शनिवार, 18 नवंबर 2017

बाजार के चक्रव्यूह में समाज [जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

दिल्ली धुंध से क्या हलकान हुई कि फोन पर वायु प्रशोधक उपकरणों की (एयर प्योरीफायर) कंपनियों के प्रचार संदेशों का आना शुरू हो गया। जितनी कम्पनियाँ, उतने दावे। कोई पांच तो कोई पच्चीस हजार में हमें स्वच्छ सांसें देने का दावा कर रहा है। कम्पनियों की तरफ से प्राप्त सूचना के अनुसार, धुंध (स्मोग) के बाद से वायु प्रशोधक की बिक्री में भारी इजाफा हुआ है। किसीकी दैनिक बिक्री में आठ गुना की वृद्धि हुई है, तो कोई मासिक बिक्री में तीन गुना वृद्धि की उम्मीद लगाए बैठा है। एक कंपनी ने तो अपनी साप्ताहिक बिक्री पचास गुना तक बढ़ने की बात कही है। साफ़ है कि दिल्ली और उससे सटे इलाके धुंध और धुएं से हलकान हुए, तो बाजार की बांछें खिल उठीं। ये  बाजार द्वारा समाज के नियंत्रित होते जाने का सिर्फ एक उदाहरण भर है। वास्तव में, आज बाजार लगभग प्रत्येक विषय में आदमी के जीवन में घुसपैठ करता जा रहा है।

अगर आप अगल-बगल नजर डालें तो आपको हर तरफ और लगभग हर वस्तु पर किसी न किसी प्रकार बाजार का प्रभाव दिखाई देगा। पर्वों-त्योहारों का बाजारीकरण अब सामान्य हो चला है। स्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि जैसे समाज के लिए बाजार की नहीं, बाजार के लिए समाज की स्थापना की गयी हो। रोटी, कपड़ा, मकान आदि बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुओं पर तो खैर प्रत्येक युग में कमोबेश बाजार का नियंत्रण रहता आया है, परन्तु अब बाजार इनसे कहीं आगे अपने पाँव पसार रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर भी बाजार ने डंके की चोट पर कब्ज़ा जमा रखा है।  इन सबके बाद अब वो पानी, हवा जैसी प्राकृतिक वस्तुओं पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर रहा है। हवा बिकने की कहानी तो हम ऊपर देख ही चुके हैं, अब पानी के बाजारीकरण पर भी एक संक्षिप्त दृष्टि डालिए।

पानी जैसी सर्वसुलभ वस्तु पर बाजार ने किस कदर कब्ज़ा जमा लिया है, इसका उदाहरण हमें जल प्रशोधक (वाटर प्योरीफायर) उपकरणों के बढ़ते बाजार के माध्यम से मिलता है। इस बात को हम इस साल की शुरुआत में आई ट्रांसपेरेसी मार्केट रिसर्च नामक एक अमेरिकी संस्था की रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़ों के द्वारा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वाटर प्योरीफायर का बाजार, जो २०१५ में १.१ बिलियन डॉलर का था, २०२४ तक ४.१ बिलियन डॉलर तक पहुँच जाने की संभावना है। परन्तु, पानी का धंधा सिर्फ जल प्रशोधक उपकरणों तक सीमित नहीं है, अब शहरी इलाकों में ख़राब हो रहे पानी के आधार पर लोगों का भयादोहन करते हुए गली-गली में फिल्टर किए पानी का पूरा एक व्यापारिक ढांचा खड़ा हो गया है। सामान्यतः बीस लीटर फ़िल्टर पानी घर पहुंचाने की कीमत शहरी इलाकों में लगभग दस रूपये से लेकर तीस रूपये तक है। शुक्र है कि ग्रामीण इलाके अभी इस बीमारी से काफी हद तक बचे हुए हैं। हवा, पानी जैसी प्राकृतिक वस्तुओं पर बाजार का ये बढ़ता वर्चस्व सोचने को विवश तो करता है, मगर सुरसामुखी बाजार की तृप्ति इतने से भी होती नहीं दिख रही। भौतिक और प्राकृतिक वस्तुओं के बाद अब वो नींद, भूख, सेक्स, शांति, सुकून जैसी आदमी के शरीर और मन से जुड़ी आंतरिक आवश्यकताओं को भी अपने चंगुल में लेने की कामयाब हो रही कोशिश में लगा हुआ है।

थोड़ा गूगल कीजिये तो पाएंगे कि बाजार में आज दो सौ से लेकर दो हजार और उससे भी अधिक मूल्य तक के कथित स्मार्ट गद्दा, रजाई और तकिये मिल रहे हैं, जिनके विषय में ऐसा दावा किया जा रहा कि इनपर सोते ही नींद आ जाएगी। आश्चर्य यह है कि लोग इन्हें खरीदने में रूचि भी दिखा रहे हैं। वेश्यावृत्ति का बाजार तो चल ही रहा था, अब सेक्स टॉयज के रूप में बाजार ने व्यक्ति की इस विकट शारीरिक आवश्यकता पर एक और निशाना लगा दिया है। विविध प्रकार के छोटे-बड़े सेक्स टॉयज अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ बाजार में उपलब्ध हैं। हालांकि भारत में अभी इनकी खपत बहुत नहीं है, मगर दुनिया के अन्य देशों में इनका बाजार अपनी मजबूत पैठ बना चुका है। इसके अलावा सेक्स की ताकत बढ़ाने वाली अलग-अलग दवाएं भी सेक्स के बाजारीकरण का ही एक उदाहरण हैं। इतना ही नहीं, दिमाग को तरोताजा करने के नुस्खे तक बाजार के पास उपलब्ध हैं। ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर पड़ताल करिए तो पाएंगे कि दिमाग को तरोताजा करने के लिए कई तरह के खिलौनों से लेकर संगीत की कैसेटें तक बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। मोटे तौर पर कहें तो स्थिति ये है कि आप अपनी किसी आवश्यकता के लिए किसी वस्तु की कल्पना करिए, उससे पहले बाजार वो वस्तु लेकर हाजिर हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाजार किस तरह व्यक्ति के जीवन के हर पहलू में घुसता जा रहा है और आदमी जाने-अनजाने उसे घुसने की पूरी सहूलियत भी देने में लगा हुआ है।

विचार करें तो बाजार की स्थिति हमें उस चिकित्सक जैसी प्रतीत होती है, जो पहले रोग को बढ़ाता है, फिर धीरे-धीरे उसका उपचार करता है। विद्रूप यह कि कमाता वो दोनों ही स्थितियों में है। बाजार का भी यही चरित्र हो चला है। गौर करें तो आज जिन समस्याओं के समाधान के रूप में तरह-तरह के उत्पाद बेचकर बाजार मोटा माल कमा रहा है, उन समस्याओं का भी स्रोत वही है। हवा और पानी के प्रदूषण के लिए आज बाजार एक तरफ प्योरीफायर बेच रहा, तो दूसरी तरफ प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियाँ और विविध केमिकल्स का माध्यम भी बाजार ही है। इसे ऐसे भी समझिये कि जो कम्पनी मोबाइल और एसी जैसे प्रदूषणकारी उत्पाद बना रही है, वही एयर प्योरीफायर के जरिये शुद्ध हवा का भरोसा भी दे रही है। मोटे तौर पर कहें तो समस्या और समाधान दोनों का स्रोत बाजार ही है और दोनों ही से कमाने में भी लगा है।

वास्तव में बाजार तो अपने चरित्र का ही अनुपालन कर रहा है। दोष बाजार का नहीं, समाज का है। विशेष तौर पर शहरी समाज में लगातार बढ़ रही अतिविलासिता और सुविधाभोग की प्रवृत्ति ने उसे बाजार के हाथों की कठपुतली बना दिया है। हर तरफ बाजार के हाथों की कठपुतली बना आदमी उसके इशारों पर या तो नाच रहा है अथवा नाचने को आतुर है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसके पास जितनी आर्थिक क्षमता है, वो बाजार के हिसाब से उतना नाच रहा है और जिसके पास क्षमता नहीं है, वो क्षमता को अर्जित करने की कवायदों में लगा है ताकि बाजार के हिसाब से नाच सके। साथ ही, अब सुविधाभोग की वस्तुओं को अपने स्टेटस से जोड़कर देखने का चलन भी जोर पकड़ चुका है। ये सब वो कारण हैं, जिससे समाज, जिसे बाजार का नियमन करना चाहिए, बाजार की गुलामी कर रहा है। संतोष की भावना लगभग समाप्त हो चुकी है। जरूरत है कि समाज संतोष के मार्ग को अपनाकर बाजार की इस गुलामी से बाहर आए और उसके नियंत्रक की अपनी वास्तविक भूमिका को निभाए। बाजार का गुलाम समाज कभी सही अर्थों में उन्नति को प्राप्त नहीं कर सकता।

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