शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सामाजिक संरचना के खिलाफ है समलैंगिकता [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आज से लगभग चार साल पहले २ जुलाई, सन २००९ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में समलैंगिक संबंध को जायज बताया था जिसे आज सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नकार दिया गया ! तत्कालीन दौर में उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि ये संबंध भी सामाजिक स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं, अतः इन्हें आपराधिक नही माना जा सकता ! उसवक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को जहाँ दुनिया भर में सराहा गया, वहीँ हिंदू, मुस्लिम आदि धार्मिक संगठनों द्वारा इस फैसले का विरोध करते हुए इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई ! तबसे ये मामला सर्वोच्च न्यायालय में था ! आज इसी मामले में फैसला सुनते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक संबंधों को धारा-३७७ के तहत अपराध की श्रेणी में बताया गया है ! हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में क़ानून में बदलाव की बात संसद और सरकार के ऊपर छोड़ दी है ! पर समलैंगिक संबंधों को आपराधिक घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने आज समलैंगिक संबंधो के संदर्भ में कई सवालों को जन्म दे दिया है ! साथ ही, समलैंगिक सबंधों के औचित्य और आवश्यकता पर भी एकबार पुनः विचार करने की जरूरत महसूस होने लगी है ! अगर विचार करें तो आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पारम्परिक रूप से चले आ रहे स्त्री-पुरुष या नर मादा संबंधों के बीच हमारे इस समाज में समलैंगिक संबंधों की क्या आवश्यकता है ? और इनका क्या औचित्य है ?  इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए सर्वप्रथम हमें समझना होगा कि आखिर समलैंगिक संबंध क्या है तथा ये हमारे समाज और संस्कृति के कितने अनुकूल है ! समलैंगिक संबंध दो समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच मुख्यतः शारीरिक व कुछ हद तक मानसिक संबंध कायम करने की एक आधुनिक पद्धति है ! अर्थार्थ इस संबंध पद्धति के अंतर्गत दो स्त्रियां अथवा दो पुरुष आपस में पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं ! अब अगर इस संबंध पद्धति को भारत की सामाजिक व कानूनी व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखें तो इस तरह के संबंध के लिए न तो भारतीय समाज के तरफ से अनुमति है और न ही क़ानून की तरफ से ! भारत के संविधान में इस तरह के संबंधो को अप्राकृतिक बताते हुए इनके लिए सज़ा तक का प्रावधान किया गया है ! भारतीय संविधान की धारा-३७७ के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को आपराधिक माना गया है और इसके लिए दस साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा का प्रावधान है ! सन २००९ में उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद ये बातें गौण हो गई और कानूनी रूप से समलैंगिक संबंध स्वीकृत हो गए ! पर अभी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद से कानूनी दृष्टिकोण से समलैंगिक संबंध फिर से अपराध हो चुके हैं ! ये तो बात हुई कानून की ! अब अगर एक नज़र समाज पर डालें तो सामाजिक दृष्टिकोण से भी सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंध कायम करने को सही माना जाता है, वो भी तब जब स्त्री-पुरुष वैवाहिक पद्धति से एकदूसरे को स्वीकार चुके हों ! हालांकि आज के इस आधुनिक युग में लोगों, खासकर शहरी युवाओं द्वारा शारीरिक संबंध के लिए वैवाहिक अनिवार्यता की इस सामाजिक मान्यता को दरकिनार करके संबंध बनाए जा रहे हैं ! पर ऐसा करने वालों की संख्या अभी काफी कम है !

  अगर विचार करें तो स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित होने के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं – प्रजनन एवं शारीरिक संतुष्टि ! इनमे भी प्रजनन का स्थान सबसे पहले आता है ! क्योंकि सभी संबंधों की बारी प्रजनन के बाद ही आती है ! अगर प्रजनन ही नही होगा तो फिर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक उत्तरदायित्व, एवं प्राकृतिक संतुलन अर्थविहीन हो जायेगा । संविधान में समलैंगिक सम्बन्ध को अप्राकृतिक कहने का एक कारण यह भी है कि समाज में प्राकृतिक एवं परम्परागत रूप से जो सम्बन्ध स्थापित होते आ  रहें हैं और जिन सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है, उनको  समाज में उत्पन्न यह नया सम्बन्ध खुली चुनौती दे रहा है । अतः ये कहना कत्तई ग़लत नहीं होगा कि समलैंगिकता प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचना को ही चुनौती दे रहा है । समलैंगिक रिश्तों के भावी परिणामो की अनदेखी करते हुए  इसके वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति के आधार पर इसे क़ानूनी एवं सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर देना शायद हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल होगी । बात चाहें समाज की स्थापना की हो या सम्बन्ध की स्थापना की या फिर प्राकृतिक संतुलन की ही क्यों न हो, इन तीनों का स्रोत प्रजनन ही है और समलैंगिक सम्बन्धों में प्रजनन की सम्भावनाओं को प्राकृतिक  रूप से प्राप्त करना असम्भव नज़र आता है । जाहिर है कि प्रजनन की योग्यता  से हीन समलैंगिक संबंध दो समलिंगी लोगों की शारीरिक इच्छाओं को पूर्ण करने का जरिया भर है ! इसके अलावा फ़िलहाल इसका कोई अर्थ नही है, ये पूरी तरह से निराधार है ! बेशक, आज इस समलैंगिक संबंध के समर्थकों की संख्या काफी कम है, पर जिस तरह से इसके समर्थक बढ़ रहे हैं, वो आने वाले समय में हमारी सामाजिक व्यवस्था को व्यापक तौर पर प्रभावित या दुष्प्रभावित करेगा ! लिहाजा आज हमें समलैंगिक संबंध को अपराध घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान फैसले का पूरी एकजुटता से स्वागत करना चाहिए ! साथ ही सरकार को भी चाहिए कि वो न्यायालय के इस फैसले के महत्व को समझते हुए इससे सम्बंधित धारा ३७७ के क़ानून में कुछ खासा बदलाव न करे ! बल्कि उस क़ानून में ऐसे प्रावधान करे जिससे कि इस तरह के अप्राकृतिक, अनावश्यक और निराधार संबंध स्थापित करने वालों पर समुचित नियंत्रण स्थापित किया जा सके ! 

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