शनिवार, 21 जनवरी 2017

सपा में बिखराव के राजनीतिक निहितार्थ [दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
समाजवादी पार्टी में पिछले कई महीनों से चल रही राजनीतिक व पारिवारिक उठापटक आखिर एक मुकाम पर पहुँचती नज़र आ रही है। पार्टी और चुनाव चिन्ह को लेकर पिता मुलायम और पुत्र अखिलेश के बीच बढ़ी तनातनी चुनाव आयोग के दरवाजे तक पहुँच गयी तथा चुनाव आयोग ने अखिलेश के पक्ष में फैसला सुनाते हुए पार्टी व चुनाव चिन्ह दोनों ही चीजें उनके हवाले कर दिया। मज़े की बात ये है कि मुलायम ने चुनाव आयोग के समक्ष इन चीजों पर कोई दावा भी प्रस्तुत नहीं किया। अब ये समझना कोई राकेट साइंस नहीं है कि राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी मुलायम ने अखिलेश को पार्टी का सर्वेसर्वा बनाने की अपनी इच्छा को ही चुनाव आयोग के माध्यम से पूरा करवा लिया है। लेकिन, मुलायम का मकसद सिर्फ इतना ही नहीं है, अपने इस महीनों के लम्बे नाटक और अब उसके एक सटीक अंत के जरिये उन्होंने और भी कई राजनीतिक हित साधने की कोशिश की है, जिन्हें समझने की ज़रूरत है।

दैनिक जागरण
दरअसल पांच सालों के भ्रष्टाचार, अपराध, दंगा और मुस्लिम तुष्टिकरण से पूर्ण शासन के कारण अखिलेश सरकार के खिलाफ आगामी विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर चरम पर रहने की संभावना है। मुलायम को भी इस बात का अनुमान हो गया होगा। ये देखते हुए ही उन्होंने पार्टी में उठापटक का ये खेल रचा जिसके जरिये उन्होंने अब न केवल अखिलेश को चुनाव आयोग के जरिये पार्टी का सर्वेसर्वा बनवाते हुए एक ऐसे बगावती नायक के रूप में जनता के सामने पेश कर दिया है, जो कि साफ़ और स्वच्छ राजनीति के लिए अपने पिता तक से लड़ गया। वहीं दूसरी तरफ अब वे अपना पुराना मुस्लिम राग गाने लगे हैं। उनके बयानों पर ध्यान दें तो उन्होंने कहा है कि अखिलेश मुसलमानों की उपेक्षा कर रहे थे, इसलिए वे उनके खिलाफ गए और अगर मुसलमानों के हितों की बात आयी तो वे अखिलेश के खिलाफ चुनाव में लड़ेंगे भी। ऐसा कहके वे अपने मुसलमान मतदाताओं जो कि इसबार बसपा आदि किसी और दल की तरफ अपना रुख कर सकते थे, को फिर से अपनी तरफ खींचने के लिए जाल फेंक दिए हैं। संभव है कि इसमें उन्हें कामयाबी भी मिल जाए और मुसलमानों का एकमुश्त मत उन्हें इसबार भी प्राप्त हो जाए। रहे यादव तो वे मुलायम के हैं ही। कम ही संभावना है कि वे मुलायम या अखिलेश को छोड़ कहीं और रुख करेंगे। इधर अखिलेश ने कांग्रेस और रालोद के साथ गठबंधन की कवायदें भी शुरू कर दी हैं और संभव है कि कुछ ही समय में ये गठबंधन अस्तित्व में आ जाए। ये पहले ही अस्तित्व में आ गया होता, लेकिन शायद अखिलेश को पार्टी का पूर्ण कर्ताधर्ता बनवाने के लिए इसे रोका गया हो। इस तरह देखें तो एक तरफ मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ करके खड़े मुलायम और दूसरी तरफ महागठबंधन के साथ खड़े अखिलेश, यह राजनीतिक परिदृश्य बसपा का तो सूपड़ा साफ़ करने वाला प्रतीत होता ही है साथ ही भाजपा जो अभी प्रदेश में अपने लिए काफी अनुकूल स्थिति मानकर चल  रही है, के लिए भी बड़ी चुनौती पेश करने वाला साबित हो सकता है।

अब सवाल उठता है कि इन सब चीजों में अखिलेश को इस तरह से बगावती रुख क्यों अख्तियार करना पड़ा ? और वे अपने पिता मुलायम के खिलाफ ही क्योंकर खड़े हो गए ?  दरअसल ऐसा माना जाता है कि अखिलेश ने उत्तर प्रदेश में अपनी कथित विकासवादी छवि के जरिये सपा के कोर मतदाताओं से इतर अपना एक मतदाता वर्ग तैयार किया है, लेकिन वह मतदाता वर्ग मुलायम की छत्रछाया में होने पर मजबूरी में अखिलेश की तरफ जाने से परहेज कर जाता, इसलिए मुलायम ने उन्हें अपने खिलाफ खड़ा करवाकर यह सन्देश देने की कोशिश की है कि अखिलेश एक मज़बूत नेता हैं और वे जनता के हितों के लिए अपने पिता तक के खिलाफ जा सकते हैं। सपष्ट है कि ये एक बेहद गहरा सियासी चक्रव्यूह है, जो अगर कामयाब होता है तो लाख सत्ता विरोधी रुझान के बाद भी ऐसे समीकरण बना देगा कि समाजवादी कुनबा एकबार फिर सत्ता पर काबिज़ हो सके। लेकिन, वहीँ अगर यह विफल हुआ तो फिर समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव तो लम्बे समय के लिए हाशिये पर चले ही जाएंगे, मुलायम यादव राष्ट्रीय राजनीति में एक राष्ट्रीय नेता की जो छवि बनाए फिरते हैं, उसका भी पूर्ण अवसान हो जाएगा। इसलिए कहना न होगा कि समाजवादी कुनबे में आया ये बिखराव मुलायम सिंह यादव का एक राजनीतिक जुआ है, जिसकी कामयाबी उनकी सत्ता में वापसी करवा सकती है, तो नाकामयाबी उनके अबतक के पूरे राजनीतिक कद को मटियामेट भी कर सकती है। देखना दिलचस्प होगा कि यूपी की जनता इस पूरे प्रकरण को किस निगाह से देख और समझ रही है तथा इसपर क्या फैसला सुनाती है।

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