शनिवार, 20 सितंबर 2014

बेटियों को भी दें जीने का अधिकार [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
आज जब हम विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नई-नई बुलंदियां छू रहे हैं और प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम गढ़ रहे हैं, ऐसे समय में कन्या भ्रूण परिक्षण जैसी विसंगति का हमारे समाज में मौजूद होना कहीं ना कहीं हमारा सर शर्म से झुका देता है. विद्रूप तो यह है कि कन्या भ्रूण परिक्षण की ये विसंगति समाज के सिर्फ अशिक्षित वर्ग तक ही नहीं है, बल्कि बहुधा शहरी  व शिक्षित समाज भी इसकी चपेट में है. हालांकि कन्या भ्रूण परिक्षण अंकुश लगाने के लिए सन १९९४ में 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनिन अधिनियम' नामक क़ानून बनाया गया जिसके तहत प्रसव पूर्व लिंग परिक्षण को अपराध की श्रेणी में रखते हुए सजा का प्रावधान भी किया गया. इस क़ानून के तहत लिंग परिक्षण व गर्भपात आदि में सहयोग करने को भी अपराध की श्रेणी में रखा  गया है तथा ऐसा करने पर ३ से ५ साल तक कारावास व अधिकतम १ लाख रुपये जुर्माने की सजा का भी प्रावधान किया गया है. लेकिन इस क़ानून के लागूं होने के तकरीबन २० वर्ष बाद कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर कोई विशेष अंकुश लग पाया हो, ऐसा नहीं कह सकते. आंकड़ों पर गौर करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार देश में छः साल तक की आबादी में १००० लड़कों पर महज ९१४ लड़कियां ही पाई गईं. यहाँ गौर करने योग्य बात ये है कि ये आंकड़े सिर्फ छः साल तक के बच्चों के हैं. अतः यह बच्चों में ये लैंगिक असमानता कहीं ना कहीं  दिखाती है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या किस तरह से चल रही है. कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या आदि के ही संबंध में अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के सभी राज्यों की सरकारों से यह पूछा गया है कि कन्या भ्रूण परिक्षण रोकने की दिशा में अबतक की सरकारों द्वारा क्या और किस दिशा में प्रयास किए गए हैं. दरअसल, न्यायालय के सम्मुख कन्या भ्रूण परिक्षण सम्बन्धी तमाम याचिकाएं थीं, उन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायालय की तरफ से ये कहा गया. न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की पीठ ने इस मसले पर देश की सभी राज्य सरकारों से निश्चित समय में हलफनामा दाखिल करने को कहा है. जम्मू व काश्मीर की आपदा के मद्देनज़र वहाँ की सरकार को छः सप्ताह तो देश के बाकी राज्यों की सरकारों को हलफनामा दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया है. न्यायालय की तरफ से सख्ती के साथ यह भी कहा गया है कि पेश हलफनामा आधा-अधूरा या महज कोरम पूरा करने वाला नहीं, तथ्य व जानकारी से पूर्ण होना चाहिए. अब यह तो देखने वाली बात होगी कि राज्य सरकारों की तरफ से इस संबंध में क्या और कैसे तथ्य पेश किई जाते हैं. एक सवाल तो ये भी प्रासंगिक हो ही जाता  है कि राज्य सरकारों के पास इस संबंध में कोई ठोस आंकड़े व जानकारियां होंगी भी या नहीं ?  अब सरकारों की तरफ से जो भी तथ्य रखे जाएँ, पर इतना तो तय है कि कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की रोकथाम को लेकर देश में सरकारी स्तर सिवाय एक क़ानून बनाने के कोई खास प्रयास नहीं हुआ है. फिर चाहें बात केन्द्र सरकारों की करें या राज्य सरकारों की, इस संबंध में सबके आँख-कान लगभग बंद ही रहे हैं. केन्द्र सरकार ने तो इस इस संबंध में १९९४ में  एक क़ानून बनाकर ही अपने दायित्वों की इतिश्री समझ ली. उसे इस बात की आवश्यकता कभी महसूस नहीं हुई कि एक निश्चित अवधी के उपरांत उस क़ानून की समीक्षा  भी होनी चाहिए कि वो कितने प्रभावी ढंग से कार्य कर रहा है व उसमे सुधार की कोई गुंजाइश तो नहीं है. रही बात राज्य सरकारों की तो उन्हें भी ऐसे मसलों पर ध्यान देने के लिए फुरसत कहाँ है. निष्कर्ष ये है कि कन्या भ्रूण परिक्षण के मसले पर केन्द्र से लेकर राज्य तक सभी सरकारों का रुख अपेक्षाकृत काफी उदासीन रहा है और इस मसले को लेकर कभी कोई विशेष गंभीरता कहीं नहीं दिखी है.
     अगर विचार करें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की इस विसंगति के मूल में हमारी तमाम सामाजिक रूढियां व परम्पराएं ही हैं. आज के इस आधुनिक व प्रगतिशील दौर में भले ही लड़कियां लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हों, बल्कि कई मायनों में लड़कों से आगे भी हों. इसमे भी संदेह नहीं कि लड़कियों के इस उत्थान से समाज में उनके प्रति व्याप्त सोच में में काफी बदलाव भी आया है. लेकिन बावजूद इन सबके आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति अपनी सोच  को पूरी तरह से बदल नहीं पाया है. यह सही है कि इसमें अधिकांश ग्रामीण व अशिक्षित लोग ही होते हैं, लेकिन तमाम शहरी व शिक्षित लोग भी इससे अछूते नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो कम से कम दहेज जैसी रूढ़ीवादी प्रथा की चपेट में तो भारतीय समाज के शिक्षित-अशिक्षित दोनों तबके ही हैं. कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या के लिए दहेज की ये रूढ़िवादी प्रथा एक बहुत बड़ी कारण है. इसी प्रकार और भी तमाम ऐसी सामाजिक प्रथाएँ, कायदे और बंदिशे हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराई को उपजाने में खाद-पानी का काम कर रही हैं. इन बातों को देखने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या आपराधिक प्रवृत्ति से अधिक कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के सह से उत्पन्न हुई एक बुराई है. अतः यह भी स्पष्ट है कि इसका समाधान भी सिर्फ क़ानून के जरिए नहीं किया जा सकता. इस बुराई के समूल खात्मे के लिए आवश्यक है कि इसको लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास किया जाए. केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वो इस संबंध में शहर से गाँव तक सब जगह जागरूकता कार्यक्रम चलाएँ जिनके जरिए लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि दुनिया में आने से पहले ही एक जान को नष्ट करके वो न सिर्फ अपराध कर रहे हैं, बल्कि पाप के भागी भी रहे हैं. उन्हें लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं जैसी बातों से भी अवगत कराना चाहिए. इन सबके अलावा दहेज आदि सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में भी कानूनी स्तर से लेकर जागरूकता लाने के स्तर तक ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है. अगर सरकारें  चाहें तो वे ये सब  कर सकती है. उसके पास शक्ति है, संसाधन हैं, जरूरत है तो बस मजबूत इच्छाशक्ति की. और इस देश की लड़कियों के लिए सरकार को उस मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देना चाहिए.

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