मंगलवार, 22 जनवरी 2019

शीला दीक्षित की वापसी का मतलब [राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव की घड़ियाँ करीब आ रही हैं, देश के सियासी गलियारे में उथल-पुथल भी तेज होती जा रही। पक्ष हो या विपक्ष, सभी राजनीतिक दल अपने-अपने समीकरण साधने में लग गए हैं। यूपी में सब वैर भुलाकर सपा-बसपा एक हो रहे तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में एक अलग ही मोर्चा आकार लेने में लगा है। इन्ही सबके बीच दिल्ली कांग्रेस में एकबार फिर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वापसी हुई है। गौरतलब है कि इस महीने की शुरुआत में दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। अब उनकी जगह शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गयी है।

गौरतलब है कि लगातार पंद्रह साल दिल्ली की गद्दी पर काबिज रहने वाली कांग्रेस को गत विधानसभा चुनाव में एक भी सीट पर जीत नहीं मिल सकी। लोकसभा चुनाव में भी उसे खाली हाथ ही रहना पड़ा था। 2017 में हुए दिल्ली नगर निगम चुनावों में भी कांग्रेस, भाजपा और आप के बाद तीसरे पायदान पर रही। जाहिर है कि दिल्ली में कांग्रेस की हालत एकदम बेजान हो चुकी है। ऐसे में यदि कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने लोकसभा चुनाव से पूर्व अस्सी वर्षीय शीला दीक्षित पर भरोसा जताया है, तो ये यूँ ही नहीं है बल्कि इसके पीछे दो बड़े कारण नजर आते हैं।

पहला कारण है कि दिल्ली में इस समय कांग्रेस के पास ऐसा और कोई चेहरा नहीं है, जिसपर वो लोकसभा चुनाव में संगठन को खड़ा करने के लिहाज से भरोसा कर सके। शीला दीक्षित के हटने के बाद अजय माकन को युवा नेतृत्व के भारी शोर के साथ दिल्ली की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, लेकिन नतीजा ढांक के तीन पात ही रहा। अजय माकन व्यक्तिगत तौर पर तो सक्रिय नजर आए, लेकिन उनकी सक्रियता का संगठन में कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखा। माकन के नेतृव में न तो दिल्ली में कांग्रेस को सांगठनिक मजबूती ही मिल सकी और न ही पार्टी को कोई राजनीति सफलता हासिल करने में ही कामयाबी मिली। जाहिर है, युवा नेतृत्व की इस विफलता के बाद अब पार्टी के पास वरिष्ठ और अनुभवी शीला दीक्षित की तरफ वापस लौटने से बेहतर कोई विकल्प नहीं था।   

दूसरे कारण की बात करें तो वो है राज्य में शीला दीक्षित की सफलता का इतिहास। गौरतलब है कि इससे पूर्व 1998 में जब शीला दीक्षित ने दिल्ली कांग्रेस की जिम्मेदारी संभाली थी, उस समय भी पार्टी आज ही की तरह बेहद खराब दौर से गुजर रही थी। 1996 और 1998 में लोकसभा चुनावों सहित 1993 के दिल्ली विधानसभा तथा 1997 के नगर निगम चुनावों की लगातार पराजय से कांग्रेस हताशा में डूबी थी। ऐसे समय में दिल्ली में कांग्रेस को जीत दिलाकर शीला दीक्षित मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुईं। इसके बाद 2003 और 2008 के विधानसभा चुनावों में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस का विजयरथ अबाध गति से चलता रहा। दिल्ली में ढांचागत विकास के मामले में शीला दीक्षित  का कार्यकाल बेहतर माना जाता है। मेट्रो का शुभारम्भ इन्हिकी सरकार के कार्यकाल में हुआ था, तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। आज बात-बेबात केंद्र सरकार से उलझते रहने वाले केजरीवाल के लिए यह एक नजीर की तरह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार होने पर भी शीला दीक्षित का उससे कभी कोई विवाद या मतभेद नहीं हुआ और न ही उन्होंने केजरीवाल की तरह अधिकार न होने का रोना ही रोया।

बहरहाल, अपने अंतिम कार्यकाल के आखिरी वर्षों में स्त्रियों की सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था को लेकर शीला सरकार आलोचनाओं के घेरे में रही। दिसंबर 2012 में घटित निर्भया काण्ड  ने चुनाव से ठीक पूर्व शीला दीक्षित के विरुद्ध व्यापक जनाक्रोश पैदा किया। चूंकि केंद्र में भी कांग्रेस की ही सरकार थी, इसलिए शीला दीक्षित अपने बचाव में यह तर्क भी नहीं दे सकती थीं कि दिल्ली पुलिस का नियंत्रण उनके पास नहीं है। इसके अलावा केंद्र की संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार से उपजे जनाक्रोश का खामियाजा भी कुछ हद तक शीला दीक्षित को भुगतना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि 2013 के चुनाव में उनका विजयरथ रुक गया और कांग्रेस राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी बनी। इसके बाद आप के साथ कांग्रेस की गठबंधन की सरकार बनना और 49 दिन बाद गिर जाना आदि जो कुछ हुआ वो सर्वविदित इतिहास है। लेकिन आज जब एकबार फिर कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने शीला दीक्षित पर भरोसा दिखाते हुए उन्हें दिल्ली की जिम्मेदारी सौंपी है, तो उनके लिए आगे की राह बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाली है।

दिल्ली में शीला दीक्षित की सबसे बड़ी चुनौती बेजान पड़ चुकी कांग्रेस में नयी जान फूंकना है। कहा जाता है कि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने उस ख़ास तबके पर कब्जा जमा लिया जो कभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था। लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने अपने मुफ्त पानी-बिजली, मोहल्ला क्लिनिक जैसे वादों के जरिये कांग्रेस के इस वोट बैंक को अपने पाले में कर लिया। हालांकि अब जब केजरीवाल सरकार सत्ता में लगभग चार साल बिता चुकी है, तो इन वादों के ठीक प्रकार से पूरे न होने को लेकर उसपर सवाल भी उठते रहते हैं। साथ ही सीसीटीवी, मुफ्त वाई-फाई आदि कई वादे पूरे करने की दिशा में में तो इस सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया है। ढांचागत विकास कार्य लगभग ठप्प ही पड़ गए हैं। केजरीवाल सरकार के प्रति जनता ने अपनी नाराजगी वर्ष 2017 में हुए दिल्ली नगर निगम चुनावों में जाहिर भी की थी, जो इन दो वर्षों में ठण्डी हुई होगी, इसके आसार नजर नहीं आते। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आम आदमी पार्टी के लिए भी चुनावी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। ऐसे में, शीला दीक्षित के लिए असली चुनौती भाजपा की ही होगी। उन्होंने कहा जरूर है कि इसबार दिल्ली में मोदी मैजिक काम नहीं करेगा, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस कथन को पूरा करने के लिए सांगठनिक स्तर पर वो क्या और किस तरह के प्रयास करती हैं। हालांकि शीला दीक्षित की वापसी के बाद भाजपा को भी दिल्ली को लेकर विशेष रूप से गंभीर हो जाना चाहिए। मनोज तिवारी जैसे अराजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले एक अनुभवहीन प्रदेश अध्यक्ष के भरोसे शीला दीक्षित का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

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