शनिवार, 8 जुलाई 2017

धार्मिक धारावाहिकों का गिरता स्तर [नवभारत टाइम्स में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
अभी कुछ समय पहले कृष्ण-कथा पर आधारित एक धारावाहिक शुरू हुआ। इसमें कंस की वेश-भूषा और संवाद ऐसे रचे गए हैं कि हंसी और गुस्सा दोनों आता है। अव्वल तो कंस को टकला रखा गया है। राजा होने के बावजूद वह बिना मुकुट के क्यों रहता है, कहना कठिन है। वह बात-बात पर कॉमिडी करता है। विष्णु और लक्ष्मी एक दूसरे से गली के लड़के-लड़कियों की तरह हंसी-मजाक करते दिखाई देते हैं। लक्ष्मी जी जब तब मुंह फुलाकर कह देती हैं- जाइए प्रभु, मैं आपसे बात नहीं करूंगी इसके बाद विष्णु भगवान किसी नौटंकी वाले आशिक की तरह उन्हें मनाने लगते हैं। संवादों की भाषा ऐसी है कि लगता है सास-बहू का कोई धारावाहिक चल रहा है। बीच-बीच में अचानक ही कोई ऐसा दृश्य जाता है कि मूल कथा से परिचित लोग बरबस ही कह उठते हैं कि अरे ये कहां से हो गया, यह तो कथा में है ही नहीं।

जरा दूरदर्शन युग को याद करें। रामानंद सागर ने रामायण और बीआर चोपड़ा ने महाभारत धारावाहिक का निर्माण किया था। तब काफी कम घरों में टीवी होता था। इन धारावाहिकों को देखने के लिए टीवी वाले घरों में पूरे मोहल्ले का जमावड़ा हो जाता था। लोग दूर-दूर से इनको देखने के लिए चले आते थे। क्या आज के धार्मिक सीरियल उनके आगे कहीं भी ठहर पाते हैं? इन दोनों निर्माता-निर्देशकों ने अपने समय के सर्वश्रेष्ठ लेखकों से पटकथा और संवाद लिखवाए थे। एक लंबा समय शोध और अध्ययन पर लगाया था। तभी तो राही मासूम रजा द्वारा लिखे गए महाभारत के संवाद आज भी लोगों को याद हैं। लोग उनके कलाकारों में वास्तविक चरित्र की झलक देखते थे। उदाहरण के तौर पर रामानंद सागर के रामायण के राम-सीता (अरुण गोविल और दीपिका) जब शूटिंग करके स्टूडियो से निकलते तो बाहर खड़े लोग उनके पैर छूने लगते। इसकी तुलना हाल के टीवी धारावाहिक सिया के रामके एक दृश्य से कीजिए।

नवभारत टाइम्स
प्रसंग राम-सीता के विवाह से पहले का है। राम अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के साथ खड़े हैं। अचानक उनकी निगाह घोड़े की टांग पर पड़ती है, जहां पट्टी बंधी है। राम पट्टी खोलकर देखते हैं और सेवक से उसके बारे में पूछते हैं। सेवक बताता है कि घोड़ा मिथिला नगरी पहुंचा तो राजकुमारी सीता ने अपना आंचल फाड़कर इसके जख्म पर पट्टी बांधी थी। इसके बाद तो पट्टी देखते हुए प्रभु राम ठंडी-ठंडी आहों के साथ सीता-सीता करते हुए ऐसे रोमांटिक मूड में खो जाते हैं जैसे वे रामायण के राम नहीं, ‘बड़े अच्छे लगते हैंके राम कपूर हों। यानी माहौल एक औसत बॉलिवुड फिल्म का हो जाता है। लेखक-निर्देशक को इस बात का जरा भी अहसास नहीं कि वह भारतीय संस्कृति का प्रतीक माने जाने वाले महाकाव्य को प्रस्तुत कर रहा है, जिससे करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी है।

कमोबेश यही हाल काफी दिनों तक चले शिव पर आधारित धारावाहिक महादेवका भी देखने को मिला, जिसमें शिव अक्सर आंसू ही बहाते रहते थे। कभी पत्नी के वियोग में तो कभी संसार के कष्ट देखकर। लगता ही नहीं था कि ये पुराणों में वर्णित उन्हीं महायोगी शिव की कहानी है, जिन्हें सभी विकारों से निर्लिप्त बताया गया है। एक समय बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड तोड़ सफलता पाने वाली फिल्म जय संतोषी मां से प्रेरणा लेकर पिछले दिनों इसी नाम का एक धारावाहिक शुरू हुआ। इसमें तो सारी हदें ही पार कर दी गईं और देवियों और देवताओं को एकता कपूर के सीरियलों की तरह साजिशें रचते हुए दिखाया जाने लगा। किसी गरिमामय चरित्र को पर्दे पर कैसे उतारा जाए, इसकी कोई तमीज निजी चैनलों को नहीं है। उनके लिए सोप ऑपेरा महज एक बिकाऊ माल है।

आज टेलिविजन ने तकनीक के मामले में काफी प्रगति की है। ग्राफिक्स से लेकर डिजाइनिंग के स्तर तक तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं। ऐसे-ऐसे दृश्य रचे जा रहे हैं, जिन्हें देखकर हम दंग रह जाते हैं। लेकिन धारावाहिकों से हमारा कोई जुड़ाव नहीं हो पाता। उनमें चमक-दमक खूब होती है, पर कथा के मूल तत्वों जैसे चरित्र, संवाद आदि के स्तर पर कोई दम नहीं दिखता। इससे भी बुरी बात यह कि मूल कथा से अनभिज्ञ निर्माता-निर्देशक और पटकथा लेखक दर्शकों में कौतूहल जगाने के लिए कथा में ऐसे-ऐसे प्रयोग करते हैं, जो इन धारावाहिकों को फूहड़ बना देते हैं। दरअसल आज हमें फास्ट फूडकी ऐसी लत लग चुकी है कि जल्दी के चक्कर में हम अधपका भी खा ले रहे हैं। धार्मिक धारावाहिकों के हास्यास्पद होने का मुख्य कारण यही है।

शुरुआती दौर के धार्मिक धारावाहिक सप्ताह में एक या दो दिन आते थे, इसलिए उनके हर एपिसोड पर काम करने के लिए पूरा समय होता था। लेकिन आज धार्मिक धारावाहिक प्रतिदिन आते हैं। नतीजा यह कि कई दफे एक ही दिन में कई-कई एपिसोड शूट कर लिए जाते हैं। इस हड़बड़ी में कुछ अच्छा होने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती। इससे इस बात का भी अंदाजा मिलता है कि बेहतरीन प्रतिभाएं फिल्मों में ही हैं, टीवी में नहीं। अभी कुछ-कुछ समय बाद कोई कोई अच्छी फिल्म जाती है, मगर ऐसा एक भी धारावाहिक नहीं बन पा रहा है जो लोगों को कुछ दिन याद रह सके। अति व्यावसायिकता ने टीवी को तमाशा बना छोड़ा है। टीवी प्रड्यूसर्स सोचते हैं कि धार्मिक सीरियलों की मांग हमेशा रहने वाली है और लोग आस्था के नाम पर इन्हें देख ही लेंगे। उन्हें याद रखना चाहिए कि अगर एक बार दर्शकों ने मुंह मोड़ लिया तो फिर उन्हें वापस लाना आसान नहीं होगा।

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