इन पुलिस सुधारों को अपने यहाँ लागू करें। न्यायालय ने सात सूत्रीय पुलिस सुधार का प्रारूप भी पेश किया और कहा कि जबतक राज्य सरकारें अपना नया पुलिस अधिनियम नहीं बना लेतीं तबतक वे इसी प्रारूप को लागू करें। ऐसा करने के लिए न्यायालय द्वारा  राज्य सरकारों को साल २००६ के अंत तक का समय दिया गया। लेकिन राज्य सरकारों की तो मंशा ही नहीं थी कि इन पुलिस सुधारों को लागू किया जाय, इसलिए कितनों ने तो न्यायालय से तारीख बढ़वा लीं, तो कितनों ने अध्यादेश लाकर अपने राज्य के लिए कहने भर का नया पुलिस अधिनियम बना लिया। आगे जब इन राज्यों में न्यायालय के आदेश की समीक्षा हुई तो तस्वीर यह सामने आई कि किसी भी राज्य ने न्यायालय द्वारा प्रतिसूचित पुलिस सुधारों के प्रारूप को अपने यहाँ ठीक से लागू नहीं किया है। यहाँ सवाल यह उठता है कि आखिर राज्य सरकारें न्यायालय द्वारा सुझाए पुलिस सुधारों से बचने की कवायद क्यों करती रही हैं ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए सबसे पहले हमें न्यायालय द्वारा सुझाए पुलिस सुधारों पर एक नज़र डालनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों के लिए पुलिस सुधार के छः दिशानिर्देश दिए जिनमे पुलिस के काम-काज पर नज़र रखने और उसे बाहरी दबाव से मुक्त रखने के लिए ‘राज्य सुरक्षा आयोग’ का गठन; पुलिस को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने के लिए ‘पुलिस संस्थापन बोर्ड’ का गठन तथा पुलिस की शिकायत के लिए ‘शिकायत प्राधिकरण’ का गठन प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के चयन तथा पुलिस के दायित्व में जांच व शांति व्यवस्था को अलग-अलग करने आदि के सुझाव भी न्यायालय द्वारा दिए गए थे। विचार करें तो स्पष्ट होता है कि न्यायालय द्वारा सुझाए इन पुलिस सुधारों के बाद पुलिस की कमान हमारे सियासी हुक्मरानों के हाथों से छूट खुद पुलिस के ही शीर्षस्थ लोगों के हाथों में आ जाती। बस इसी कारण अधिकाधिक राज्य सरकारें न्यायालय के पुलिस सुधार प्रारूप को यथावत  अपने यहाँ लागू करने में टाल-मटोल  करती रही हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि अंग्रेजी ज़माने की औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था के तहत संचालित पुलिस की छवि जनता में काफी ख़राब हुई है। हालांकि  पुलिस व्यवस्था राज्य सूची में आने वाला विषय है, इसलिए इसमें केंद्र सरकार कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं कर सकती। लेकिन, जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पहले असम और अब कच्छ में पुलिस को तरह-तरह की नसीहतें दी गयी हैं उसे देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि वे पुलिस को स्मार्ट और बेहतर बनाने के लिए जमीनी स्तर पर भी गंभीरता का परिचय देंगे और राज्य सरकारों को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करेंगे कि वे अपने यहाँ न्यायालय द्वारा निर्देशित पुलिस सुधारों को समकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप बनाकर लागू करें। इन सुधारों के लागू होने के बाद पुलिस में जवानों की कमी को दूर करने तथा पुलिस को अत्याधुनिक साजो-सामान से लैस करने आदि की दिशा में भी पहल की जा सकती है। मगर मूल बात यही है कि बिना इन पुलिस सुधारों के पुलिसिंग का बेहतर होना सिर्फ एक सपने की तरह ही है।

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