गुरुवार, 25 जुलाई 2019

पुस्तक समीक्षा - नक्सलवाद की परतों को उधेड़ता उपन्यास [वर्धा विश्वविद्यालय की पत्रिका 'पुस्तक वार्ता' में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

राजीव रंजन प्रसाद का उपन्यास ‘लाल अंधेरा’ पिछले पांच दशकों से देश की छाती पर किसी नासूर की तरह बनी हुई नक्सलवाद की समस्या के आगाज, विकास, प्रभाव, नेटवर्क आदि विविध पहलुओं की एक दिलचस्प प्रस्तुति है। इस उपन्यास में न केवल देश भर में व्याप्त सशस्त्र नक्सलवाद की परतों को उघाड़ा गया है, बल्कि परोक्ष ढंग से इसका समर्थन करने वाले शहरी नक्सलवाद की भी जमकर कलई खोली गयी है। कथानक की बुनावट कुछ ऐसे हुई है कि एक रौ में बहते हुए पाठक धीरे-धीरे नक्सलवाद के जंगल से नगर तक व्याप्त पूरे चक्रव्यूह को परत दर परत अपने सामने बेपर्दा पाता है। उपन्यास की कहानी कई टुकड़ों और अनेक पात्रों के बीच बिखरी हुई है। इसके अधिकांश पात्र, नक्सलवाद की समस्या के अलग-अलग पक्षों एवं किसी न किसी समाज या वर्ग विशेष के प्रतिनिधि पात्र हैं।

कहानी का सूदू नामक पात्र आजाद भारत में रजवाड़ों की व्यवस्था की समाप्ति के पश्चात् बस्तर के आदिम समाज की अवस्था का एक चित्र खींचता है। बस्तर के अंतिम शासक प्रवीरचंद भंजदेव के सियासी चक्रव्यूह का शिकार होकर मारे जाने के पश्चात् खुद को उनकी प्रजा मानने वाले आदिमों की लोकतान्त्रिक भारत में क्या दशा हुई, अपना घरबार छोड़ यत्र-तत्र भागकर उन्हें किस तरह संघर्षपूर्ण जीवन बिताना पड़ा, सूदू का चरित्र आदिम समाज की इस ऐतिहासिक त्रासदी को उकेरकर रख देता है। यह अंश देखिये जब सूदू अपनी व्यथा-कथा बताते हुए कहता है, ‘राजमहल छूटा तो घर भी छूट गया। कितने दिन जंगल-जंगल भटका। किसी गाँव में सो गया, कुछ मिला तो खा लिया। फिर मैं दंतेवाड़ा आ गया। उधरिच्च पता चला कि बैलाडीला में लोहा निकालने के लिए पहाड़ को खोद रहे हैं... वहाँ और भी मजदूर थे। हम सबको ट्रक में भरकर किरन्दूल ले गए। वहीं पर लेबर कैम्प में सिर रखने को जगह मिल गया। पत्थर तोड़ने लगे तो खाने के लिए मिलने लग गया...’ समझना आसान है कि आजाद भारत की सियासत के चक्रव्यूह में भोले-भाले आदिमों को किस कदर पिसना पड़ा। मगर इस मुसीबत को अपनी मेहनत से धता बताकर वे जस-तस जीवन को एक लय देने में लगे रहे। लेकिन जब उन्हें लगा कि स्थिति कुछ ठीक हो रही है और उन्होंने जरा सपने देखने शुरू ही किए थे कि उनके बीच तथाकथित क्रांतिदूतों यानी नक्सलियों का आगमन हो गया। इसी तथ्य को उजागर करते हुए सूदू कहता है, ‘मैं बुधरी को बहुत प्यार किया। बहुत अच्छे से रखा। उसके दिल का सब किया। तबतक सबकुछ ठीक चलता रहा, जबतक दादा लोग हम लोग के गाँव में नहीं घुसे थे।’ यहाँ ‘दादा लोग’ का तात्पर्य नक्सलियों से ही है। सरकार की उपेक्षा के कारण पहले से ही त्रस्त आदिमों के जीवन में नक्सली अत्याचार और शोषण का कैसा अमानवीय रूप लेकर आए, उपन्यास में इसका बाखूबी चित्रण किया गया है। सूदू के बेटे-बेटी, सोमारू और सोमली, की नक्सलवाद के कारण जो स्थिति होती है, वो भी विचित्र ही है। सोमारू जहां सुरक्षा बालों के विशेष दस्ते में चला जाता है, तो वहीं सोमली नक्सली लड़ाका बन जाती है। इन पात्रों के जरिये लेखक ने नक्सलवाद के बीच पिस रहे आदिम जीवन की विचित्र विडम्बनाओं को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है।
प्रो. नीलिमा, जूही, डॉ रत्नेश, पत्रकार शिवेश, छात्र साकेत ये वो पात्र हैं, जो एक ख़ास विचारधारा से प्रभावित बौद्धिक वर्ग द्वारा बुने जाने वाले शहरी नक्सलवाद के चक्रव्यूह से रूबरू करवाते हैं। जूही का चेहरा एक समाजसेवक का है, जो जगदलपुर से एनजीओ चलाती है। लेकिन जब पुलिस द्वारा नक्सलियों को मुठभेड़ में ढेर किया जाता है, तो मुठभेड़ को फर्जी बताकर पुलिस के खिलाफ माहौल बनाने लगती है। माहौल बनता है, तो दिल्ली से एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा प्रो. नीलिमा के नेतृत्व में एक तथ्यान्वेषी दल (फैक्ट फाइंडिंग टीम) मामले की जांच के लिए बस्तर भेजा जाता है। नीलिमा तथ्यों की जांच करने आती है, लेकिन बस्तर में पहुँचने पर वो आदिमों को नक्सलियों के समर्थन का पाठ पढ़ाने लगती है। उसकी बात का विरोध करता है सोयम और नक्सलियों के हाथों मारा जाता है। नीलिमा पर इल्जाम आता है, लेकिन फिर किस तरह शहरी नक्सलवादी गिरोह उसे बचाने के लिए मीडिया को  हथियार बनाकर काम करता है, उसकी एक बानगी उपन्यास के इस अंश में मिल जाती है जब जूही नीलिमा से कहती है, ‘तुम्हारे पति संपादक हैं न... नीलिमा!! हम बस्तर से चीख रहे हैं, कम चर्चा में आते हैं, तुम दिल्ली में खांसती भी हो तो वायरल फ़ैल जाता है। जो बात मैं कल पीसी में बोलने जा रही हूँ, वही दिल्ली के अखबारों में हेडलाइन्स होनी चाहिए। प्ले विक्टिम कार्ड डिअर...’

जेएनयू में नया-नया पढ़ने पहुंची अपराजिता तब चौंक जाती है जब उसके सामने सीनियर छात्र साकेत द्वारा ‘महिषासुर शहादत दिवस’ की परिकल्पना प्रस्तुत की जाती है। वो सोचती है, ‘कोई नवरात्रि ऐसी नहीं जिसमें वो व्रत न रखती हो। जेएनयू में एडमिशन के बाद भी इसबार वो पूरे नौ दिन उपवास में रही थी। उसे लगता था कि जिस प्रगतिशील माहौल में वो रह रही है, उसमें भी आस्था की अपनी जगह विद्यमान है। लेकिन क्या अब उसे महिषासुर को भी जिंदाबाद करना पड़ेगा?’ फिर भी इस विषय पर वो उपलब्ध तथ्यों के आधार पर जब तर्कों के साथ ऐसे दिवस का प्रतिवाद करती है, तो किसी तार्किक जवाब की बजाय यह सुनने को मिलता है, ‘तुम संघियों की तरह बात कर रही हो। यह मनुवादियों की भाषा है।’ उसके सिगरेट न पीने को स्त्री-स्वतंत्रता के प्रश्न से जोड़ने वाला साकेत जब उसके देह के भूगोल को टटोलने की कोशिश करने लगता है, तो उसे समझते देर नहीं लगती कि ख़ास विचारधारा से प्रेरित इन कथित प्रगतिशीलों की नजर में स्त्री-मुक्ति का चिंतन देह के दायरे तक ही सिमटा हुआ है। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि अपराजिता के साथ साकेत का व्यवहार हो या जंगल में रुक्मती के साथ की जाने वाली आदिरेड्डी की बर्बरता हो, इससे एक बात एकदम साफ़ हो जाती है कि बन्दूक के दम पर सबके बीच समानता लाने की बात करने वाले नक्सली हों या शहरों में बैठे उन्हिकी तरह समानता के पैरोकार उनके हिमायती बौद्धिक, स्त्रियों को लेकर दोनों की दृष्टि एक ही समान है। दोनों की नजर स्त्री के शरीर के पार नहीं देख पाती। बहरहाल, अपराजिता और साकेत, इन दो पात्रों के जरिये लेखक ने यह विषय बड़े स्पष्ट ढंग से रखा है कि कैसे जब एक ख़ास विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू में कोई नया छात्र पहुँचता है, तो उसका ब्रेनवाश करने की कोशिश चलने लगती है। अपराजिता जैसे अपनी जड़ों से जुड़े छात्र इस खेल को समझकर खुद को बचा लेते हैं, बाकी जाने-अनजाने इसका हिस्सा बन जाते हैं।
शिवेश एक पत्रकार है जो मीडिया में जमे इस गिरोह का प्रतिनिधित्व करता पात्र है। उसे जब पैसे के गड़बड़झाले के कारण नौकरी से निकाला जाता है, तो वो इसे अपनी आवाज को दबाने की कोशिश के रूप में प्रचारित करने में लग जाता है। खबर बन जाती है कि ‘बस्तर में पत्रकारों का काम करना असंभव’। ऐसे ही और भी अनेक पात्र हैं जो हमारे सामने नक्सलवाद के विविधवर्णी रूपों और उससे पीड़ित होने वालों की कहानी रखते जाते हैं।
चूंकि इस उपन्यास का जो विषय है, ऐसे विषयों की बड़ी चुनौती यह होती है कि इसमें लेखक को अनेक विचाधाराओं के घमासान से जूझते हुए अपनी लेखनी की निरपेक्षता को कायम रखना पड़ता है। यह चुनौती राजीव के समक्ष भी रही होगी। लेकिन प्रशंसनीय है कि उन्होंने खुद को किसी विचारधारा के अंध-समर्थन या अंध-विरोध में उलझने से बचाते और पूर्वाग्रहों से बचते हुए प्रस्तुत विषय के साथ यथासंभव न्याय किया है।  उपन्यास का ये अंश उल्लेखनीय होगा, ‘लाल हो, नीला हो या कि भगवा या कोई और रंग वैचारिक राजनीति सभी करते हैं। ... लेकिन कोई भी लेफ्ट जितना आर्गनाइज्ड नहीं है। वे इंस्टिट्यूशंस पर गहरी पकड़ रखते हैं... बाकी सभी पक्ष खुद को अपने राजनीतिक साझीदार से काटकर दिखाने का प्रयास नहीं करते, लेकिन यहाँ तो वाम राजनीति भी करना है और निरपेक्षता का लेबल भी चाहिए।’ इस अंश में हम देख सकते हैं कि लेखक ने साफ़ तौर पर स्वीकारा है कि विचारधारा की राजनीति सब पक्ष करते हैं, लेकिन वे इस तथ्य को झुठला भी नहीं सकते कि आजादी के बाद ज्यादा समय तक संस्थाओं पर काबिज रहने के कारण वाम विचारधारा की इनपर बेहतर पकड़ कायम हो चुकी है। लेकिन इस अंश में राजीव की यथासंभव लेखकीय निरपेक्षता प्रकट हुई है, जिसे उन्होंने पूरे उपन्यास में बनाए और बचाए रखा है। वे कभी किसी विचारधारा के पक्ष में खड़े नहीं दिखते बल्कि एक लेखक के रूप में जो सही है, उसके साथ खड़े रहते हैं।   
उपर्युक्त बातों से जाहिर है कि इस उपन्यास का विषय पात्रों और घटनाओं के लिहाज से न केवल व्यापक बल्कि जटिल भी है। बावजूद इसके इसे राजीव की किस्सागोई का कमाल ही कहेंगे कि ये उपन्यास पढ़ते हुए कमोबेश किसी ‘थ्रिलर’ का सा मजा आता है। इसकी जटिलता और गंभीरता के कारण बहुत अधिक ऊब की स्थिति नहीं बनती। हालांकि कहीं-कहीं ऐसा लगता है जैसे लेखक भूल गए हों कि वे उपन्यास लिख रहे हैं और किसी शोध-ग्रन्थ की तरह तथ्यों-घटनाओं का सपाट वर्णन कर डाले हों।
उदाहरण के तौर पर सूदू के साक्षात्कार में जब प्रवीरचंद की चर्चा आती है, उसके बाद सूदू और साक्षात्कारकर्ता गायब हो जाते हैं, और लेखक खुद प्रवीरचंद का पूरा इतिहास किसी इतिहास ग्रन्थ की तरह खुद बताने लगते हैं। ऐसे ही इसी साक्षात्कार में जब सूदू नक्सलियों की चर्चा करता है, तो सचिन की सोच के बहाने जिस तरह से लेखक द्वारा नक्सलवाद के विस्तृत इतिहास को बताया जाने लगता है, वो प्रभावी नहीं लगता। ये चीजें कहानी का हिस्सा नहीं, वरन उसपर थोपी गयी सी लगती हैं। ऐसा नहीं कह रहे कि उपन्यास में तथ्यों को रखने का ये तरीका चलता नहीं है। किसी वृहद् उपन्यास में इस तरह की प्रस्तुति एक हद तक चल सकती है, लेकिन 120 पन्ने के लघु उपन्यास में इस तरह का वर्णन होना, उसकी प्रभावोत्पादकता को कम ही करता है। लेखक ये बातें यदि कहानी में पिरोकर या पात्रों के मुंह से सामने लाते तो उपन्यास और अधिक प्रभावी बन सकता था।
भाषा की बात करें तो बस्तरिया पात्रों के संवाद की भाषा में वहाँ की क्षेत्रीयता का पुट डालने की कोशिश की गयी है, जो प्रभावी प्रतीत होता है। आज जब बहुत-से नए लेखकों द्वारा हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों का न केवल धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा बल्कि उसे सही साबित करने के लिए तरह-तरह की दलीलें भी गढ़ी जा रही हैं, ऐसे में राजीव जैसे लेखकों का यथासंभव अंग्रेजीमुक्त हिंदी लिखना और प्रभावी ढंग से लिखना संतोष पैदा करता है।
कुल मिलाकर यह उपन्यास बन्दूक लेकर खड़े प्रत्यक्ष नक्सलियों की क्रूरता के साथ-साथ अलग-अलग बौद्धिकता के आवरण में छिपे अप्रत्यक्ष नक्सलियों के पूरे नेटवर्क को भी सामने लाता है। जो पाठक इस नक्सलवाद पर गंभीर किताबों से परहेज करते हैं, उन पाठकों को रोचक ढंग से इस विषय की व्यापक समझ प्रदान करने के लिहाज से यह उपन्यास एक महत्वपूर्ण कृति है।

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