शुक्रवार, 25 मार्च 2016

पुस्तक समीक्षा : प्रतिरोध की मुखरता से दहकते अशआर

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

आज प्रतिरोध की रचनाएँ तो जरूर लिखी जा रहीं हैं लेकिन, उनमे इस स्वर की अभिव्यक्ति मुखरता से होती कम ही दिखती  है। अतः इस मायने में अविनाश की गज़लों को विशेष कहा जा सकता है क्योंकि, उनके ग़ज़ल संग्रह जीवन कर्जा गाड़ी हैमें न सिर्फ मुख्य स्वर प्रतिरोध का है बल्कि इस स्वर की अभिव्यक्ति भी पूरी मुखरता के साथ हुई है। समाज से लेकर सियासत तक की विभिन्न विसंगतियों के  विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर अविनाश की गजलों में प्रत्यक्ष है। इसे ही उनकी गजलों की विशेषता भी कहा जा सकता है।
  
अविनाश की ग़ज़लों के प्रतिरोध का मुख्य लक्ष्य सत्ता और उसके इर्द-गिर्द होने वाली सियासत है। इसमें अपने वोटबैंक के लिए सियासत द्वारा सृजित सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका से लेकर धनबल-बाहुबल तक सभी कुछ को आइना दिखाने की  अविनाश ने ठीकठाक कामयाब कोशिश की है। ये कुछ अशआर देखे जा सकते हैं, जिनमे सत्ता के लिए हमारे सियासतदानों द्वारा रचे जाने वाले तमाम पाखंडों पर स्पष्ट रूप से करारा प्रहार देखने को मिलता  है।

नारे खूब उछाले जा
संसद में तू साले जा

चीनी की औकात नहीं
वादे कप में डाले जा

ऐसे ही, वे सियासतदानों के पक्ष-विपक्ष के रूप में एकदूसरे के विरोध की नूरा-कुश्ती की तरफ करारा कटाक्ष करते हुए लिखते हैं: 

अपनी-अपनी दाल गलाते हैं
आओ मिलकर सदन चलाते हैं

आपसदारी से सरकार चले
बारी-बारी आते-जाते हैं

इन अशआर को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि अविनाश की गज़ले सत्ता और सियासत पर किस हद तक हमलावर हैं। लगता है जैसे ये हर एक शेर सियासतदानों के चेहरे पर तमाचे रसीद कर रहे हैं। यही वो प्रतिरोध है, जिसकी आज कल की कविताओं में इतनी मुखरता से काफी कम अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। यह बाबा नागार्जुन और अदम गोंडवी जैसे रचनाकारों की काव्य परम्परा की मुखरता है, जो बिना किसी लाग-लपेट और अंकेत-संकेत के सीधे-सीधे अपने लक्ष्य पर जोरदार चोट करती है। सबसे अच्छी चीज कि कहीं नहीं लगता कि इस मुखरता के लिए अविनाश को कोई अतिरिक्त प्रयास या विरचना करनी पड़ी हो, वरन यही लगता है कि ये सहज ही उनकी ग़ज़लों में आ गयी है।
   
हालांकि अविनाश की गज़लें गाँव या शहर के किसी एक दायरे में कैद तो नहीं हैं मगर, उनका झुकाव कहीं न कहीं गाँव और ग्रामीण जीवन-शैली की तरफ ही अधिक प्रतीत होता है। या यूँ कहें कि आज के शहरी जीवन की अपेक्षा अपनी जड़ों की तरफ उनका आकर्षण अधिक दिखता है। वे लिखते हैं:

सपनों  के घर तक जाती हो, वैसी रेल कहाँ
गांवों में शहरों के जैसी रेलमपेल कहाँ

आज के बच्चे लैपटॉप, मोबाइल खोजते हैं
चोर-सिपाही, झिझ्झिर-कोना जैसे खेल कहाँ
  
ये अशआर अविनाश की ग़ज़लों में अभिव्यक्त अपनी जड़ों यानी गाँव से जुड़ाव को साफ़-साफ़ दिखाते हैं। हम देख सकते हैं कि शहरी जीवन की चकाचौंध और बेबात की भागमभाग से ऊबा कोई आदमी कैसे अपनी जड़ों यानी अपने गाँव की तरफ सुकून की उम्मीद से देखता है। शहर में जन्मे और पल-बढ़ रहे बच्चों की  मोबाइल, लैपटॉप में उलझी जीवन-शैली भी उन्हें सालती है। ऐसे ही और भी तमाम अशआर हैं, जिनका झुकाव ग्रामीण जीवन की तरफ है। ऐसे ही, प्यार जैसी चीज को लेकर हमारे समाज की संकुचित सोच और खापशाही पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं:

मै प्यार से डरता हूँ क्योंकि आप का डर है
आप राजी हों तो फिर माँ-बाप का डर है

माँ-बाप की मर्जी भी मुताबिक़ जो गई
चुपचाप ही रहता हूँ क्योंकि खाप का डर है
   
इन खूबियों के अलावा अविनाश की ग़ज़लों की अपनी कुछ खामियां भी हैं। ये खामियां कथ्य से लेकर शिल्प तक हर स्तर पर हैं। सत्ता और सियासत पर चोट करने में तो अविनाश मुखर रहे हैं मगर, कई एक जगहों पर वे एक रचनाकार की बजाय विचारधारा विशेष के अनुयायी की दृष्टि भी अपना लेते हैं, जो कि उनकी ग़ज़लों की धार को कमतर कर देता है। वे पूर्वाग्रहग्रस्त नज़र आने लगते हैं। यह ठीक है कि विचारधारा का चयन व्यक्ति का अपना अधिकार होता है और रचनाकार की भी कोई न कोई विचारधारा  होती है लेकिन रचना करते समय अगर उसकी विचारधारा रचना पर हावी होने लगे तो अक्सर रचना कमजोर हो जाती है। यह विचारधारा का हावी होना ही है, जो उनसे ऐसा अनावश्यक और अनुचित शेर भी लिखवा जाता है:

एक मारने, एक बचाने वाला लगता है
धुर दक्षिण और वामपंथ में कोई मेल नहीं
   
शिल्प के स्तर पर तो कई गज़ले बहर से भटकी हुई दिखती हैं तो कई में काफिया आदि की समस्या भी दृष्टिगत है। ये भावों से अतिशय लगाव होने पर शिल्प से समझौता कर लेने की आधुनिक प्रवृत्ति के कारण ही हुआ हो सकता है। साथ ही तमाम अशआर भर्ती के भी लिखे गए हैं, जिनका कोई आधार-औचित्य नहीं है।
  
उपर्युक्त खूबियों-खामियों को मिला-जुलाकर देखें तो कह सकते हैं कि बावजूद अनेक खामियों के अविनाश का ये ग़ज़ल संग्रह अपने एक गुण जो कि इसमें मौजूद मुखर प्रतिरोध है, के लिए पठनीय है। एक प्रकार के वैचारिक पूर्वाग्रह से कहीं न कहीं प्रभावित होने के बावजूद ये सियासत व समाज से सताए हर आदमी चाहे वो किसी भी विचारधारा का हो, को सुकून देने की ताकत रखता है।

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