बुधवार, 17 सितंबर 2014

पारदर्शिता से क्यों भाग रहे राजनीतिक दल [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) क़ानून के अंतर्गत लाने के संबंध में केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा देश के छः राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को एकबार फिर नोटिस भेजकर जवाब माँगा गया है. दरअसल, यह पूरा मामला कुछ यों है कि पिछले साल आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल की एक याचिका पर केंद्रीय सूचना आयोग की तरफ से देश के छः राजनीतिक दलों कांग्रेस, भाजपा, बसपा, राकांपा, भाकपा और माकपा को परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार से वित्तपोषण प्राप्त करने वाली  सार्वजनिक इकाई बताते हुए सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने को कहा  था. साथ ही, तत्कालीन दौर में इन सभी दलों को यह निर्देश भी दिया गया था कि वे अपने-अपने यहाँ लोक सूचना अधिकारी व अपीलीय प्राधिकारी की नियुक्त करें, जिससे कि आम लोग उनसे जुड़ी जानकारियां प्राप्त कर सकें. लेकिन, केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश को लेकर हमारे समूचे राजनीतिक महकमे में बेहद असंतोष और विरोध दिखा. किसी जनहित के मुद्दे पर जल्दी  एकसाथ खड़े न होने वाले ये राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश के खिलाफ हाथ से हाथ मिलाए खड़े दिखे. बड़े कुतार्किक ढंग से उनका कहना था कि वे कोई सार्वजनिक इकाई नहीं, स्वैच्छिक संघ हैं. अतः उन्हें सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता. ऐसा करना उनकी निजता के विरुद्ध है. तमाम राजनीतिक दाव-पेंच और बयानबाजियां हुईं और आखिर भाकपा को छोड़  किसी भी दल ने तय समयावधि में केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देश का पालन नहीं किया. और बड़ी विडम्बना तो ये रही कि राजनीतिक दलों के ऐसे रुख पर सूचना आयोग भी कोई कार्रवाई करने की बजाय सन्नाटा मार गया. ये मामला पुनः चर्चा में तब आया जब अभी कुछ समय पहले आरटीआई कार्यकर्ता आर के जैन ने याचिका डालकर कांग्रेस से यह जानकारी मांगी कि उसने (कांग्रेस ने) अपने यहाँ सूचना का अधिकार क़ानून लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं ? लेकिन, उनकी इस याचिका का कांग्रेस द्वारा कोई जवाब नहीं दिया गया, बल्कि उनकी अर्जी लौटा दी गई. इसके बाद आर के जैन ने इस संबंध में  दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की. इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग को यह आदेश दिया गया कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने के केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को न मानने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी पर छः महीने में कार्रवाई की जाए. न्यायालय के इस आदेश के बाद ही  आयोग ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत छहों राजनीतिक दलों के प्रमुखों को नोटिस भेजकर यह पूछा है कि राजनीतिक दलों के आरटीआई के दायरे में आने के आयोग के आदेश को न मानने के कारण आप  लोगों पर जांच क्यों न शुरू की जाय ? यह तो तय है कि हर राजनीतिक दल की तरफ से इस नोटिस पर तमाम कुतर्कपूर्ण जवाब दिए जाएंगे. क्योंकि, इस संबंध में कोई तार्किक जवाब किसी राजनीतिक दल के पास है ही नहीं. इस संबंध में केवल एक तर्क है कि राजनीतिक दलों को तुरंत सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आ जाना चाहिए  जो कि कोई राजनीतिक दल सहजता से स्वीकार नहीं सकता.
      यहाँ बड़ा सवाल यह है कि नैतिकता और शुचिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे राजनीतिक दल सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आने से इतना हिचक क्यों रहे हैं ? आखिर क्या वजह है कि वे इस पारदर्शितापूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनने से कतरा रहे हैं ? उनका ये रुख कहीं ना कहीं उनकी नीयत और चरित्र को संदेह के घेरे में लाता है साथ ही उनकी नैतिकता की भाषणबाजी के पाखण्ड को भी उजागर करता है. क्योंकि, अगर वे पूरी तरह से पाक साफ़ होते तो उन्हें सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आकर इस पारदर्शी व्यवस्था का हिस्सा बनने  में समस्या क्यों होती ?  अगर विचार करें तो सूचना का अधिकार के अंतर्गत न आने के पीछे इन  सभी राजनीतिक दलों की मुख्य समस्या यही प्रतीत होती है कि आर्थिक शुचिता के मामले में इन सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है. यूँ तो सभी दल अपने चंदे आदि के विषय में जानकारियां देते रहते हैं, लेकिन वे जानकारियां पूरी नहीं, आधी-अधूरी होती हैं. असल जानकारियां तो लगभग हर दल द्वारा छुपा ली जाती हैं. जिस काले धन को लेकर आज इतना हो-हल्ला मचा हुआ है, वैसे बहुतेरे काले धन का इस्तेमाल इन राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में किया जाता है, यह बात भी अब काफी हद सार्वजनिक है. ऐसे में, सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत आ जाने के बाद संभव है कि इन राजनीतिक दलों की ये तथा ऐसी ही और भी कुछ बेहद गुप्त जानकारियां सामने आने लगें. ऐसे में ऊपर से सफेदपोश बन रह इन राजनीतिक दलों की अंदरूनी कालिख जनता के सामने उजागर होने का खतरा भी पैदा हो जाएगा. ऐसे में उनके बचने का इतना ही उपाय होगा कि चुनावों में काले धन का इस्तेमाल ना करें जो कि इन राजनीतिक दलों के लिए संभव नहीं है. क्योंकि, चुनाव में किया जाने वाला इनका असीमित खर्च बिना काले धन के पूरा ही नहीं हो सकता. मुख्यतः इन्हीं बातों के कारण इन राजनीतिक दलों द्वारा सूचना का अधिकार के अंतर्गत आने से बचने की कवायद की जाती रही है. 
    उपर्युक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि पारदर्शिता से भागते ये राजनीतिक दल चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं.  ऐसे करके वे न सिर्फ जनता के मन में अपने प्रति शंकाओं के बीज बो रहे हैं, बल्कि खुद को अलोकतांत्रिक भी सिद्ध कर रहे हैं. उचित होगा कि ये  राजनीतिक दल सूचना का अधिकार से बचने की कवायद करने की बजाय स्वयं के चरित्र में सुधार लाएं और सिर्फ उच्च सिद्धांतों की भाषणबाजी न करें बल्कि उन्हें व्यवहार में भी उतारें.

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