रविवार, 9 अगस्त 2015

समकालीन हिंदी कहानी का समृद्ध दौर [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]



विचार : तेजेंद्र शर्मा
प्रस्तुति : पीयूष द्विवेदी
राष्ट्रीय सहारा
हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में कहानी ही एक ऐसी विधा है जिसमें लगातार प्रगति हुई है। गुलेरी जी की कहानी उसने कहा थाजिसे कहानी-तत्वों के आधार पर हिंदी की पहली पूर्ण कहानी माना जाता है, अब सौ वर्ष की हो चुकी है। सौ वर्ष यानि कि दस दशक। हर दशक की अपनी एक पहचान रही है। हालांकि इन सौ वर्षों के दौरान कविता की तरह कहानी में भी आन्दोलन और नारेबाज़ियां पैदा हुईं, मगर वे कहानी के कहानीपन को नष्ट नहीं कर पाईं। जैसे फ़िल्मी गायन में के.एल. सहगल के जमाने को मुहम्मद रफ़ी ने और मुहम्मद रफ़ी की परम्परा को किशोर कुमार ने आगे की राह दिखाई, ठीक वैसे ही पिछले सौ वर्षों में विभिन्न कहानीकारों के माध्यम से हिंदी कहानी भी गांव से शहर और वहां से महानगर तक पहुंची। पहले कहानी घर के बाहर घटित होती थी, फिर अचानक रसोई, बरामदे और बेडरूम तक पहुंच गई। यदि इन सौ वर्षों के नामों की सूचि बनाना शुरू करेंगे तो कथा साहित्य में ऐसे तमाम  नाम सामने आएंगे जिन्होंने हिन्दी कहानी को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। मगर यह भी सच है कि हर बड़ा लेखक अपनी दो या तीन कहानियों के लिये ही जाना जाता है। प्रेमचन्द को लगभग दस महान् कहानियां लिखने के लिये तीन सौ से अधिक कहानियां लिखनी पड़ीं।
गुलेरी जी के बाद प्रेमचन्द, प्रसाद, जैनेन्द्र से लेकर यशपाल, अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी तक तमाम ऐसे कहानीकार हुए जिन्होंने न केवल हिंदी कहानी को सुदृढ़ता प्रदान की, वरन आगे भी ले गए। फिर  कृष्णा सोबती, मन्नु भण्डारी, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा आदि तमाम महिला कथाकारों ने भी न केवल हिंदी कहानी के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वरन महिला कथाकारों को मुख्यधारा के कथाकार के रूप में स्थापित भी किया। हालांकि इस दौरान एक ऐसा समय भी आया, जब हिन्दी कहानी पर वामपंथी विचारधारा का अतिरिक्त दबाव आ गया था। उस काल में एक सी कहानियां लिखी जाती रहीं। पाठक कहानियों से विमुख हो गये। लेखक पाठकों की जगह आलोचकों के लिये कहानियां लिखने लगे थे। वैसे, इस नकारात्मक काल में भी कुछ बेहतरीन कहानियों का सृजन हुआ। मगर इस काल में हिंदी कहानी का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी है। बहरहाल, उपर्युक्त सभी रचनाकारों के रचना-कौशल से गुजरते हुए हिंदी कहानी आदर्शोन्मुख  यथार्थवाद, रोमांटिक यथार्थवाद, केवल यथार्थवाद, कलावाद, आधुनिकतावाद नई कहानी, विचारधारा वाली कहानी आदि आन्दोलनों से निकलती हुई आज 21वीं सदी में खरे सोने की तरह उभर कर सामने आई है।
इस समय हिन्दी कहानी शायद अपने बेहतरीन दौर से गुज़र रही है। चूंकि, आज हिन्दी कहानी की कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। वरिष्ठ और युवा दोनों तरह के कहानीकार एक साथ रचनाशील हैं। युवा लेखकों की तो एक लम्बी-सी कतार है। आज कहानी वामपन्थी दबावों से भी बाहर आ चुकी है और  उसमे कहानीपन वापस आ रहा है। मेरा मानना है कि कहानी में किस्सा होना ज़रूरी है। आपके पास कहने के लिये कुछ होना चाहिए। केवल शब्दों के फन्दे बुनना कहानी लिखना नहीं है।
हिन्दी कहानी को यदि विश्व कथा साहित्य को चुनौती देनी है तो पहले कहानीकारों को पढ़ने की आदत डालनी होगी। एम.ए. हिन्दी में जो साहित्य पढ़ा है, उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ पढ़ना होगा। अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और अफ़्रीकी साहित्य की जानकारी हासिल करनी होगी। कहानी न तो  गांव में कैद करके रखने की चीज है और न ही उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने का औज़ार ही बना के रखा जा सकता हैं। ऐसी चीजें कहानी को सीमित करने की कोशिशें हैं जिन्हें विफल कर देना चाहिए। कहानी का फ़लक विशाल है। जीवन में इतने विषय बिखरे पड़े हैं कि आपकी हर कहानी आपकी दूसरी कहानी से अलग हो सकती है। यहाँ ये याद रखना होगा कि विचारधारा ऊपर से थोपी जाती है जबकि विचार लेखक के भीतर से निकलता है। हमें कहानी विचार से लिखनी होगी। यदि उस पर विचारधारा थोपी जाएगी तो कहानी एक पैम्फ़लेट भर बनकर रह जाएगी।
वैसे उपर्युक्त तमाम अच्छी बातों के बावजूद समकालीन हिन्दी कहानी की सबसे बड़ी चुनौती है पाठक को वापिस लाना। एक अच्छी बात यह है कि अब नामवर आलोचक हिन्दी कहानी के परिदृश्य से ग़ायब हो रहे हैं। इसलिये ज़रूरी है कि लेखक बिना किसी अतिरिक्त दबाव के अपने मन की बात कहें। हिन्दी के लेखक को अपने लेखन पर निगाह डालनी होगी और सोचना होगा कि आख़िर पाठक हमसे क्यों दूर भाग गया है ? क्यों धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार जैसी पत्रिकाएं बन्द हो जाती हैं ? दरअसल, हिन्दी में लोकप्रिय साहित्य और साहित्य के बीच एक बहुत बड़ी खाई है। यहाँ लोकप्रिय साहित्य को अछूता माना जाता है। जरूरत यह है कि हमारे कहानीकार मिडल ऑफ़ दि रोड सिनेमाकी तरह लेखन करें। इस संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि बिमल राय, ब्लैक अण्ड व्हाइट फ़िल्मों वाले राज कपूर, गुरूदत्त, गुलज़ार आदि स्वस्थ फ़िल्में बनाते थे। इनकी फ़िल्में न तो घोर कमर्शिलय होती थीं और न ही ऐसी कला फ़िल्में जिससे सिरदर्द होने लगे। इसी प्रकार हमारे कथाकारों को भी आम आदमी से जुड़े विषयों को पठनीय बना कर पेश करना होगा। हिन्दी में जासूसी, कॉमेडी या फ़ैन्टेसी लेखन को नीची निगाह से देखा जाता है। ये सब विषय भी हिन्दी कहानी लेखन को अपनाने होंगे, तभी हिन्दी कहानी वापिस अपने पाठक पा सकेगी।
आज हिंदी कहानी के पोर्नोग्रोफिकरण को भी कुछ हद तक उसकी एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ ऐसा काम हुआ भी है। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि कहानियों में सेक्स का चित्रण बहुत पुराना है। हाँ, वर्तमान में विमर्श के साथ जुड़ कर इसने परेशान तो किया है। मगर बावजूद इसके यह भी सच है कि आज की कहानी में कुछ बेहतरीन रचनाएं भी सामने आ रही हैं। समकालीन कहानी कथा, शिल्प, भाषा और संवेदन सभी स्तरों पर सृजनात्मकता को आगे ले जा रही है।  उसमें ऐसी कहानियां आटे में नमक के बराबर हैं, जिन्हें हम पोर्नोग्राफ़ी के समकक्ष रख सकें। ऐसे लेखक एवं लेखिकाएं जानती हैं कि यह टोटका अधिक दिन चलने वाला नहीं है। और अंततः बचेगा वही जो जंचेगा। कुल मिलाकर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी कहानी का वर्तमान परिदृश्य आश्वस्त करता है कि इसकी  यात्रा केवल आगे से आगे बढ़ने वाली है।
  आज के युवा रचनाकारों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। उनके पास प्रेमचन्द से लेकर आज तक की लम्बी-चौड़ी धरोहर है। अब उस धरोहर में अपनी मेधा को मिला कर वे बेहतरीन रचनाएं लिख रहे हैं जो कि प्रभावित करने वाली हैं। आज के कुछ युवा रचनाकारों की कहानियों में मनोज रूपड़ा की टॉवर ऑफ़ साइलेंस, प्रभात रंजन की जानकीपुल, संजय कुन्दन की झील वाला कम्पयूटर, शशि भूषण द्विवेदी की शिल्पहीन, मनीषा कुलश्रेष्ठ की स्वांग एवं कठपुतलियां, अजय नावरिया की गोदना, न्याय-कथा, गीताश्री की और अन्त में प्रार्थना, पंकज सुबीर की कसाब.गांधी@यरवदा.इन, आदि उल्लेखनीय हैं।
  वैसे, आखिर में एक समस्या यह भी है कि बिना पढ़े ही हम किसी लेखक या किसी प्रकार के लेखन के बारे में एक राय बना लेते हैं और उसकी तारीफ़ या बुराई करने लगते हैं, जबकि इससे हम न केवल उस लेखक के साथ अन्याय करते हैं, वरन स्वयं को भी धोखा देते हैं। कहने का आशय यह है कि लेखक युवा पीढ़ी का हो, प्रवासी हो या कैसा भी हो, वह अच्छा तभी लिख सकेगा जब वह खूब पढ़ेगा। पढ़ना और खूब पढ़ना..अच्छा लिखने की प्राथमिक शर्त है, इसे याद रखने की जरूरत है।


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