बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

हवा के ज़हर से मुक्ति कब [हरिभूमि, अमर उजाला कॉम्पैक्ट और जनसत्ता में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
सर्वोच्च न्यायालय ने देश की राजधानी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को लेकर एकबार फिर सरकार से जवाब तलब किया है न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि दिल्ली में प्रतिदिन औसतन आठ लोग वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से मरते हैं। इसके अलावा न्यायालय ने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा सरकारों से भी प्रदूषण की रोकथाम को लेकर पूर्ण कार्य-योजना प्रस्तुत करने को कहा है न्यायालय ने फर्नेस आयल आदि प्रदूषण उत्पादकों के दहन पर भी प्रतिबन्ध लगाने का निर्देश सरकार को दिया है। अब न्यायालय की इन सभी बातों को कितनी गंभीरता से लिया जाता है, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन यह वास्तविकता है कि केवल देश की राजधानी दिल्ली बल्कि पूरे देश में प्रदूषण का स्तर बेहद विकराल रूप ले चुका है। इस संदर्भ में हाल ही में आई देश के २४ राज्यों के १६८ शहरों की स्थिति पर आधारित ग्रीनपीस इंडिया की रिपोर्ट उल्लेखनीय होगी, जिसके अनुसार देश में प्रतिवर्ष प्रदूषणजनित बीमारियों से बारह लाख लोगों के मरने की बात कही गयी है। यह भी उल्लेखनीय होगा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के प्रत्येक दस में से नौ व्यक्ति प्रदूषित वायु में सांस लेने को मजबूर हैं और वायु प्रदूषण से होने वाली हर तीन में से दो मौतें भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में होती हैं समझा जा सकता है कि भारत में वायु प्रदूषण बेहद चिंताजनक स्तर पर है इस स्थिति को और अच्छे-से समझने के लिए अगर गौर करें तो गत वर्ष केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा देश के २१ चुनिन्दा शहरों की वायु गुणवत्ता पर एक रिपोर्ट जारी की गयी थी, जिसके अनुसार उन २१ में से महज एक शहर हरियाणा का पंचकुला है जहाँ वायु गुणवत्ता का स्तर संतोषजनक है इसके अतिरिक्त मुंबई और पश्चिम बंगाल के शहर हल्दिया में भी वायु की गुणवत्ता कुछ ठीक है, लेकिन शेष सभी शहरों की हवा का स्तर मध्यम और ख़राब से लेकर बहुत ख़राब तक पाया गया है इनमे मुजफ्फरपुर, लखनऊ, राजधानी दिल्ली, वाराणसी, पटना, फरीदाबाद, कानपुर, आगरा आदि शहरों का प्रदूषण स्तर क्रमशः बहुत ख़राब पाया गया इन शहरों में तब  दिल्ली तीसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर पाया गया था गौर करें तो पूर्व केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा राज्य सभा में जारी एक आंकड़े के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन लगभग ८० लोगों की मौत होती है। नासा सैटेलाइट द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे छोटे कण की मात्रा बेहद अधिक है। औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों द्वारा निकासित धुंए से हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन रही है। देश की राजधानी की ये स्थिति चौंकाती भले हो, लेकिन यही सच्चाई है। इंकार नहीं कर सकते  कि इसी कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। यह हाल सिर्फ दिल्ली का नहीं है, वरन देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है। इन स्थितियों के कारण ही वातावरण में सुधार  के मामले में भारत की स्थिति में काफी गिरावट आई है। 

जनसत्ता
अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक़ एनवॉयरमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स में  178 देशों में भारत का स्थान 32 अंक गिरकर 155वां हो गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खस्ताहाल है। अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के मामले में भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की स्थिति बेहतर है जिनका इस इंडेक्स में स्थान क्रमशः 148वां, 139वां, 118वां और 69वां है। यह सूची जिन प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई है, उनमे वायु प्रदूषण भी शामिल है।   इस वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग छः लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। इन आंकड़ों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारत में वायु प्रदूषण अत्यंत विकराल रूप ले चुका है। दुर्योग यह है कि देश इसको लेकर बातों में तो चिंता व्यक्त करता है, पर इसके निवारण रोकथाम के लिए यथार्थ में बहुत कुछ करता नहीं दिखता। 

हरिभूमि
बहरहाल, उपर्युक्त आंकड़ों के सम्बन्ध में यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसख्या,   औद्योगिक प्रगति और वाहनों की मात्रा भारत की अपेक्षा बेहद कम है, इसलिए वहां वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन इस तर्क पर सवाल यह उठता है कि स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देश क्या औद्योगिक प्रगति नहीं कर रहे या उनके यहाँ वाहन नहीं हैं, फिर भी वो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित देशों में कैसे शुमार हैं ? और क्या ऐसी दलीलों के जरिये देश और इसके कर्णधार इसको प्रदूषण मुक्त करने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं ? दरअसल वायु प्रदूषण औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के मध्य कितना बेहतर संतुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित किया जाय तो केवल वायु प्रदूषण वरन हर तरह के प्रदूषण से निपटा   जा सकता है। पर इस संतुलन के लिए कानूनी स्तर से लेकर जमीनी स्तर पर तक मुस्तैदी दिखानी पड़ती है, जिस मामले में यह देश काफी पीछे है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता को इसीसे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित कोई वादा नहीं करता। ऐसे किसी वादे से इसलिए परहेज नहीं किया जाता  कि प्रदूषण नियंत्रण कठिन कार्य है, क्योंकि इससे कठिन-कठिन वादे हमारे हुक्मरानों द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन वे प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिए परहेज करते हैं कि उनकी नज़र में ये कोई मुद्दा नहीं होता।
 
अमर उजाला कॉम्पैक्ट
देश में वायु प्रदूषण के लिए दो सर्वाधिक जिम्मेदार कारक हैं। एक डीजल-पेट्रोल चालित मोटर वाहन और दूसरा औद्योगिक इकाइयाँ। वाहनों में प्रयुक्त पेट्रोल एवं डीजल के दहन के फलस्वरूप कई वायुप्रदूषकों की उत्पत्ति होती है यथा कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन एवं सल्फर के आक्साइड, धुंआ, शीशा आदि। एक स्वचालित वाहन द्वारा एक गैलन पेट्रोल के दहन से लगभग 5x20 लाख घनफीट वायु प्रदूषित होती है। विश्व के सभी देशों में वाहनों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और उससे उत्पन्न परिणाम समय समय पर (यथा कोहरा बनना) परिलक्षित हो रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार 33 प्रतिशत वायु प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले धुंये के कारण होता है। फिर भी, मोटर वाहनों में तो कुछ हद तक ईंधन सम्बन्धी ऐसे बदलाव हुए हैं, जिससे कि उनसे होने वाले प्रदूषण में कमी आए। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए कुछ ठोस नहीं किया जा रहा जबकि उनसे सिर्फ वायु ही नहीं, वरन जल आदि में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है। इन औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाले धुंए की भयानकता इसीसे समझी जा सकती है कि देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे एनसीआर इलाकों जहाँ औद्योगिक इकाइयों की भरमार है, में तो ये धुंआ स्थायी धुंध का रूप लेता जा रहा है। आलम यह है कि धुंध के मामले में दिल्ली ने बीजिंग को भी पीछे छोड़ दिया है। भारत में यह समस्या बहुत गहरी है  इन  औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए एक सख्त क़ानून की जरूरत है जिसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती। एक और बात कि एक तरफ तो इन औद्योगिक इकाइयों, वाहनों की भरमार से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीँ दूसरी तरफ दिन दिन पेड़-पौधों में जिस तरह से कमी रही है, उससे स्थिति और विकट होती जा रही है। अब जमीनी हालात ऐसे हैं  और देश औद्योगिक प्रगति के अन्धोत्साह में अब भी उलझा हुआ है। दोष सिर्फ सरकारों का ही तो नहीं है, जाने-अनजाने नागरिक भी इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। लोगों ने अपने जीवन को इतना अधिक विलासितापूर्ण बना लिया है कि जरा-जरा सी चीज के लिए वे उन वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर हो गाए हैं जिनसे वायु प्रदूषण का संकट और गहराता है। वाहन, बिजली उपकरण, कागज़, सौन्दर्य प्रशाधन आदि तमाम चीजें हैं जिनपर लोगों की  आवश्यकता से अधिक निर्भरता हो गयी है जो कि प्राकृतिक विनाश और प्रदूषण के विकास में महती भूमिका निभा रही है। गौर करें तो घरेलू कार्यों जैसे भोजन पकाना, पानी गर्म करना आदि में कोयला, लकड़ी, उपले, मिट्टी का तेल, गैसें इत्यादि का प्रयोग ईंधन के रूप में होता है। इन जैविक ईधनों के दहन के फलस्वरूप विभिन्न विषैली गैसों का निर्माण होता है, जो कि वायुमण्डल को प्रदूषित करतीं हैं। तमाम घरों में रेफ्रीजरेटर, एअर कण्डीशनरों का प्रयोग एक सामान्य सी बात है। इन विद्युत चालित उपकरणों से निकलने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैस (सीएफसी) वायुमण्डल में उपस्थित ओजोन परत का सर्वाधिक विनाश करने वाली है।  

उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए आज जरूरत यही प्रतीत होती है कि सरकार और नागरिक दोनों इस सम्बन्ध में चेत जाएं और वायु को जीवन के अनुकूल रखने के लिए केवल बातों से वरन अपने आचरण से भी गंभीरता का परिचय दें। इस सम्बन्ध में अपने-अपने स्तर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। क्योंकि सारी प्रगति तभी होगी जब हम जीएंगे और हम जीएंगे तभी, जब धरती पर स्वच्छ और सांस लेने योग्य वायु होगी।

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