- पीयूष द्विवेदी भारत
हिंदी
के एक कवि हैं मंगलेश डबराल। वर्ष 2015 में पुरस्कार वापसी प्रकरण के दौरान
पुरस्कार वापस करने को लेकर चर्चा में आए थे, लेकिन इसके बाद एक लम्बे समय से उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उन्होंने
कुछ नया रचा हो,
उसपर
कोई विमर्श हुआ हो, ऐसी
किसी तरह की कोई बात उनके विषय में सुनने में नहीं आई। लेकिन अभी पिछले दिनों
अचानक एक फेसबुक पोस्ट लिखकर वे नकारात्मक रूप से ही सही, चर्चा में आ गए। उन्होंने लिखा, ‘हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास
बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन
सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद
होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है।लेकिन हिंदी में अब सिर्फ 'जय श्रीराम' और 'बन्दे मातरम्' और 'मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान' जैसी चीज़ें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की
मुझे बहुत ग्लानि है। काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता!’ डबराल की पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर इसको लेकर लेखकों, साहित्य में रुचि लेने वाले सामान्य लोगों के
बीच चर्चाओं-बहसों का दौर शुरू हो गया। ज्यादातर मुद्दों की तरह इसपर भी दो खेमे
बन गए। एक खेमा डबराल के विरोध में तो दूसरा उनके बचाव में जुट गया। विरोधियों को
ज्यादा आपत्ति उनकी ग्लानि वाली बात पर थी। लोग सवाल उठा रहे थे कि जिस भाषा ने इन
कविवर को इतना मान-सम्मान दिया, आज उसमें लिखने को लेकर ये ग्लानि व्यक्त करने जैसी कृतघ्नता कैसे कर
सकते हैं। वहीं बचाव करने वाले पोस्ट को अभिधा की बजाय व्यंजना में समझने की बात
कहते हुए डबराल के पक्ष में दलीलें देने लगे। हालांकि हिंदी के विषय में
पूर्वाग्रहजनित मनमाफिक धारणाएँ प्रस्तुत करते हुए उसमें लिखने के प्रति ग्लानि
व्यक्त करने में कौन-सी व्यंजनात्मकता छुपी है, ये बहुत विचार करने पर भी समझ में नहीं आता। बहरहाल, विवाद बढ़ता देख कविवर ने अपनी पोस्ट संपादित
करते हुए उसमें से चुपचाप ग्लानि वाली बात हटा दी है। लेकिन क्या इस पोस्ट का केवल
इतना ही हिस्सा आपत्तिजनक है, जो इसे हटाकर डबराल सवालों से बच जाना चाहते हैं। वास्तव में, ये पूरी पोस्ट ही भ्रामक, तथ्यहीन और कुंठाओं की उपज है।
कहानी, कविता, उपन्यास जैसी विधाओं की मृत्यु की घोषणा एवं अनर्गल ढंग से हिंदी को
सांप्रदायिक करार देने की कोशिश इस पोस्ट की सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात है। मंगलेश
डबराल को स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर उन्होंने किस आधार पर हिंदी के साम्प्रदायिकरण
का दावा किया है?
यह
भी कि उक्त तीन प्रमुख विधाओं को मृत बताने के पीछे उनके पास क्या तर्क, क्या तथ्य हैं? क्या आज इन विधाओं में जो साहित्य लिखा जा रहा है, उसको उन्होंने सम्यक प्रकार से पढ़ा है?
ये
आवश्यक नहीं कि जिसे वे बेहतर साहित्य मानते हों, वो ही बेहतर हो और जो उनकी दृष्टि में उत्तम न हो, उसे अस्वीकार दिया जाए। साहित्य किसी एक
व्यक्ति की थाती नहीं, पूरे
समाज की एक परम्परा होता है। विधाओं की मृत्यु की घोषणा करने से पूर्व यह बात
मंगलेश डबराल को सोचनी चाहिए थी। वे आज के लेखन पर तर्कों के साथ सवाल खड़े कर सकते
थे, मगर उसे मृत घोषित कर देना कदापि उचित नहीं है।
किसी
विधा के जीवित होने का प्रमाण क्या है? यही न कि उसमें कितना साहित्य रचा जा रहा है और उसे कितनी स्वीकृति मिल
रही है। सो हिंदी उपन्यास और कहानी आज भी बड़ी मात्रा में रचे जा रहे हैं व समकालीन
समस्याओं, चुनौतियों व जीवन की जटिलताओं को अभिव्यक्त
करने के सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित हैं। विषयवस्तु से लेकर भाषा-शैली तक इन
विधाओं ने पूर्व की तुलना में बहुत विकास किया है। आज वरिष्ठ लेखक नरेंद्र कोहली
की कलम से ‘वरुणपुत्री’ जैसा पुरातनता, आधुनिकता, पुराण
और विज्ञान के साथ-साथ फैंटेसी को भी समाहित किया उपन्यास निकल रहा है। वरिष्ठ
लेखिका चित्रा मुद्गल किन्नरों पर केन्द्रित ‘पोस्ट बॉक्स नम्बर- 203 नाला सोपारा’ की रचना की हैं। रत्नेश्वर जैसे लेखक भी हैं, जिन्होंने ग्लोबल वार्मिंग जैसी विश्वव्यापी
समस्या पर शोध के साथ ‘रेखना
मेरी जान’ लिखा है और आगे पानी पर एक शोधपूर्ण उपन्यास
लाने में जुटे हैं। ये सब हाल के वर्षों में आए कुछ उपन्यासों के नाम हैं, ऐसी और भी अनेक कृतियाँ इस दौरान आई हैं, इन उदाहरणों का आशय बस इतना है कि वर्तमान समय
में हिंदी उपन्यास का फलक लगातार विस्तार को प्राप्त हो रहा है। नए लेखक भी लिख और
बिक दोनों रहे हैं तथा अपने साहित्यिक काल के निर्माण में जुटे हैं। हिंदी कहानी
भी अलग-अलग प्रयोगों के साथ अपनी भूमिका का संतोषजनक निर्वहन कर रही है। हालांकि
इन विधाओं के साथ कुछेक चुनौतियाँ व समस्याएँ भी हैं, मगर इनके अस्तित्व पर कोई संकट हो, ऐसा बिलकुल नहीं है।
अब
बात हिंदी कविता की करें तो यह ठीक है कि आज उसकी दशा कहानी व उपन्यास जैसी विधाओं
की अपेक्षा बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। हिंदी में कविताएँ रची तो आज भी खूब जा
रही हैं, लेकिन उनमें कविता के वो तत्व नहीं दिखाई देते
जिनके जरिये वो जनसामान्य से सहज ही जुड़ाव स्थापित कर लेती थी। आज मुख्यधारा की
हिंदी कविता केवल बौद्धिक चारदीवारी के भीतर विमर्श की वस्तु बनकर रह गयी है।
वास्तव
में एक विधा के रूप में हिंदी कविता के विनाश की शुरुआत वामपंथी विचारधारा से
प्रभावित प्रगतिवादी युग से ही हो गयी थी। प्रगतिवादी युग में हिंदी कविता को
छायावाद के कल्पना-लोक से हकीकत की जमीन पर लाकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ने के नाम
पर वामपंथी रचनाकारों द्वारा जिस तरह से इसकी शिल्पगत कसौटियों को एक-एक कर भंग
करने की कु-परम्परा का सूत्रपात किया गया, उसीने हिंदी कविता की वर्तमान दुर्दशा की पृष्ठभूमि का निर्माण किया।
हिंदी कविता की इस दुर्दशा में आज उसके हाल पर व्यथित हो रहे मंगलेश डबराल और उनके
साथी कवियों का दोष भी कम नहीं है। इन्होने जो काव्य-रचना की है, वो केवल इन लोगों के आपसी विचार-विमर्श तक
सीमित है, जनसामान्य के लिए उसमें कोई आकर्षण नहीं है। इस
दुर्दशा के बावजूद हिंदी कविता अभी मरी नहीं है, वो जीवित है और मंचीय कवियों के कंठ में सांस ले रही है और उम्मीद है
कि देर-सबेर यहीं से वो अपने अस्तित्व का नया अध्याय लिखेगी। अतः मंगलेश डबराल यदि
हिंदी साहित्य की समृद्ध की दिशा में कुछ नहीं कर पा रहे तो कम से कम उन्हें
विधाओं की मृत्यु का बेसुरा राग गाना तो बंद ही कर देना चाहिए।
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