- पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण |
अपने कार्य-क्षेत्र के प्रति समाज में व्याप्त ये हीनताबोध उसे अंदर ही अंदर सालता है। उसे कष्ट है कि किचन के अर्थशास्त्र, सगे-सम्बन्धियों के साथ बरते जाने वाले व्यवहार का समाजशास्त्र, घर आने वाले मेहमानों का मनोवज्ञान, समाज, परिवार द्वारा जाने-अनजाने दिए जाने वाले हर आघात को सहते हुए मुस्कराने का अभिनय-ज्ञान और बच्चों को एक लोरी में सुला देने के अनूठे संगीत-ज्ञान आदि अनेक विषयों को समाहित करने वाली गृहस्थी की स्वामिनी के दायित्व को क्यों हीन दृष्टि से देखा जाता है। इन सब दायित्वों को निर्वाह करने वाली वो व्यावहारिक रूप से गृहस्वामिनी ही है, किन्तु पुरुष समाज उसके कार्यों के प्रति तो निम्न दृष्टि रखता ही है, उसे भी इन कार्यों हेतु एक ‘अनुबंधित परिचारिका-सी’ ही समझ लेता है। रिश्तों के तानों-बानों को सहेजते हुए, संबंधों में आए उतार-चढ़ावों को समतल करते हुए फिरकनी-सी इधर-उधर घूमती रहती है, जिसके प्रतिफल में पुरुष की तरफ से उठा ये प्रश्न उसे निरुत्तर कर देता है कि – करती क्या हो दिन भर घर में। उसका मूल्यांकन करते समय ‘..हर बार असफल ही घोषित की जाती है स्त्री’ और फिर ‘अस्तित्वगत प्रतिभा से परितृप्त/हर जवाबदेही के लिए चाक-चौबंद/उसके परिश्रमी व्यक्तित्व को कार्यभार तो मिलता है/आभार नहीं’। अपने दायित्वों के निष्ठावान निर्वहन के रिपोर्ट कार्ड के रूप में उसे बिना किसी कृतज्ञता के कुछ हिदायतें और नये दायित्व प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी उपेक्षित स्थिति में उसके अंतस से यही पुकार उठती है कि – सारे घर की धुरी वह/फिर भी/अधूरी वह।
यह समझना कठिन
नहीं है कि ‘देहरी के अक्षांश पर’ की कविताओं के द्वारा कवयित्री वर्तमान की बहुतायत
प्रगतिशील स्त्रीवादियों जो स्त्री के गृहिणी रूप को कमतर समझते और व्याख्यायित
करते हैं, के विपरीत गृहिणी को एक अलग ही गरिमामय प्रतिष्ठा प्रदान करने का सार्थक
और सफल प्रयत्न करती हैं। साथ ही, वे गृहिणी के उस गरिमामय रूप को सार्वजनिक स्वीकृति
दिलाने के लिए भी अपना पक्ष मुखर ढंग से रखती हैं। निस्संदेह स्त्री-विषयक इस तरह के कथ्य पर बात तो होती है,
किन्तु इसपर आधारित काव्य-रचनाएँ काफी कम हुई हैं। ऐसे में, कह सकते हैं कि यह कविताएँ भाव के स्तर पर
काफी हद तक ताज़गी लिए हुए हैं।
भाषा की बात करें
तो वो शुद्ध साहित्यिक हिंदी है, जिसमें हिंदी की अपनी शब्द-संपदा में से ही विशेषतः
तत्सम शब्दावली के प्रयोग का भरसक प्रयास किया गया है। हालांकि अन्य भाषाओँ के शब्दों
के प्रति कोई वर्जना नहीं दिखती, मगर रचनाओं की मुख्य भाषा तत्सम हिंदी ही है। बड़ी-बड़ी
बातों को अपनी छोटी-छोटी पंक्तियों में पिरो देना मोनिका की भाषा की विशेषता कही
जा सकती है। हालांकि इस शुद्ध साहित्यिक हिदी के कारण कथ्य का सम्प्रेषण कहीं-कहीं
तनिक दुरूह अवश्य हो गया है, जिसे इस पुस्तक का एक कमज़ोर पक्ष कहा जा सकता है।
लेकिन, सम्पूर्ण रूप में यह पुस्तक भाषा से लेकर कथ्य तक अपने मंतव्य को अभिव्यक्त
करने में पूरी तरह से सफल सिद्ध हुई है।
बहुत बहुत शुक्रिया
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