- पीयूष द्विवेदी भारत
पंजाब केसरी |
अभी देश में बोर्ड परीक्षाओं का मौसम है। यूपी
आदि कई एक राज्यों में परीक्षाएं हो गई हैं तो कुछ में हो रही हैं और कुछ में आगे
होनी हैं। लेकिन, हर वर्ष की तरह ही इस वर्ष भी बोर्ड परीक्षाओं में जिस बात को
लेकर सर्वाधिक चर्चा है, वो है इनमे होने वाली नक़ल। प्रत्येक वर्ष राज्य सरकारों
और राज्य के शिक्षा बोर्ड द्वारा यह कहा जाता है कि वो नक़ल रहित और प्रमाणिक
परीक्षा करवाने के लिए पूरी व्यवस्था करेंगे लेकिन, उनकी ये व्यवस्था सिर्फ ढांक
के तीन पात ही साबित होती है। नक़ल कभी नहीं रूकती। इस साल भी बोर्ड परीक्षाओं में
नक़ल को लेकर कई तस्वीरें सामने आई हैं। यूपी सरकार के नक़ल पर सख्ती के तमाम दावों
के बावजूद वहां के कई परीक्षा केन्द्रों में कहीं दीवारों पर चढ़कर तो कहीं
खिडकियों आदि के जरिये लोग अपने बच्चों को नक़ल कराते दिखे तो कई एक परीक्षा
केन्द्रों पर खुलेआम छात्र-छात्राओं द्वारा किताब से देखकर नक़ल करने की तस्वीरें भी
सामने आई। एक आंकड़े के मुताबिक़ यूपी बोर्ड की इंटर की परीक्षा के पहले ही दिन २७६
नकलची छात्रों को पकड़ा गया। कहना न होगा कि यह अभी सिर्फ पकड़े गए छात्रों की संख्या है, अनगिनत
छात्र ऐसे होंगे जो जम के नक़ल करने बावजूद पकड़ में नहीं आ पाए होंगे। बिहार की बात
करें तो वो तो खैर नक़ल के लिए बदनाम ही रहा है। विगत वर्ष बिहार में दसवीं की
बोर्ड परीक्षा में नक़ल का ऐसा हल्ला मचा कि वहां के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने यह
तक कह दिया कि नक़ल रोकना उनके बस की बात नहीं, जिसपर उन्हें उच्च न्यायालय से
फटकार भी सुननी पड़ी थी। हालांकि पिछले साल से कुछ सबक लेते हुए इस साल बिहार सरकार
वहां नक़ल पर नकेल कसने के लिए पूरा जोर लगाने का दावा किया और इस वर्ष की
परीक्षाओं में संभवतः इसका कुछ असर भी दिखा लेकिन, फिर भी बिहार में कई एक जगहों
पर नक़ल करते हुए विद्यार्थी पकड़े गए। समझा जा सकता है कि यहाँ भी यूपी की ही तरह बहुत
से विद्यार्थी नक़ल करने के बावजूद पकड़ में नहीं आए होंगे। ऐसा नहीं है कि ये नक़ल
विद्यार्थी अपने घर से छिप-छिपा के करते हैं, अधिकांश नकलची विद्यार्थियों के
परिवाजनों का भी इसमे समर्थन व सहयोग होता है। अब जब अभिभावकों को ही नक़ल से कोई
गुरेज नहीं तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी ख़राब है। कितने विद्यार्थियों के
परिवारजन तो उनका दाखिला ही यही देखकर कराते हैं कि अमुक विद्यालय में नक़ल आदि की
व्यवस्था है या नहीं। परीक्षा के समय जब परीक्षा केंद्र का नाम सामने आता है तो
नकलची इस फिराक में लग जाते हैं कि परीक्षा केंद्र जिस विद्यालय में है, वहां कोई पहचान निकल जाए या
नक़ल की कोई व्यवस्था हो जाय। लड़कियों को तो में अब यह भी चिंता नहीं रहती क्योंकि, यूपी
बोर्ड में उनके लिए तो स्वकेंद्र (होम सेंटर) का नियम लागू है।
वैसे
नक़ल की इस तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि विद्यार्थियों की नक़ल की आवश्यकता को
देखते हुए परीक्षा केन्द्रों में नक़ल के लिए पूरा एक तंत्र बना पड़ा है। ये कहना
एकदम समीचीन होगा कि परीक्षा कक्षों के भीतर नक़ल का एक पूरा बाजार ही चलता है,
जहाँ विषयवार नक़ल की कीमत तय होती है, मोल-भाव होता है और परीक्षार्थी के रूप में
खरीददार होते हैं। अन्दर की स्थिति कुछ यूँ होती है कि परीक्षा शुरू होने से पहले
विद्यालय के कोई उच्च अधिकारी आते है और कुछ इस प्रकार की सामूहिक उद्घोषणा करते
हैं कि अगर परीक्षा उत्तीर्ण करनी है तो इतना ‘व्यवस्था शुल्क’ देना पड़ेगा। अब जिन
परीक्षार्थियों ने व्यवस्था शुल्क जो प्रायः विषय की कठिनता पर निर्भर करता है, दे
दिया, उनके लिए तुरंत नक़ल सामग्री आने लगती है और सम्बंधित विषय के अध्यापक प्रश्नों
को बोलकर भी हल कराने लगते हैं आदि इत्यादि तमाम व्यवस्थाओं के जरिये नक़ल प्रक्रिया
चल निकलती है। व्यवस्था शुल्क अदा किए सब परीक्षार्थी एक ही जगह झुण्ड में होकर
नक़ल पर्चियों का लाभ लेने लगते हैं। ऐसे में यदि बोर्ड से किसी जांच अधिकारी के
केंद्र पर आने की सूचना मिले तो फिर तो परीक्षा कक्ष में ऐसी भगदड़ मचती है कि
जैसे ये परीक्षा कक्ष नहीं, कोई युद्ध का मैदान हो। जिन परीक्षार्थियों के पास नक़ल
की पर्चियां आदि होती हैं, वे उन्हें अध्यापकों के पूर्व निर्देशानुसार मुहँ के
हवाले कर लेते हैं। कुछ इधर-उधर फेंक देते हैं। कुल मिलाकर जांच अधिकारी के आने तक
परीक्षा कक्ष की स्थिति ऐसी हो जाती है, जैसे इससे अधिक सभ्य न तो कोई परीक्षा कक्ष
होंगे और न ही परीक्षार्थी। और जांच अधिकारी के जाने के बाद जैसे ही अध्यापक संकेत
देते हैं, वैसे ही पुनः नक़ल-नारायण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इन सब वितंडों के
दौरान सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि जो कुछ एक काबिल और परिश्रम से पढ़े हुए परीक्षार्थी होते हैं, वे भी
परिक्षायोग्य वातावरण के अभाव में ठीक ढंग से परीक्षा नहीं दे पाते। यह स्थिति न
केवल शर्मनाक और चिंताजनक है, बल्कि राष्ट्र के भविष्य के सम्बन्ध में भयभीत भी
करती है।
अमर उजाला |
नक़ल की
इस समस्या का सबसे बड़ा कारण तो खैर विद्यार्थियों में मौजूद वह मानसिकता है, जो उन्हें
परिश्रम से बचने या शॉर्टकट से सफलता पाने के अनुचित सिद्धांत का रास्ता दिखाती है।
लेकिन इसके बावजूद सब दोष विद्यार्थियों को नहीं दे सकते। कारण कि हमारे विद्यालय
उनको उस स्तर की शिक्षा भी तो नहीं दे पाते कि वे बिना नक़ल के परीक्षा में बैठकर
अच्छे से उत्तीर्ण हो सकें। अगर विद्यालय उन्हें समुचित ढंग से शिक्षा दे तो शायद
उन्हें नक़ल की आवश्यकता ही न महसूस हो। मूल बात जिम्मेदारी की है कि यदि विद्यालय,
अभिभावक तदुपरांत विद्यार्थी सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी को समझ लें तो नक़ल की यह
समस्या स्वतः समाप्त हो जाएगी।
संदेह नहीं कि परीक्षाओं में नक़ल की इस समस्या से सर्वाधिक
प्रभावित राज्य यूपी और बिहार हैं। मध्य प्रदेश भी अब धीरे-धीरे इस कतार में शामिल
होता जा रहा है। यूपी-बिहार में तो आलम ये है कि इन राज्यों के नकलची विद्यार्थी
इस आधार पर साल भर आश्वस्त रहते हैं कि पढ़ें या न पढ़ें क्या फर्क पड़ता है! राज्य
में फलां पार्टी की सरकार है, फिर उत्तीर्ण तो हो ही जाएंगे। वैसे, नकलचियों की इस
सोच में काफी हद तक सच्चाई भी है क्योंकि, इन राज्यों की सरकारों द्वारा जब-तब
बोर्ड परीक्षाओं में ढिलाई बरतते हुए नक़ल की छूट दे-देकर ही नकलची विद्यार्थियों
के दिमाग में ऐसी सोच को स्थापित किया गया है। यहाँ तक कि राजनीतिक दलों का यह भी
एक गुप्त चुनावी एजेंडा ही होता है कि हमारी सरकार आई तो नक़ल की छूट रहेगी। बेशक
यह सवाल उठाया जा सकता है कि एक सरकार कैसे नक़ल जैसी चीज पर विराम लगा सकती है ?
यह भी कहा जा सकता है कि नक़ल सरकार की कोशिश से नहीं, अभिभावकों और विद्यालयों की
मजबूत इच्छाशक्ति से रुकेगी। यह बातें एक हद तक सही हैं, लेकिन हमें मानना होगा कि
सरकार बहुत शक्तिशाली होती है। उसके पास शक्ति और संसाधन होते हैं और अगर वह ठान
ले तो नक़ल पर भी नियंत्रण कर सकती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि १९९२ में
नक़ल को लेकर यूपी बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में सरकार द्वारा बेहद कड़ाई दिखाई गई
थी, जिसका परिणाम यह सामने आया था कि लड़का-लड़की मिलाकर केवल १४.७० प्रतिशत
विद्यार्थी ही उस वर्ष परीक्षा में उत्तीर्ण हो सके। उस वर्ष के बाद अगले कई
वर्षों तक वो कड़ाई जारी रही और उत्तीर्णता प्रतिशत का ग्राफ बहुत ऊपर नहीं उठ सका।
कहने का अर्थ यही है कि सरकार चाहे तो नक़ल पर नियंत्रण कर सकती है, बशर्ते कि वो इस
सम्बन्ध में दृढ इच्छाशक्ति का परिचय दे। नक़ल के सम्बन्ध में दंड के नियम कड़े किए
जाएं जैसे कि नक़ल होते पाए जाने पर न केवल विद्यार्थी बल्कि विद्यालय पर भी कड़ी
कार्रवाई हो। हर जगह निगरानी की व्यवस्था रहे। निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरा आदि
अत्याधुनिक तकनीकों का भी सहारा लिया जा सकता है। सरकार यदि करना चाहे तो ऐसे और
भी बहुत से तरीके हैं, जिनसे नक़ल पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।
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