शनिवार, 28 जनवरी 2017

पुस्तक समीक्षा : समय और समाज की सहज अभिव्यक्ति [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
अगर आप इस समय समाज की धारा में अपनी-सी लगने वाली भाषा और शैली के साथ बहना चाहते हैं, तो डॉ प्रदीप शुक्ल का नवगीत-संग्रह अम्मा रहतीं गाँव में आपके लिए पठनीय कृति है। इस संग्रह के नवगीत विषयों की व्यापक रूप से विविधता का समावेश किये हुए हैं। इसमें गाँव-शहर से लेकर देश और दुनिया तक की वर्तमान समस्याओं और चिंताओं को बड़े ही मार्मिक ढंग से उठाया गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ये नवगीत हमें आईना दिखाने का काम करते हैं; ऐसा आईना जो हमारे समय की विसंगतियों की ऐसी झाँकी प्रस्तुत करता है कि हमारी नज़रें झुक जाती हैं।
 
दैनिक जागरण
इस संग्रह का पहला और शीर्षक नवगीत अम्मा रहतीं गाँव में हम रूबरू होते हैं कि कैसे स्वार्थपरता और भौतिक सुख-सम्पन्नता के आगे संबंधों का महत्व गौण होता जा रहा है।छुटका रहता है विदेश में/ मँझला बहू के पाँव में/ बड़का रहता रजधानी में/ अम्मा रहतीं गाँव में ये पंक्तियाँ पर्याप्त हैं, यह समझने के लिए कि आज किस तरह से हमारे पारिवारिक संबंधों पर व्यक्तिगत सुख और स्वार्थ हावी होता जा रहा है। परन्तु, रचनाकार केवल पारिवारिक संबंधों की इस त्रासदी तक ही सीमित नहीं रहता, उसका ध्यान पूरे समाज पर भी है।इक्कीसवी सदी की लोरी नवगीत में एक कामकाजी महिला के उसके दुधमुंहे बच्चे के साथ वार्तालाप के माध्यम से प्रदीप ने समाज के अनेक रूपों को उकेर दिया है। इस नवगीत की ये पंक्तियाँ - ‘पूरे दिन ऑफिस में थी मैं/ चाँद नहीं ला पायी/ तुझे देखने को मैं चंदा/ दौड़ी-भागी आयी/ पीछे थे कुछ काले साये।।।’ - शहरों में कामकाजी महिलाओं द्वारा अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए किये जाने वाले संघर्ष की त्रासदी को समझने के लिए पर्याप्त हैं। भारतीय समाज में मौज़ूद स्त्री को केवल देह समझने की रूढ़िवादी मानसिकता के संकटों को झेलते हुए, घर और कार्यालय के बीच सामंजस्य स्थापित करने की ज़द्दोज़हद में उलझी शहरी स्त्रियों की करुण-कथा ये पंक्तियाँ बेहद सादे किन्तु प्रभावशाली ढंग से कह जाती हैं। पर रचनाकार की दृष्टि केवल भारतीय समाज तक भी केन्द्रित नहीं है, वो दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी भी ख़बर लेता है। दुनिया में आतंकवाद तथा महाशक्ति देशों की आपसी रंजिशों में मचे हिंसा के तांडव पर अभी बचे हैं हम नवगीत में रचनाकार ने व्यंजनात्मक शैली को अपनाते हुए गहरा कटाक्ष किया है।  ‘गोली, बम, बंदूकों से तुम/ कबतक मारोगे/ थक जाओगे बंधू तो फिर/ शायद हारोगे/ सीधे एटम बम गिरवाओ/ अभी बचे हैं हम नवगीत की ये पंक्तियाँ व्यंजनात्मक और कटाक्षपूर्ण अवश्य हैं, किन्तु परमाणु शक्ति के साम्राज्य के बीच विश्व की भयावहता की समस्या पर सहज ही ध्यान खींचती हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि प्रदीप के नवगीतों के विषय कितने व्यापक हैं।

भाषा की बात करें तो वो सीधी-सरल और बोलचाल में प्रयोग होने वाली हिंदी है, जिसमें उर्दू-फ़ारसी-अंग्रेजी विभिन्न भाषाओँ के शब्दों का बेहिचक प्रयोग हुआ है। लेकिन, आंचलिकता प्रदीप की भाषा में लगभग स्थायी तौर पर दिखायी देती है। उनके अधिकांश नवगीतों में आंचलिक शब्दों और बातचीत के आंचलिक लहज़े का दर्शन सहज ही हो जाता है। यह आंचलिकता केवल प्रदीप की भाषा की प्रमुख विशेषता है, बल्कि उनके नवगीतों को एक अलग सौन्दर्य भी प्रदान करती है।

नवगीत में छंद आदि का कोई विशेष महत्व नहीं होता, किन्तु लय का निर्वहन आवश्यक होता है। लय-निर्वहन के उद्देश्य से रचनाकारों द्वारा प्रायः पंक्तियों में एक निश्चित मात्रा-विन्यास रखने की पद्धति अपनाई जाती है। अब प्रदीप शुक्ल के नवगीतों में लय के निर्वहन का तो यथासंभव प्रयास दीखता है, किन्तु शायद रचना-प्रक्रिया की चुनौतियों को और कठिन होने से बचाने के उद्देश्य से प्रत्येक नवगीत के लिए निश्चित मात्रा-विन्यास को अपनाने से परहेज़ किया गया है। इस कारण कई एक नवगीतों में लयात्मकता का अभाव भी नज़र आता है। परन्तु, समग्र रूप से रचनाकार ने अपने नवगीतों में लयात्मकता का ठीकठाक निर्वहन किया है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आंचलिक भाषा और कहन में रचे गये ये नवगीत अपने समय और समाज की हर छोटी-बड़ी समस्या पर बेहद प्रभावी ढंग से ध्यान आकर्षित करते हैं। सही मायने में ये नवगीत-संग्रह, नवगीत विधा में निहित अभिव्यक्ति की विराट शक्ति को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रकट करता है तथा इस विधा की तरफ सहज ही ध्यान खींचता है।

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