गुरुवार, 6 अगस्त 2015

नगा समझौते के निहितार्थ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय, दबंग दुनिया और कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण
आखिरकर लगभग डेढ़ दशक के समय और ८० दौर की वार्ताओं के बाद पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठन एनएससीएन आइएम (नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड आइएम) से शांति समझौता हो गया है। अब चूंकि वर्तमान में भाजपानीत मोदी सरकार सत्ता में है  और उसने ही लम्बे समय से अटके इस ऐतिहासिक समझौते को अमलीजामा पहनाया है, लिहाजा इसका श्रेय उसे ही जाएगा और जाना भी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की प्रधानमंत्री आवास पर मौजूदगी में एनएससीएन के प्रमुख टी मुइया और सरकारी वार्ताकार आर एन रवि के बीच इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इसी क्रम में इस समझौते के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो सबसे पहले हमें जिक्र करना होगा एनएससीएन का जिसकी स्थापना सन १९८० में हुई थी। इसी संगठन से आगे चलकर सन १९८८ में भारत सरकार से हुए शिलांग समझौते के बाद अलग विचारों और नीतियों के कारण एक दूसरे संगठन एनएससीएन आइएम का जन्म हुआ। इसीके साथ मूल संगठन एनएससीएन भी एनएससीएन खापलांग बन गया। इस तरह नागालैंड में आतंक के ये दो स्तम्भ हो गए जिनके बीच प्रदेश की आम जनता को लगातार पिसना पड़ा है। एनएससीएन आइएम की मूल मांग ग्रेटर नागालैंड की स्थापना की थी। इस संगठन की ताकत को इसीसे समझा जा सकता है कि इसकी फ़ौज में तकरीबन साढ़े चार हजार लड़ाके हैं। इसे चीन, अमेरिका और हालिया दौर में पाकिस्तान के ख़ुफ़िया ब्यूरो आइएसआई से भारत में आतंरिक अशांति फैलाने के लिए लगातार मदद भी मिलती रही। साथ ही नक्सलियों की ही तरह इस संगठन को भी स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन हासिल है। इस संगठन के साथ समझौते की बुनियाद सन १९९७ में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार और इस संगठन के बीच वार्ता के द्वारा हुआ। इसके बाद वार्ता के दौर चलते रहे और फिर करते-धरते ८० दौर की वार्ता के बाद आज यह समझौता एक शक्ल ले लिया है। हालांकि अभी संसद सत्र चलने के कारण सरकार ने इस समझौते के होने की प्रक्रिया और शर्तों आदि को फ़िलहाल सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन बाद में सार्वजनिक करने की बात कही गई है। अतः जब यह प्रक्रिया और शर्तें सार्वजनिक होंगी तो यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार ने एनएससीएन आइएम की कौन-कौन सी मांगें मानी हैं और किन बिन्दुओं पर संगठन को झुकना पड़ा है। यह भी देखना होगा कि सरकार ने एनएससीएन  की अरुणाचल, असम और मणिपुर के कुछ हिस्सों को एकीकृत कर ग्रेटर नागालैंड बनाने की मांग का क्या किया है ?
दबंग दुनिया

अब खैर यह बातें तो देर-सबेर देश के समक्ष आएंगी ही, लेकिन फ़िलहाल महत्व की बात ये है कि यह ऐतिहासिक समझौता हो गया जिससे देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक की धमक में कुछ कमी आने की संभावना जताई जा रही है। यह उग्रवादी संगठन अब प्रगति की मुख्यधारा से जुड़ेगा जिससे नागालैंड में न केवल शांति आएगी वरन उसके विकास की रफ़्तार भी बढ़ेगी। साथ ही पूर्वोत्तरवासियों जो अबतक खुद को देश से कटा हुआ और अलग-थलग सा समझते रहे हैं, के मन में भी इस समझौते के बाद संभवतः यह विश्वास जगे कि वे इसी देश के नागरिक हैं और देश की सरकार को उनकी भी उतनी ही फ़िक्र है जितनी देश के अन्य नागरिकों की। तो कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सरकार का यह समझौता बेहद ऐतिहासिक, महत्वपूर्ण और दूरगामी है। इस समझौते को देखते हुए एक उम्मीद यह भी जगती है कि कहीं इसी तरह से नक्सल समस्या से भी पार पाया जा सके।
कल्पतरु एक्सप्रेस
  बहरहाल, यह समझौता तो हो गया, मगर साथ में कुछ सवाल भी हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या इस समझौते के बाद पूर्वोत्तर में वाकई में आतंक की धमक समाप्त हो जाएगी और वहां शांति का स्थापन हो जाएगा ? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि अभी विगत अप्रैल महीने में एनएससीएन-खापलांग जिससे सन २००१ में ही वाजपेयी सरकार द्वारा शांति समझौता किया गया था, ने संभवतः संघर्ष विराम का उल्लंघन कर दिया। यह वही मामला है जिसमे भारतीय सुरक्षाबल के जवानों की एक टुकड़ी पर हमला किया गया जिसमे कि १८ जवान मारे गए और १८ घायल भी हुए। फिर बाद में बदला लेने के लिए भारतीय सेना ने म्यांमार में घुसकर उग्रवादियों का सफाया किया। आशंका जताई गई है कि सेना की टुकड़ी पर हुए इस हमले में एनएससीएन-खापलांग का ही हाथ था। दरअसल बात यह है कि सन २००१ में खापलांग के साथ समझौता करने के बाद भारत की सरकारों द्वारा इस गुट की काफी उपेक्षा की जाती रही है और इसकी तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।  क्योंकि इस दौरान सरकार ने अपना अधिकाधिक ध्यान दूसरे गुट यानि एनएससीएन- आइएम से शांति समझौता करने की तरफ रखा । ऐसे में अब जब सरकार ने एनएससीएन-आइएम से भी समझौता कर लिया है तो इस शंका से इंकार करना कठिन है कि खापलांग के मन में अपने प्रति हो रही उपेक्षा के कारण आक्रोश का भाव जन्म लेगा। तिसपर उसको भड़काने और सहयोग देने के लिए चीन, पाकिस्तान जैसे भारत के बाह्य शत्रु मौजूद ही हैं। ऐसे में संभव है कि वो फिर पूरी तरह से हथियारों की तरफ लौट जाय। जैसा कि सेना पर हुए पिछले हमले में आशंका भी जताई गई है। अतः उचित होगा कि सरकार एनएससीएन-आइएम के साथ शांति समझौते पर बेशक आगे बढ़े मगर दूसरे गुट खापलांग को भी गंभीरता से ले। सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि वह गलत शक्तियों के हाथ की कठपुतली बनकर फिर पूर्वोत्तर के लिए शांति का संकट न खड़ा करे। क्योंकि पूर्वोत्तर की शांति तभी संभव है जब ये दोनों उग्रवादी गुट पूरी तरह से हथियारों का त्याग कर विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। अब चूंकि फ़िलहाल पूर्वोत्तर के दोनों आतंकी गुटों के साथ सरकार के समझौते हो गाए हैं, तो ऐसे में सरकार को पूर्वोत्तर की शांति के सम्बन्ध में ज़रा सा भी खतरा नहीं लेना चाहिए।

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