बुधवार, 24 जुलाई 2019

हिंदी का अर्थहीन विरोध (दैनिक जागरण में प्रकाशित)


  • पीयूष द्विवेदी भारत

पिछले दिनों एमडीएमके महासचिव और राज्यसभा सांसद वाइको ने हिंदी को एक जड़हीन भाषा बताते हुए दावा किया कि संसद में बहस का स्तर गिरने का मुख्य कारण हिंदी को थोपा जाना है। इसी क्रम में वाइको ने यह अनोखा ज्ञान भी दे डाला कि हिंदी में कोई साहित्य नहीं है। साथ ही, उन्होंने संसद में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि के हिंदी में अपनी बात रखने पर भी आपत्ति जताई। यूँ तो दक्षिण भारतीय नेताओं का हिंदी विरोध कोई अनोखी बात नहीं है, लेकिन यहाँ हिंदी विरोध में वाइको ने जो तर्क दिए हैं, वे न केवल अमान्य और निराधार हैं, बल्कि हास्यास्पद भी हैं। इन तर्कों को देखते हुए यही कह सकते हैं कि या तो वाइको वाकई में हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्ध परम्परा के प्रति अज्ञानता का शिकार हैं अथवा अपने अंधविरोध में जानबूझकर इसे अनदेखा कर रहे हैं।
सबसे पहले बात वाइको के हिंदी में कोई साहित्य न होने के दावे की करें तो उल्लेखनीय होगा कि प्रख्यात आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल सहित अधिकांश विद्वानों ने हिंदी साहित्य का जो कालक्रम प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार थोड़े-बहुत अंतर के साथ हिंदी भाषा और साहित्य की आयु लगभग हजार वर्ष हो चुकी है, जिसमें आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल के क्रम में इसकी विकासयात्रा चली है। यहाँ स्थानीय भाषाओं के कट्टर समर्थकों का तर्क होता है कि इस हजार वर्ष में केवल आधुनिक काल का साहित्य ही वर्तमान हिंदी भाषा यानी खड़ी बोली का साहित्य है, शेष साहित्य स्थानीय भाषाओं यथा ब्रज, अवधी आदि का है। लेकिन ऐसा तर्क देने वाले वही लोग हैं जिन्हें हिंदी भाषा के वास्तविक स्वरूप की पहचान नहीं है।
भारत जिस प्रकार विविधताओं में एकता वाला देश है, इसकी भाषा के रूप में हिंदी भी वैसी ही है। इस देश की अधिकांश भाषाओं की तरह संस्कृत से जन्मी हिंदी ने भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरुप का अनुकरण करते हुए अपने भीतर देशी-विदेशी अनेक भाषाओं-बोलियों के शब्दों का समावेश किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी भाषा और साहित्य के स्वरूप व परम्परा को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘हमारे व्यावहारिक और भावात्मक जीवन से जिस भाषा का सम्बन्ध सदा से चला आ रहा है, वह पहले चाहें जो कुछ कही जाती रही हो, अब हिंदी कही जाती है। यह वही भाषा है जिसकी धारा कभी संस्कृत के रूप में बहती थी, फिर प्राकृत और अपभ्रंस के रूप में और इधर हजार वर्ष से इस वर्तमान रूप में जिसे हिंदी कहते हैं, लगातार बहती चली आ रही है। यह वही भाषा है जिसमें सारे उत्तरीय भारत के बीच चन्द्र और जगनिक ने वीरता की उमंग उठाई; कबीर, सूर और तुलसी ने भक्ति की धारा बहाई; बिहारी, देव और पद्माकर ने श्रृंगार रस की वर्षा की, भारतेंदु, प्रतापनारायण मिश्र ने आधुनिक युग का आभास दिया और आज आप व्यापक दृष्टि फैलाकर सम्पूर्ण मानव जगत के मेल में लानेवाली भावनाएं भर रहे हैं।
हिंदी के प्रभाव में स्थानीय बोलियों-भाषाओं का ह्रास हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। अपने-अपने क्षेत्र विशेष में उनका स्वतंत्र अस्तित्व यथावत कायम है। हिंदी के जरिये बस इन सबका राष्ट्रीयकरण हुआ है; इन्हें एक राष्ट्रीय पहचान मिली है। आज जो संघर्ष हिंदी अंग्रेजी से कर रही है, हिंदी के न होने की स्थिति में वो संघर्ष इन क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों को करना पड़ता और इस स्थिति में जैसे अतीत में बिखराव के कारण अंग्रेजों के समक्ष हमारे देशी राजा नष्ट हो गए थे, ठीक उसी तरह अंग्रेजी के सामने ये भाषाएँ-बोलियाँ भी नष्ट हो गयी होतीं। अतः हिंदी की छत्रछाया में ये भाषाएँ-बोलियाँ अंग्रेजी के प्रकोप से सुरक्षित हैं, ये बात इनके समर्थकों को समझनी चाहिए। 
हिंदी साहित्य की रचनात्मक समृद्धि पर नजर डालें तो हजार वर्षों की इसकी परम्परा में से आदि, मध्य, आधुनिक किसी एक कालखंड को भी यदि उठा लिया जाए तो हिंदी साहित्य की समृद्धि का आभास कराने लायक पर्याप्त रचनाएं मिल जाएंगी। फिर चाहें वो आदिकाल का विख्यात रासो साहित्य हो या भक्तिकाल में बाबा तुलसी द्वारा रचित भारतीय समाज के लिए पूज्य हो चुका श्रीरामचरितमानसहो, कृष्ण की बाल-लीलाओं को जनमन तक पहुंचाने वाला सूरसागर हो, सामाजिक विसंगतियों और रूढ़ियों पर चोट करता कबीर-साहित्य हो, श्रृंगार और अध्यात्म का महाकाव्य पद्मावतहो या रीतिकाल में गागर में सागर भरती बिहारी की सतसई हो अथवा आधुनिक काल में भारतेंदु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी, दिनकर आदि अनेक रचनाकारों की एक से बढ़कर एक रचनाएँ हों, ये सब हिंदी के समृद्ध साहित्यकोश का ही प्रमाणन करती हैं। वाइको को इनमें से किसी एक काल के साहित्य का भी जरा-सा अध्ययन कर लेना चाहिए, इसके बाद हिंदी की साहित्यिक समृद्धि को लेकर उनका भ्रम अवश्य दूर हो जाएगा।     
जहां तक बात संसद में बहस का स्तर गिरने की है, तो इसमें जरूर सच्चाई है। इसमें कोई दोराय नहीं कि अब हमारी संसद में सारगर्भित बहस और विचार-विमर्श कम, बेमतलब की हंगामेबाजी एवं आरोप-प्रत्यारोप ज्यादा देखने को मिल रहे हैं। लेकिन इसके लिए हिंदी को दोष देना पूरी तरह से अनर्गल बात है। संसद में हिंदी में बात रखने वाले अनेक राजनेता रहे हैं, जिनके वक्तव्य आज भी संसदीय भाषणों के इतिहास में अग्रणी स्थान रखते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। अटल जी के भाषण भारतीय संसदीय परम्परा के इतिहास में  सर्वाधिक लोकप्रिय भाषण माने जा सकते हैं। इनके अलावा वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज जैसे नेता संसद में प्रायः हिंदी में ही अपनी बात रखते रहे हैं और इनके भाषण तथ्य-तर्क-प्रस्तुति हर मामले में उत्कृष्ट भी होते हैं। संसद में यदि बहस का स्तर गिरा है तो इसके पीछे अन्य कारण हैं जैस कि अब हमारे ज्यादातर माननीय अध्ययन की संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। पहले के नेता पढ़ने-लिखने में जिस तरह की रुचि लेते थे, अब के नेताओं में वो गुण कम हुआ है। अब बिना अध्ययन और चिंतन-मनन के किसी भी भाषा में बात रखी जाए, वो प्रभावी नहीं हो सकती। अतः ये भाषा की नहीं, ज्ञान की समस्या है। अतः वाइको को यदि वाकई में संसद में बहस का स्तर गिरने की चिंता है तो वे इसमें अपनी हिंदी विरोध की राजनीति घुसाने की बजाय सांसदों में पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रयास करें। कुछ नहीं तो कम से कम हिंदी साहित्य का अध्ययन कर अपनी ज्ञानवृद्धि तो कर ही लें।

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