बुधवार, 26 अगस्त 2015

इन पूर्व सैनिकों की भी सुनिए सरकार [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और दैनिंक दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण
विगत दो महीने से दिल्ली के जन्तर-मंतर पर वन रैंक-वन पेंशन की मांग को लेकर धरने पर बैठे हैं और अब तो कुछ पूर्व सैनिक आमरण अनशन पर भी बैठ गए हैं जिस दौरान अनशनरत रिटायर्ड कर्नल पुष्पिंदर सिंह की तबियत भी बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन इससे पूर्व सैनिकों का जोश न टूटा। कर्नल सिंह के अस्पताल जाते ही उनकी जगह हवालदार तेज सिंह अनशन पर बैठ गए। हालांकि इन सैनिकों के समर्थन में बहुत अधिक लोग नहीं जुटे हैं, मगर फिर भी यह सैनिक अपनी मांग पर डटे हुए धरनारत हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है न कि सेना को लेकर जो देश हद से ज्यादा श्रद्धान्वित और भावुक होने की बात करता है, वहां पूर्व सैनिकों का साथ देने के लिए ठीकठाक अच्छी संख्या में लोग तक नहीं जुट रहे। सवाल यह उठता है कि कहीं हमारा सैन्य प्रेम सिर्फ प्रतीकात्मक या दिखावा भर तो नहीं है ? इन सैनिकों का साथ देने अगर ठीकठाक संख्या में जनता पहुँचती तो संदेह नहीं कि केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव बनता और वो इनकी जल्द सुनवाई करती। लेकिन अधिक जन समर्थन न होने के कारण मोदी सरकार भी इन सैनिकों की तरफ से आँख-कान मूंदे बैठी है। जबकि इसी मोदी सरकार ने सत्ता में आने से पूर्व अपने घोषणापत्र में यह वादा किया था कि वो सत्ता में आते ही यथाशीघ्र वन रैन्क-वन पेंशन (ओआरओपी) को लागू करेगी। मोदी सरकार सत्ता में आई और पूर्व सैनिकों ने सरकार को ओआरओपी लागू करने के लिए समय भी दिया, मगर सरकार सिर्फ इसे जल्द से जल्द लागू करने की बातें ही करती रही, लागू नहीं कर सकी। अब पिछले दो महीने से पूर्व सैनिक धरने पर बैठे हैं और त्रासदी देखिए कि सरकार अब भी बस बातें ही कर रही है। कभी प्रधानमंत्री इसके जटिल होने की बात करते हैं तो कभी रक्षा मंत्री यह कहते हैं कि पूर्व सैनिकों के लिए जल्द ही अच्छी खबर आएगी। तमाशा बना दिया गया है सेना के इन पूर्व जवानों का। यहाँ समझ न आने वाली बात ये है कि आखिर ये पूर्व सैनिक ऐसा कौन-सा खजाना मांग रहे हैं कि सरकार को इतनी देरी लग रही है। कितनी बड़ी विडम्बना है न कि जिस देश में तथाकथित देशसेवा-जनसेवा के नाम पर नेताओं को गाड़ी, बंगला और जाने कितनी छूटें मिल जाती हैं, वहां देश की रक्षा-सुरक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर सीमा पर खड़े रहने वाले वास्तविक देशसेवक सेना के जवानों को सेवानिवृत होने के बाद एक अदद पेंशन में समानता देने में हुकुमत के लिए दशकों का समय भी कम पड़ जाता है। सवाल यह है कि आखिर इस मामले में ऐसी कौन सी जटिलता है जिससे विगत तीन दशकों से अधिक समय में पार नहीं पाया जा सका ? जाहिर है कि यहाँ समस्या इस मामले की जटिलता नहीं, इसके क्रियान्वयन के लिए हमारे हुक्मरानों में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव होना है। इसी क्रम में यदि वन रैंक-वन पेंशन मामले को समझने का प्रयत्न करें तो इसका अर्थ यह है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत हुए एक ही रैंक के जवानों को बराबर पेंशन दी जाय या उनकी पेंशन में अधिक अंतर न रहे। अभी स्थिति यह है कि जो सैन्य अधिकारी या सैनिक जब सेवानिवृत हुए हैं, उन्हें पेंशन के तत्कालीन नियमों के हिसाब से पेंशन मिलती है। अब चूंकि सेना के पेंशन के नियम कई बार बदले हैं। ब्रिटिश शासन के समय फौजियों की पेंशन उनकी तनख्वाह की ८३ प्रतिशत थी जिसे आज़ादी के बाद सन १९५७ में भारत सरकार ने कम कर दिया और इसके मद से सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों जिन्हें तब वेतन का ३३ फीसदी पेंशन मिलती थी, की पेंशन को बढ़ा दिया। सन १९७१ में सेना के पेंशन के नियम यूँ थे कि सैनिक को उसके वेतन का ७५ प्रतिशत जबकि सैन्य अधिकारियों को ५० फीसदी पेंशन मिलती थी जिसे बाद में तीसरे वेतन आयोग ने घटाकर ५० फीसदी कर दिया। इस तरह सन १९७१ में सेवानिवृत हुए फौजियों तथा उसके बाद सेवानिवृत हुए फौजियों की पेंशन में भारी अंतर है। आगे भी जब-तब पेंशन के नियम बदले और ये अंतर भी आता गया। गौर करें तो सन २००५ और २००६ के में सेवानिव्रूत हुए फौजियों की पेंशनों के बीच लगभग १५००० रूपये तक का अंतर। स्थिति यह है कि २००६ के बाद सेवानिवृत कर्नल २००६ से पूर्व सेवानिवृत अपने से उच्च रैंक के मेजर जनरल से अधिक पेंशन पाता है। इन विसंगतियों के मद्देनज़र फौजियों की मांग यह है कि सेना में एक रैंक-एक पेंशन की व्यवस्था कर दी जाय जिसके तहत एक रैंक के अलग-अलग समय पर सेवानिवृत दो फौजियों की पेंशनों में कोई अंतर न हो। वन रैंक-वन पेंशन के लागू होने से तकरीबन २५  लाख भूतपूर्व फौजियों और लगभग १३ लाख वर्तमान फौजियों समेत ६।५ लाख से अधिक शहीदों की विधवाओं को भी लाभ मिलेगा।
दबंग दुनिया 
  सेना के पेंशन का यह मामला तो सन १९७३ से चल रहा है। सन २००८ में इस मुहीम के तहत इण्डियन सर्विसमैन मूवमेंट की स्थापना भी हुई। लेकिन इसने असल तूल सन २००९ में तब पकड़ा जब ३०० से अधिक भूतपूर्व सैनिकों ने इस मसले को लेकर राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया और अपने मेडल भी वापस कर दिए। मगर इस मामले पर तत्कालीन संप्रग सरकार से भी तब कुछ नहीं किया गया। संप्रग सरकार को होश तब आया जब लोकसभा चुनाव २०१४ का समय आया और चुनाव से ठीक पहले अपने अंतरिम बजट में संप्रग ने इस योजना के तहत ५०० करोड़ रूपये का प्रावधान किया। भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में वन रैंक वन पेंशन लागू करने का वादा किया। चुनाव के बाद भाजपानीत मोदी सरकार सत्ता में आई और उसने जुलाई २०१४ में पेश अपने पहले बजट में ही वन रैंक-वन पेंशन के लिए १००० करोड़ रूपये का प्रावधान किए। लेकिन अब मोदी सरकार का साल भर से अधिक समय पूरा हो चुका है और यह योजना अब तक लागू नहीं हुई है। चुनाव से पहले अपनी रेवाड़ी रैली में वन रैंक-वन पेंशन लागू करने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब कहते हैं कि उन्होंने इस मामले को जितना सरल समझा था, ये उतना सरल है नहीं। सवाल यह है कि ऐसी क्या जटिलता है जिससे प्रधानमंत्री मोदी की सरकार एक साल से अधिक समय में ख़त्म नहीं कर सकी ? इस योजना को लागू करने में एक अड़चन यह बताई जा रही है कि इस योजना के चलते सरकार पर शुरुआत में लगभग साढ़े ८ हजार करोड़ का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। दूसरी समस्या यह बताई जा रही है कि सेना में ऐसी व्यवस्था लाने पर दूसरे विभाग भी ऐसी मांग कर सकते हैं तो सरकार उनके लिए संसाधन कहाँ से जुटाएगी। इन बातों का एक यही उत्तर यह है कि सैनिक दिन-रात, बारिश-धूप, सर्दी-गर्मी आदि विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में  अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए खड़े रहते हैं, उनके कार्य में अन्य किसी विभाग की अपेक्षा मेहनत और जोखिम बहुत अधिक है। इसलिए उनको हर तरह से विशिष्ट व्यवस्था मिलनी चाहिए और इससे किसी विभाग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कहने का अर्थ ये है कि यदि इन पूर्व फौजियों की इसी तरह उपेक्षा की जाती रही तो इससे हमारे वर्तमान फौजियों के मनोबल पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जो कि देश के लिए कतई अच्छा नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें